ओम थानवी-
मंगलेश डबराल चले गए। कविता और गद्य में अलग से पहचानी जाती लालटेन की रोशनी बुझ गई। कोरोना ने बहुतों को छीना है। पर मंगलेशजी के जाने से हिंदी साहित्य सदमे में गया है।
वे सिद्ध कवि थे। उनका गद्य भी सुघड़ था। उन्होंने मुख्य धारा की पत्रकारिता में साहित्य को ख़ास जगह दी। कला और शास्त्रीय संगीत में भी उनकी ख़ास रुचि थी।
उनका जाना मेरे लिए निजी क्षति है। जनसत्ता में हमने साथ काम किया। बाद में वे भी जनसत्ता आवास में आ गए। तब अजेय कुमार और जब-तब विष्णु खरे की मौजूदगी में हमारे यहाँ बहुत बैठकी हुई। उनका गाना भी ख़ूब सुना। बहसें भी ख़ूब कीं।
रवींद्र त्रिपाठी और संजय जोशी की पोस्ट पढ़कर उम्मीद बंध चली थी कि अब वे ख़तरे से बाहर हैं। अजेय कुमार बोले भी कि दिल्ली आइए, मंगलेशजी भी आने वाले हैं। एम्स जाने पर तो सबकी उम्मीद और मज़बूत हो गई थी। लेकिन इस महामारी का भी क्या भरोसा।
संगतकार चला गया, पर उनके साहित्य की संगत बनी रहेगी। यह भरोसा पक्का है। इसे कौन महामारी हिला सकती है?
उनकी स्मृति को नमन।
अनन्त मित्तल-
मंगलेश जी आप भी सार्वजनिक जीवन को दरिद्र कर गए। पहले ललित सुरजन और उनके पीछे-पीछे आप भी अभिव्यक्ति पर घिरती घटाओं के बीच महामारी के शिकार हो गए। मेरे लिए तो ये निजी क्षति है क्योंकि आप न होते तो शायद मैं लेख लिखना सीख ही न पाता। जनसत्ता में 400 शब्द की रिपोर्ट लिखने वाला रिपोर्टर ही रह जाता। आपने ही मुझसे मेरा पहला लेख शायद 1984 में लिखवाया था। उसके लिए कुछ क्लिपिंग्स दीं और पूरा संदर्भ भी समझाया। लिखने के बाद भी उसमें जो संशोधन किए उनके बारे में समझाया। हमेशा लिखने को प्रोत्साहित किया। आर्थिक उदारीकरण के वो पहलू जो अब सबको परेशान कर रहे हैं उन पर आपने 1993 में ही मुझसे लिखवाना शुरू कर दिया था। चाहे पेटेंट कानूनों की लड़ाई हो या डाक्टरी पेशे को उपभोक्ता संरक्षण कानून की जद में लाने की आपने रविवारी जनसत्ता के पूरे-पूरे पन्ने मेरे लिखे को छापने के लिए दिए। किस्से तो कई हैं आपके साथ और आपसे सीखने के मगर फिर कभी। अभी तो बस आपको अंतिम प्रणाम।
रंगनाथ सिंह–
मंगलेश डबराल नहीं रहे। ज्यादातर हिन्दीजन उन्हें कवि के तौर पर याद करेंगे। मेरे लिए वो एक शानदार टीचर थे। मेरी उनसे आमने-सामने मुलाकात 15 साल पहले हुई। वह हमारे पत्रकारिता कोर्स में समाचार संपादन का वर्कशॉप लेने आये थे। उनसे पहले टीचर संपादन के नाम पर कुछ-कुछ बोल देते थे। उनसे पहले तक यही लगता था कि वर्तनी और वाक्य-विन्यास दुरुस्त करना ही संपादन है। लेकिन जब उन्होंने हम छात्रों की कॉपियों पर संपादन का नमूना दिखाना शुरू किया तो मुझे पहली बार अहसास हुआ कि संपादन क्या चीज है। वह इतनी गम्भीरता से हम छात्रों की कॉपी एडिट कर रहे थे जैसे वो कल के अखबार में छपनी हों। उन्होंने दूसरे टीचरों की तरह ‘मेरी जीवन कथा’ सुनाने में भी समय नहीं गँवाया। सच यही है कि उस दिन का सबक मैं आज तक नहीं भूला।
बाद के सालों में कुछेक सार्वजनिक जगहों पर उनसे नमस्ते बंदगी हुई। मेरा उनसे कभी कोई निजी परिचय नहीं रहा। लेकिन एक बार कंस्टिट्यूशन क्लब में वो सामने से आते दिखे तो मैंने आदतन नमस्ते किया। वो रुक गये और पूछा, क्या हालचाल है। अचानक मुझे लगा कि मुझे कोई और समझ कर तो हालचाल नहीं कर रहे क्योंकि हमारा कोई परिचय तो है नहीं। मैंने पूछा आप मुझे पहचानते हैं। उन्होंने मेरा नाम लेकर कहा – आप रंगनाथ सिंह हैं ना। मैं बेहद शर्मिंदा हो गया। मुझ जैसे अकिंचन आदमी को भी वह जानते थे। जबकि हमारा निजी परिचय कभी नहीं था। मैं समझ गया वह हिन्दी के नए पढ़ने-लिखने वालों पर नजर रखते हैं।
बाद के सालों में कई बार मन हुआ कि उन्हें उनकी उस एडिंटिंग वर्कशॉप के लिए धन्यवाद बोलूँ लेकिन लगता था यह बहुत छोटी बात होगी। कृतज्ञतापूर्ण नमन सर!
