Shambhunath Shukla-
बेहमई कांड और डेस्क के पत्रकार की पीड़ा… किसी भी अख़बार में संवाददाता तो सीमित होते हैं। लेकिन उनकी खबरों की सबिंग तथा एडिटिंग करने वाले कई उप संपादक होते हैं। ये उप संपादक संवाददाताओं की खबर को संपादित करते हैं और उसके वाक्य-विन्यास को ठीक करते हैं। खबर में बार-बार आई दोहरावट तथा फ़ालतू की सामग्री हटाते हैं। भाषा की त्रुटियाँ भी सही करते हैं। लेकिन वे कभी भी खबर की मूल वस्तु को नहीं बदलते। यह एक तरह का अपराध होता है। हालाँकि अब यह काम नहीं होता, क्योंकि एक उप संपादक के पास अब पेज़ बनाने का काम ज़्यादा होता है, संपादित करना कम। अब उप संपादक पत्रकार कम एक आपरेटर होता है।
लेकिन हमारे समय में ऐसा नहीं था। तब मुख्य उपसंपादक सारी खबरों को देख कर जिन्हें छपने लायक़ समझता था, भले वह संवाददाता की हो अथवा एजेंसी से आई हो, को किसी उप संपादक को देता था। वह उस कॉपी को सब व एडिट करता। इसके बाद वह कंपोज़ होती। कंपोज़ किए गए मैटर को प्रूफ़ रीडर देखता था, ताक़ि भाषागत भूलें न हों। फिर वह छपने के लिए जाती थी। एक लम्बी प्रक्रिया थी किंतु धड़ाधड़ और निरंतर चालने वाली प्रक्रिया। उस समय सिर्फ़ एजेंसियाँ अंग्रेज़ी में ही ख़बरें भेजती थीं, इसलिए हिंदी अख़बारों के उप संपादकों के पास अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद का कौशल ख़ूब होता था। अख़बार के संवाददाताओं की कॉपी एडिट करने के लिए एक लोकल या सिटी डेस्क होती थी, दूसरी डाक डेस्क। लोकल में अख़बार के प्रकाशन केंद्र से जुड़े संवाददाता ख़बरें देते। जो आमतौर पर अख़बार के पे-रोल पर होते थे। डाक में स्ट्रिंगर ख़बरें भेजते। जिन्हें अख़बार कुछ मानदेय देता, उनका मुख्य पेशा कुछ और होता था। लोकल और डाक की ख़बरें हिंदी में होतीं इसलिए इन दोनों में काम करने वाले उप संपादकों को कमतर समझा जाता था।
मैंने 1980 की पहली जनवरी को दैनिक जागरण, कानपुर में उप संपादक के तौर पर जॉयन किया था। उस समय हर नियुक्ति पर एक साल की ट्रेनिंग ज़रूरी थी। इस ट्रेनी उप सम्पादक का वेतन उप संपादक से आधा होता। जॉयन करने के पहले मैं एक फ़्री-लांसर पत्रकार था। ये वे पत्रकार होते थे जो पत्र पत्रिकाओं के लिए लेख लिखते अथवा स्टोरी भेजते, इसके बदले उन्हें ख़ासा मानदेय मिलता। उस समय हर छोटी बड़ी पत्रिका या अख़बार इन फ़्री लांसरों से फ़्री में नहीं लिखवाते थे, बल्कि मेहनताना ज़रूर देते थे। अब तो हाल यह है, कि राष्ट्रीय सहारा और नव भारत टाइम्स जैसे अख़बार भी पैसे गोल कर जाते हैं। बतौर फ़्री लांसर मैं हर घटना की रिपोर्ट ख़ुद जा कर लेता