केजरीवाल वर्सेज मोदी का गणित क्या है… केजरीवाल जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था का दावा करके चुनाव में उतरे थे, सबसे पहले उन्होंने, उन्हीं लोकतांत्रिक विचारों को तिलांजलि दी थी, योगेंद्र यादव, प्रशांत, विश्वास, को पार्टी से निकालने की ड्रमेटिक कहानियां तो पढ़ने को मिल गईं थीं, लेकिन ऐसे हजारों समर्थकों की कहानियां अखबारों में जगह नहीं पा सकीं हैं जो केजरीवाल से ईमानदारी से जुड़े थे, लेकिन हारकर, थककर, अंततः निराश हुए और वापस चले गए.
दिल्ली में विकास की एडवरटाइजिंग हवाबाजी से बहुत अधिक नहीं है. शिक्षा और हेल्थ पर हुए विकास की बातें भी लगभग सतही ही हैं. पांच साल बाद भी न तो बच्चों को नर्सरी में आसानी से दाखिला मिल पाता है, न ही डॉक्टर.
लेकिन यहां एक चीज गौर करने की है, कि जमीन पर न सही तो कमसे कम केजरीवाल के भाषणों में तो शिक्षा का मुद्दा रहा है, हेल्थ का मुद्दा रहा है.
मैंने कहीं पढ़ा था कि अगर किसी जगह किसी चीज का ढोंग किया जा रहा हो, तो ये इस बात को साबित करता है कि ढोंग की जा रही चीज का समाज में अब भी सम्मान है, देर सबेर ही सही, उसे असल में स्थापित करने की गुंजाइश भी रहती है. यही कारण है कि केजरीवाल शिक्षा और हेल्थ में अधिक क्रांतिकारी बदलाव न लाने के बावजूद, एक उम्मीद बने हुए हैं. अगर वह ढोंग भी कर रहे हैं तो कम से कम शिक्षा और हेल्थ जैसी आम जरूरतों का कर रहे हैं.
लेकिन मोदी के भाषणों में भी जनमानस के मुद्दे नहीं हैं, भारतीय प्रधानमंत्री गलीछाप लीचड़ बातों पर उतर आए हैं, शमशान वर्सेज कब्रिस्तान से लेकर, दंगाइयों को कपड़े से पहचानने जैसे बयान मोदी की प्रियॉरिटी दिखाते हैं. देश का प्रधानमंत्री 2014 से ही पाकिस्तान, पाकिस्तान, पाकिस्तान, नेहरू, नेहरू, नेहरू, कांग्रेस, कांग्रेस से बाहर नहीं आ पा रहे हैं. ये साबित करता है कि इस देश के प्रधानमंत्री की प्रियॉरिटी क्या हैं!
मोदी का हिंदुत्व, ‘विकास’ की चादर ओढ़कर चुनाव लड़ा था, मोदी के भाषणों में विकास था, लेकिन कार्यकर्ताओं के मुंह में हिन्दू-मुसलमान था. मोदी चुनाव जीत गए, लेकिन आप मोदी का पिछला कोई भाषण याद कीजिए जिसमें मोदी ने अपनी ही योजनाओं जैसे स्मार्ट सिटी, मेड इन इंडिया, अमृत योजना, कौशल विकास योजना, महंगाई, का जिक्र तक किया हो! मोदी और अमितशाह ने इस देश को व्यस्त रखने के लिए एक राष्ट्रीय सिलेबस तैयार किया हुआ है, जिसके केंद्र में मुसलमान है, फर्जी राष्ट्रवाद है. जिसके आगे शिक्षा-हेल्थ-रोजगार की बातें लगभग अप्रचलित हो गई हैं.
मैं नहीं कहता कि अरविंद केजरीवाल बेस्ट हैं, या उनका कोई विकल्प नहीं है. लेकिन इतना तय है कि हिन्दू-मुसलमान और फर्जी राष्ट्रवाद के फंदे बुनने वाली कोई पार्टी-संगठन उसका विकल्प नहीं हो सकते.
केजरीवाल का वोटिंग सोर्स शिक्षा और हेल्थ है तो मोदी का नफरत और साम्प्रदायिक मुद्दे हैं. केजरीवाल कमसे कम सेकुलरिज्म को सेकुलरिज्म ही बोलते हैं, भले ही यह प्रश्न बना रहेगा कि वह कितना मानते हैं. लेकिन इससे इतना तो स्पष्ट है कि वह संविधान और उसके नेचर का सार्वजनिक लिहाज कर रहे हैं, लज्जा रख रहे हैं. कमसे सार्वजनिक रूप से तो संविधान और सेक्युलरिज्म उनकी चिंताओं में है. लेकिन मोदी-शाह तो सार्वजनिक लिहाज भी नहीं करते, उनके लिए सेक्युलरिज्म, सिक्युलरिज्म है. बुद्धजीवी, बुद्धिजीवी हैं, विश्वविद्यालय रंडीखाने हैं, स्टूडेंट्स देशद्रोही हैं, संविधान कॉपी-पेस्ट है, गांधी विभाजन का जिम्मेदार हैं, नेहरू चरित्रहीन हैं, गोडसे देशभक्त है.
ऊपरी स्तर पर आते-आते केजरीवाल भी डिक्टेटर हो जाते हैं, पार्टी के अंदर के आंतरिक लोकतंत्र को खत्म कर देते हैं, उनकी पार्टी में भी ऊपरी जातियों का ही वर्चस्व है. लेकिन तमाम असहमतियों और विरोधाभासों के बाद भी केजरीवाल के मुद्दे उन्हें दंगाइयों से अलग करते हैं. कमसे कम उनकी जुबान में ऑटो वाले महिलाएं स्टूडेंट्स, माइनॉरिटी, यूनिवर्सिटी, हॉस्पिटल्स तो हैं.
आईआईएमसी के छात्र रहे युवा पत्रकार Shyam Meera Singh की फेसबुक वॉल से.