पंकज चतुर्वेदी-
बहुत दुखभरी खबर। हमारे प्रिय मंगलेश डबराल जी कोरोना से अपनी जंग हार गए।
वरिष्ठ कवि और लेखक मंगलेश डबराल का बुधवार को निधन हो गया। वे कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए थे, जिसके बाद उन्हें गाजियाबाद के वसुंधरा के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया था। तीन दिन पहले उन्हेंएम्स में शिफ्ट किया गया था।
मंगलेश डबराल को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिल चुका था। बता दें कि मंगलेश डबराल समकालीन हिंदी कवियों में सबसे चर्चित नाम थे। उनका जन्म 14 मई 1948 को टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड के काफलपानी गांव में हुआ था। इसके बाद, उनकी शिक्षा देहरादून में हुई।
मेरे मंगलेश जी से सम्पर्क 1988 से जनसत्ता के दिनों से थे। वे एक बार मेरे अनुरोध पर मेरे घर छतरपुर भी गए थे। वे हमारे साथ हमारे ऑफिस में एक प्रोजेक्ट में काम करते रहे।
मंगलेश जी के देहावसान ने इस मनहूस साल को और असहनीय बोझिल कर दिया।
सुंदर चंद ठाकुर–
मृत्यु एक मजाक से ज्यादा कुछ नहीं। अरे भाई मरने वाले को इलहाम तो होने दो कि वह मर रहा है। उसे स्मृति में ही सही जिंदगी के कुछ खूबसूरत पलों को एक बार जी भर कर जीने की इजाजत तो दो। वह अगर कुछ प्रियजनों को याद करना चाहे, किसी को आखिरी सलाम करना चाहे, तो कुछ पल के लिए ही सही, पर उसे होश में तो लाओ। बस इसी बात पर गुस्सा हूं!!
और इसका क्या कि अपनी किताब भेंट करते हुए मेरे लिए उनके लिखे शब्दों की महक भी नहीं गई थी अभी
और वे चले गए….
सलाम कॉमरेड… स्मृति एक दूसरा समय है and you are welcome there❤️
Pankaj Chaturvedi-
रघुवीर सहाय के जन्मदिन 9 दिसम्बर को मंगलेश डबराल {Mangalesh Dabral ji} की विदाई ! हिन्दी कविता के लिए इससे मनहूस और भयावह ख़बर की कल्पना नहीं की जा सकती थी।
कई वर्ष पहले एक बार आप कानपुर में मेरे घर आये, तो मैंने आपको एक सुन्दर, सुसज्जित और सुविधा-सम्पन्न कमरे में आसन दिया। सफ़र से थके हुए थे, लिहाज़ा मैंने कहा : ‘आप कुछ आराम कर लीजिए !”
आप साज़ोसामान को ज़रा देर देखते रहे और परेशान-से लगे। साफ़ था कि उस दृश्य से आपको कोई राहत नहीं मिल पा रही थी।
मैंने पूछा : “क्या बात है ?”
आपने कहा : “मुझे किसी ऐसे कमरे में ले चलो, जिसमें किताबें हों !”
आज आप कभी न लौट आने के लिए इस दुनिया से चले गये ! मगर मुझे यक़ीन है : आप जहाँ कहीं भी होंगे, किताबों वाला कमरा ज़रूर होगा।
अम्बरीश कुमार–
पहाड़ की लालटेन बुझ गई .मंगलेश डबराल जी नहीं रहे .यह सूचना कार्यक्रम के बीच में दी गई .अखर गया उनका इस तरह जाना .शाम करीब पांच बजे ही ज्योतिर्मय से फोन कर पूछ रहा था कैसी तबियत है पर जवाब था कि अभी भी गंभीर हैं .वेंटिलेटर पर है .करीब हफ्ता भर पहले ही फोन पर बात हुई तो आवाज साफ़ नहीं थी पर अटक अटक बोल रहे थे .थोड़ी देर ही बात हुई .