था। इसलिए यह उप संपादकी का काम मुझे रास नहीं आता। उस समय कानपुर में दैनिक जागरण के संपादकीय प्रमुख हरि नारायण निगम अक्सर बाहर रिपोर्टिंग के लिए मुझे भेज देते। भागलपुर आँख फोड़ो कांड की रिपोर्टिंग के लिए भेजा गया। रुड़की इंजीनियरिंग कॉलेज में एक हरिजन छात्र द्वारा आत्महत्या कर लेने की रिपोर्टिंग के लिए। हेमवती नंदन बहुगुणा के चर्चित गढ़वाल लोक सभा सीट के चुनाव के वक्त पर भी।
उन्हीं दिनों 14 फ़रवरी 1981 को कानपुर ज़िले के एक गाँव बेहमई में फूलन देवी ने 22 ठाकुरों को क़तार में खड़ा कर मार दिया। मैंने चूँकि मध्य उत्तरप्रदेश के ग्रामीण अपराधों के सामाजिक आधार पर ख़ूब लिखा था, इसलिए मेरी इच्छा थी मुझे भेजा जाए। किंतु मामला लोकल का था और लोकल पुलिस मुझे नहीं दी जा सकती। यह क्राइम रिपोर्टर का विशेषाधिकार था। इसलिए मुझे मना कर दिया था। लेकिन मैंने जाने की ठान ली। अख़बार से दो दिन की छुट्टी ली। दूसरे दिन दोपहर बाद बस पकड़ी तथा कानपुर शहर से भोगनीपुर पहुँच गया। कोई बैग वग़ैरह नहीं। बस जो कपड़े पहन रखे थे वही पहने रहा। भोगनीपुर से इटावा की तरफ़ जा रही एक बस ली और राजपुर पहुँच कर उतर गया। राजपुर इस राजमार्ग पर छोटा-सा क़स्बा है। उस समय वहाँ पान, बीड़ी, सिगरेट के कुछ खोखे थे और एकाध चाय की दूक़ानें। मैंने बेहमई के बारे में पता किया तो पता चला कि वह तो यहाँ से पाँच-छह कोस होगा, यानी क़रीब 20 किमी। कोई सवारी नहीं। यहीं किसी की साइकिल पता करो। कोई जानने वाला भी नहीं मिला। तभी वहाँ पीएसी की एक डॉज़ गाड़ी आकर रुकी। उसमें से एक अधिकारी और सात-आठ बंदूक़ धारी सिपाही उतरे। मैं उनके पास गया और उनके अधिकारी, जिनकी नेम प्लेट पर प्रेम सिंह लिखा था, के पास जाकर अपना परिचय दिया और उनसे मुझे भी बेहमई ले चलने का आग्रह किया। प्रेम सिंह जी पीएसी के असिस्टेंट कमांडेंट थे। उनके एक सिपाही ने आकर बताया कि साहब एक मील बाद बीहड़ हैं, गाड़ी जा नहीं पाएगी। उन्होंने मेरी तरफ़ देखा और कहा, शुक्ला जी अब रात होने वाली है इसलिए अब कल चलेंगे। उन्होंने मुझे अपने साथ सिकंदरा की पीएसी छावनी में रात बिताने को कहा।
मेरे लिए तो यह सौग़ात थी। मैं भी उनके साथ उसी गाड़ी में सिकंदरा आ गया। सिकंदरा इसी राजमार्ग पर राजपुर से 10 किमी आगे स्थित क़स्बा है। इस राजमार्ग को पहले मुग़ल रोड बोलते थे। यह दिल्ली से मथुरा, आगरा, इटावा होते हुए कानपुर के सिकंदरा, भोगनीपुर, मूसा नगर, घाटमपुर से निकल कर जहानाबाद और बिंदकी हो कर जीटी रोड पर जाकर मिलता है। जीटी रोड दिल्ली, ग़ाज़ियाबाद, बुलंदशहर, अलीगढ़, एटा, बेवर, छिबरामऊ, गुरसहाय