बोधिसत्व, मुंबई
अरुण माहेश्वरी गुंडों की तरह झूठ क्यों बोल रहे? आभा हैं या अरुण जी या सरला जी ठग हैं चोर हैं?
हम आभा और बिटिया भाविनी इन अरुण जी और सरला जी के घर दस फरवरी 2015 को गए। वहां आभा ने उनको और उनकी पत्नी सरला माहेश्वरी को कविताएं सुनाई। पूर्व राज्य सभा सांसद सरला जी ने दो कविताएं दो बार सुनीं। एक “भाई की फोटो” और दूसरी “जज साहब” यही जज साहब आगे अरुण जी की वॉल पर सरला जी की कविता के रूप में अवतरित हुई!
अरुण जी का कहना है कि उन्होने उस मुलाकात के दिन हमें सरला जी की किताब “आसमान के घर की खुली खिड़कियां” भी दी, अन्य किताबों के साथ। लेकिन कमाल की बात यह है कि वह किताब तब तक प्रकाशित भी नहीं हुई थी। उसका कहीं नामो निशान तक न था। अपने झूठ का पर्दाफाश अरुण जी खुद की ही एक पोस्ट में कर रहे हैं।
देखिए उनकी फेसबुक वॉल पर 25 और 26 सितंबर 2015 की पोस्ट या उन पोस्टों का स्क्रीन शॉट यहां नीचे लगाया है। वे उसे उड़ा न दें इस आशंका से!
कोई अरुण जी और सरला जी से यह पूछे कि भाई एक कविता के लिए आप कितना झूठ बोल सकते हैं? अरुण जी खुद लिख रहे हैं कि किताब 2 अक्टूबर 15 को आ जाएगी। जो किताब अक्टूबर में आएगी। वह भाई ने हमें 8 महीने पहले 10 फरवरी को भेट में दे दी। जिसका कवर उनके पास खुद 25 सितंबर में आया।
कुछ दिन पहले इनको आलोचना के संपादक और जनवादी लेखक संघ के भाई संजीव कुमार ने एक पोस्ट में “चूर्ख” कहा था। मैंने उनसे आपत्ति दर्ज कराई कि इतने भारी अपमान के योग्य नहीं हैं अरुण जी उन्होंने वह पोस्ट हटा ली। कोलकाता के कवि ने इनको “धूर्ख” कहा हमने उसे मना किया। वह मान गया। हमारा मानना है कि यह या ऐसी उपाधिया पुलिस या सीबीआई देती है। कवि लेखक नहीं।
ये हमारे लिए जनकवि हरीश भादानी जी के दामाद ही रहे हैं या आदरणीय कथाकार संपादक मार्कण्डेय जी के पारिवारिक। हमने इन्हीं दो स्रोतों से इनको जाना। मैं इनको या सरला जी को यह आदमी या यह महिला नहीं लिख पाऊंगा। यह काम पुलिस या अन्य सरकारी संस्थाओं के मुख से शोभा देती हैं।
जब आपसे 2015 की 10 फरवरी को मिलने जा रहा था। तक भी बंगाल के मित्रों ने कहा कि वे कुल खानदान और परिवार सहित फर्जीवाड़े में लिप्त हैं। मैंने कहा कि आपस में सरकार और पुलिस का क्या रोल। अरुण जी और सरला जी अपने हैं। फर्जी पहचान पत्र बनाएं या फर्जी पेन कार्ड बनाएं या फर्जी कागज पर जमीन हथिया लें या जाली पेपर के आधार पर आय से अधिक संपदा जुटा लें। यह जांचना सरकार का काम है। वे तो एक स्वर्गीय सच्चे साथी हरीश भादानी जी के बेटी और दामाद हैं। मैं मिलूंगा। और ऐसे लोगों से मिलने मिलने का परिणाम सामने है।
खैर ये अरुण जी सिर्फ इतना ही बतायें की झूठ क्यों बोल रहे। जो किताब 2 अक्टूबर तक छपी नहीं थी। जिसका 25 सितंबर तक कवर तक नहीं आया था वह किताब इन्होंने हमें लगभग 8 महीने पहले बिना छपे ही भेट भी दे दिया। जो व्यक्ति कल्पना में किताब भेट कर सकता है उसमें झूठ बोलने का गजब आंतरिक हौसला होगा ही भाई। जिगरा चाहिए।
31 साल की जान पहचान को कुचलने में पर्याप्त क्रूरता की भी आवश्यकता होती है। वह है जिगर इनमें है इसका हमें यकीन हो चला है।
ये हम पर अपने पोषितों को लुहकारें, लेकिन आज भी अगर कोई इन को “चूर्ख” या “धूर्ख” या “लूर्र” बोलेगा तो सबसे पहले आपत्ति करने हम आएंगे। साहित्यिक लिनचिंग में हमारी कोई आस्था नहीं! लुहेडों की “आंच” में हमारी कोई बसाहट नहीं। आय से अधिक “धन” नहीं और जो लिखा नहीं उससे अधिक “रचना” नहीं हमारे पास!
आभा ने गलती की होती तो वह अरुण जी से सादर पूछने न जाती की “सर यह क्या हो रहा है”। वह खुद अपने खिलाफ पोस्ट लिख कर यह बात उजागर क्यों करती? क्योंकि उसे और हमें ध्यान था कि सरला जी ने और अरुण जी ने वह कविता दो बार सुनी थी। हमने अदरक और मसाले वाली चाय दो बार पी थी।
लेकिन चाय की चुस्की में हमें यह ध्यान नहीं रहा कि ये उन लोगों में से हैं जो चुराए हुए लोटे गिलास पर तत्काल ठठेरी बाजार जा कर अपना नाम खुदवा लेते हैं! बर्तनों का निजीकरण ये ऐसे ही करते हैं! ठठेरी बाजार की नाम खुदाई और ऐसे झूठ में ये लिप्त रहें। इनको मुबारक!
मेरा मानना है यह साहित्य सभा है कोई राजनीति की गंध से अटा पटा राज्य सभा या लोक सभा नहीं।
यह ध्यान रहे कि मामला आभा ने स्वयं उजागर किया।
जो व्यक्ति या लोग सरकारी कार्ड फर्जी बना सकते हैं उनके घर में गुप्त रूप से आवाज रेकॉर्ड करने का उपाय भी हो इसमें कोई आश्चर्य की बात नही। हम सेठ नहीं लेकिन इन हजार करोड़ वालों से संघर्ष करते रहेंगे। यही पूर्वजों और जनवाद से सीखा है!
यह पोस्ट प्रकाशित होते के साथ झूठ जालसाजी का पर्दफाश होते ही अरुण माहेश्वरी हमें और आभा को ब्लॉक कर के लिकल गए हैं। उत्तर देने की जगह दुर्वाद कर रहे हैं।
मूल पोस्ट-