उनसे अपना साथ लखनऊ में अमृत प्रभात से रहा .जनसत्ता में काफी दिन उनका सानिध्य मिला .खूब मौका भी दिया उन्होंने लिखने का रविवारीय में .जनसत्ता के बाद शुक्रवार में वे अपने सलाहकार संपादक थे .तब करीब करीब रोज ही बात होती खबरों को लेकर .कवर स्टोरी को वे ही निखारते तराशते थे .कितने लोगों को उन्होंने पत्रकारिता में आगे बढ़ाया .उनके जैसा संपादन करने वाला मैंने दूसरा कोई नहीं देखा .उनके लेखन का जादू हम देखते रहे हैं .वे देश के मशहूर कवि लेखक थे पर कोई भी कभी भी उनसे सहजता से मिल सकता था . पर खबरों में वे रियायत भी बरतते .भले कोई करीबी भी रहा हो .कई मोर्चे पर उन्हें एक साथ लड़ते देखा है .भूख भुखमरी गरीबी पर उनका लिखना भी देखा है .मजहबी गोलबंदी के खिलाफ उन्हें मोर्चा खोलते भी देखा है .सरोकार वाली पत्रकारिता को उन्होंने और उंचाई दी जो हमेशा याद रखी जाएगी .हाल में ही ज्ञानरंजन पर उन्होंने अदभुत संस्मरण लिखा .शुरू से अंत तक पढ़ डाला फिर उठा .सब याद आ रहा है .पर वे अब खुद संस्मरण का हिस्सा बन गए गए है .जनसत्ता परिवार का एक और प्रतिभाशाली पत्रकार चला गया .हाल में ही श्रीश जी गए फिर मंगलेश जी .वे महादेवी सृजन पीठ के कार्यक्रमों में रामगढ़ आते तो मित्र मंडली के साथ बैठकी भी होती .ये फोटो मैंने तभी ली थी .अपने घर में एक पुराना लालटेन भी है जो कभी कभार जलता भी है .मंगलेश जी को एक बार दिखाया भी था .पहाड़ पर लालटेन उनकी मशहूर कविता भी तो थी .वह लालटेन आज बुझ गई .विनम्र श्रद्धांजलि .
चारु तिवारी-
बहुत विचलित करने वाली खबर आ रही है। हमारे अग्रज, प्रिय कवि, जनसरोकारों के लिये प्रतिबद्ध मंगलेश डबराल जी जिंदगी की जंग हार गये हैं। पिछले दिनों वे बीमार हुये तो लगातार हालत बिगड़ती गई। बीच में थोड़ा उम्मीद बढ़ी थी लेकिन आज ऐसी खबर मिली जिसे हम सुनना नहीं चाहते। उनका निधन हम सबके लिये आघात है। मंगलेश डबराल जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
यह 1998 की बात है। वे मुझे अचानक भरी बस में मिल गये। नोएडा से दिल्ली आते वक्त। उन दिनों शाहदरा से नोएडा के लिये एक बस लगती थी। इसे शायद एक नंबर बस कहते थे। यह हमेशा खचाखच भरी रहती थी। पांव रखने की जगह नहीं होती। शाम के समय तो बिल्कुल नहीं। मैं जहां से बस लगती थी, वहीं से बैठ गया था। दो-तीन स्टाॅप के बाद वो भी बस में चढ़े। मेरी सीट के बगल में लोगों से पिसकर खड़े हो गये। कंधे में हमेशा की तरह झोला लटकाये। मैं खड़ा हो गया। उन्हें बैठने कोे कहा। पहले वे ना-ना करते रहे। बोले, मुझे यहीं जाना है मयूर विहार तक। मैंने कहा, ठीक है सर! आप बैठिये तो। वे मेरा आग्रह टाल नहीं पाये। मैंने बताया कि मैं उन्हें जानता हूं। मुरादाबाद से। बोले कभी आना यहीं तो है आजकल मेरा आॅफिस सेक्टर- 6 में। ‘जनसत्ता’ का। मंगलेश जी (मंगलेश डबराल) को जानना कविता की एक ऐसी धारा के साथ चलना है, जिसमें आमजन की संवेदनाओं की गूंज बहुत गहरे तक होती है। उनसे बातचीत और मुलाकात का सिलसिला तो नब्बे के दशक से था, लेकिन बहुत नजदीक से मिलना दिल्ली आने के बाद ही हुआ। इसके बाद मंगलेश डबराल जी से लगातार मिलना रहा।
मंगलेश जी हिन्दी साहित्य के बहुत सम्मानित हस्ताक्षर थे। कविता तो उनकी विधा रही। उन्होंने समाज को प्रगतिशील नजरिये से देखने की चेतना पर भी बहुत काम किया । जनसंघर्षों का साथ तो दिया ही मजदूर, किसान, शोषित, दमित, महिला और दलित संदर्भों को भी हर मंच से उठाया। डबराल जी का जन्म टिहरी गढ़वाल के काफलपानी गांव में हुआ था। देहरादून में पढ़ार्इ के बाद में दिल्ली आ गये। यहीं ‘हिन्दी पेटियट’, ‘प्रतिपक्ष’ और ‘आसपास’ में काम किया। बाद में भोपाल के सांस्कृतिक केन्द्र भारत भवन से निकलने वाली पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ में सहायक संपादक के रूप में काम करने लगे। इलाहाबाद और लखनऊ से प्रकाशित ‘अमृत प्रभात’ में साहित्य संपादक रहे। 1983 में दिल्ली आकर ‘जनसत्ता’ के साहित्य संपादक के रूप में कार्य करने लगे। कुछ समय ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ में रहे। ‘सहारा समय’ के साहित्य संपादक रहे। बीच में कुछ और पत्र-पत्रिकाओं के साथ भी जुड़े। उनकी साहित्यिक यात्रा बहुत लंबी है। जारी है। उनके चार कविता संग्रह पहाड़ पर लालटेन (1981), घर का रास्ता (1988), हम जो देखते हैं (1995), आवाज भी एक जगह है (2000), कवि का अकेलापन, नये युग में शत्रु’ में प्रकाशित हुये हैं। एक यात्रा डायरी ‘एक बार आयोवा’ (1996) और एक गद्य संग्रह लेखक की रोटी (1997) में प्रकाशित हुर्इ है। उनकी कविताओं का भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी, रूसी, जर्मन, फ्रांसीसी, स्पानी, पोल्स्की, बोल्गारी आदि भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उन्होंने कर्इ विदेशी कवियों की कविताओं का अनुवाद किया । उन्हें अपने कविता संग्रह ‘पहाड़ पर लालटेन’ के लिये साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला। मुझे उनकी बहुत सारी कविताएं पसंद हैं। दो कविताएं आपके साथ साझा कर रहा हूं-
1.
पहाड़ पर चढ़ते हुए
तुम्हारी सांस फूल जाती है
आवाज भर्राने लगती है
तुम्हारा कद भी घिसने लगता है
पहाड़ तब भी है, जब तुम नहीं हो।
2.
अत्याचारी के निर्दोष होने के कर्इ प्रमाण हैं
उसके नाखून या दांत लंबे नहीं होते हैं
आंखें लाल नहीं रहती
बल्कि वह मुस्कराता रहता है
अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है
और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढ़ाता है
उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं।
अत्याचारी के घर पुरानी तलवारें और बंदूकें
सिर्फ सजावट के लिए रखी हुर्इ हैं
उसका तहखाना एक प्यारी सी जगह है
जहां श्रेष्ठ कलाकृतियों के आसपास तैरते
उम्दा संगीत के बीच
जो सुरक्षा महसूस होती है वह बाहर कहीं नहीं है
अत्याचारी इन दिनों खूब लोकप्रिय है
कर्इ मरे हुए लोग भी उसके घर आते-जाते हैं।
कार्टूनिस्ट इरफान–
विनम्र,सादगी से लबरेज़ और विचारों से बहुत बड़े कवि ,लेखक और मित्र मंगलेश जी अब हमारे बीच नहीं रहे. कुछ दिनों पहले जब उनके कोरोना से ग्रसित होने पर अस्पताल में भरती होने की खबर आई ,तब से ही बहुत डर लग रहा था . उनके लिए करीब ३ साल जनसत्ता के सम्पादकीय पेज पर रेखांकन बनाने शाम को उनके दफ्तर जाता था .उसके बाद सहारा समय के नए अखबार में मैं भी उनके लिए मैं रेखांकन करता था .उस साप्ताहिक अखबार में उनका साहित्य वाला अखबार भी होता था . एक बार जब करीब ४ महीने अखबार के सम्पादक ,जो खुद भी कभी कार्टूनिस्ट था ,के हाथ में फ्रेक्चर हो गया ..अब हमारे बिलों पर कौन दस्खत करे. सो, सम्पादक जी मस्त ,बिल जाएँ भाड में … सम्पादक के इस रवैये से मेरी भी माली हालत ४ महीने में बहत खराब हो गयी ..स्कूल की फीस,मकान का किराया और कार लोन की क़िस्त का अंदाजा मंगलेश जी को था इसलिए मेरी हालत को समझते हुए मंगलेश जी ने अपने खाते से मुझे कुछ पेमेंट किया,कि आपका १,२ महीने काम चले .’.जबकि उन्हें भी मेरी तरह ३.४ महीने तनख्भाह नहीं मिली थी. उनकी मदद करने का यह आलम था कि वह कई रास्ते चलते लोगों की भी मदद किया करते थे .मैं और वह मयूर विहार के समाचार इलाके में सालों रहे ..अक्सर सुबह मेरे योग और उनके मोर्निंग वाक का मिलन होता था पार्क में . … अब कई दिनों से नहीं मिले ..पिछले साल बेटी की शादी में आने का निमंत्रण दिया था तो वह दूरी और सर्दी के कारण नहीं आये. फोन कर ..कहा -‘माफ़ करना इरफ़ान ..पूर्वा बिटिया की शादी में नहीं आ पाऊँगा ‘…मगर यह क्या मंगलेश जी …उसके बाद तो हमें मिलना था !! अलविदा …..
शशि भूषण-
मंगलेश जी बोलते, हाथ उठाते, विरोध करते, बढ़ते- बढ़ाते और हस्तक्षेप करते रहते थे तो लगता रहता था वे हैं। हम जैसे दूर दराज के लोगों के लिए उनकी सक्रियता, कर्मठता और सृजनात्मकता ही उनका होना थी।
उनके होने से लगता था सक्रियता और सुगबुगी पैदा करते रहना चाहिए।
अब उनकी ताज़ा बातें नहीं चला करेंगी तो याद आएगा वे नहीं रहे। वे होते तो हलचल मच जाती। मंगलेश जी आगे नहीं होंगे यह जानना दुःखद है क्योंकि जाने क्यों पक्का भरोसा था वे अस्पताल से लौट आएंगे।
नमन श्रद्धांजलि !
।। हमारे शासक ।।
-मंगलेश डबराल-
हमारे शासक ग़रीबी के बारे में चुप रहते हैं
शोषण के बारे में कुछ नहीं बोलते
अन्याय को देखते ही वे मुंह फेर लेते हैं
हमारे शासक ख़ुश होते हैं जब कोई उनकी पीठ पर हाथ रखता है
वे नाराज़ हो जाते हैं जब कोई उनके पैरों में गिर पड़ता है
दुर्बल प्रजा उन्हें अच्छी नहीं लगती
हमारे शासक ग़रीबों के बारे में कहते हैं कि वे हमारी समस्या हैं
समस्या दूर करने के लिए हमारे शासक
अमीरों को गले लगाते रहते हैं
जो लखपति रातोंरात करोड़पति जो करोड़पति रातोंरात
अरबपति बन जाते हैं उनका वे और भी सम्मान करते हैं
हमारे शासक हर व़क़्त देश की आय बढ़ाना चाहते हैं
और इसके लिए वे देश की भी परवाह नहीं करते हैं
जो देश से बाहर जाकर विदेश में संपति बनाते हैं
उन्हें हमारे शासक और भी चाहते हैं
हमारे शासक सोचते हैं अगर पूरा देश ही इस योग्य हो जाये
कि संपति बनाने के लिए बाहर चला जाये
तो देश की आय काफ़ी बढ़ जाये
हमारे शासक अक्सर ताक़तवरों की अगवानी करने जाते हैं
वे अक्सर आधुनिक भगवानों के चरणों में झुके हुए रहते हैं
हमारे शासक आदिवासियों की ज़मीनों पर निगाह गड़ाये रहते हैं
उनकी मुर्गियों पर उनकी कलाकृतियों पर उनकी औरतों पर
उनकी मिट्टी के नीचे दबी हुई बहुत सी चमकती हुई चीज़ों पर
हमारे शासक अक्सर हवाई जहाज़ों पर चढ़ते और उनसे उतरते हैं
हमारे शासक पगड़ी पहने रहते हैं
अक्सर कोट कभी-कभी टाई कभी लुंगी
अक्सर कुर्ता-पाजामा कभी बरमूडा टी-शर्ट अलग-अलग मौक़ों पर
हमारे शासक अक्सर कहते हैं हमें अपने देश पर गर्व है।