गंज, कन्नौज, बिल्हौर, कानपुर से गुजर कर बिंदकी रोड, फ़तेह पुर, इलाहाबाद होते हुए कलकत्ता जाता है। अब जीटी रोड तो बेकार हो चुका है लेकिन मुग़ल रोड को सिकंदरा से एक लिंक रोड के ज़रिए कानपुर से जोड़ दिया गया है। कानपुर पार होते ही यह सड़क और जीटी रोड एक हो जाते हैं। इसे अब एनएच-2 कहा जाता है। हम सिकंदरा पहुँचे तो देखा कि पीएसी की छावनी कोई आर्मी की तरह भव्य नहीं बल्कि फटे-पुराने तम्बुओं और तिरपाल से बनाई गई है। फ़र्श पर पयार, (पराली) बिछा है। यही पयार हमारा बिस्तर था। वहाँ एक कंपनी कमांडर था। जिसने हमारी अगवानी की। सिपाहियों ने चूल्हा जलाया। हमारे लिए हाथ से बनी रोटी, भाँटा-आलू की तरकारी और चटनी बनाई। हम लोग सो गए। सुबह उठे तो निवृत होने के लिए लोटे पकड़ा दिए गए और खेतों की तरफ़ इशारा कर दिया गया। लौटे तब तक आलू भरे पराठे तैयार थे। चटनी के साथ खाए गए।
सिकंदरा अब कानपुर देहात में है। काफ़ी बड़ा क़स्बा है। 1857 के पहले यह एक तहसील थी। लेकिन अंग्रेजों ने सत्तावनी क्रांति के दमन के बाद 1860 में इसका तहसील का दर्जा छीन लिया था। कुछ वर्ष पूर्व इसे फिर तहसील बनाया गया है। सिकंदरा में जहां हमारी छावनी (रावटी) लगी थी, वहाँ पर एक ध्वस्त गढ़ी थी। इतिहासकार जानते हैं कि बादशाह शाह आलम के समय गुसाईं लोग बहुत शक्तिशाली हो गए थे। राजेंद्र गिरि और अनूप गिरि ने बुंदेलखंड में तथा उससे यमुना के दोनों तरफ़ उनकी छावनी थीं। यह गढ़ी भी उन्हीं गुसाइयों की थी। एक जमाने 50 हज़ार के क़रीब गुसाईं फ़ौज यहाँ रहती थी। इसी गढ़ी के सूने इलाक़े में पीएसी ने अपनी रावटी लगाई हुई थी। सुबह नौ बजे हम वहाँ से तैयार होकर उसी डॉज़ गाड़ी से निकले और आधा घंटे में राजपुर आ गए। यहाँ से डॉज़ गाड़ी बस मान पुर गाँव तक गई। बताया गया कि डकैत लाला राम और श्रीराम का गाँव है यह। ठाकुरों की आबादी यहाँ काफ़ी है।
वहाँ से हम लोग पैदल चले। बीहड़ घना होता जा रहा था। सिपाही मुस्तैदी से चल रहे थे, ताकि कोई हमला होने पर पोज़ीशन ले सकें। रास्ते में प्रेम सिंह जी ने बताया, कि उन्होंने पुलिस में नौकरी का बड़ा हिस्सा बीहड़ में गुज़ारा है। उनकी उम्र काफ़ी थी। उन्होंने एक बात यह भी बताई कि बीहड़ में पूजे जाने वाले दस्यु सम्राट मान सिंह को गोली उन्होंने ही मारी थी। उनके अनुसार मान सिंह रिश्ते में उनके बड़े भाई थे। मुझे फ़िल्म ‘गंगा-जमना’ का वह सीन याद आ गया, जब दस्यु बने गंगा (अभिनेता दिलीप कुमार) को उनका छोटा भाई जमना, जो कि पुलिस इंस्पेक्टर था, गोली मारता है। मज़े की बात कि उस फ़िल्म में जमना का रोल दिलीप के ही छोटे भाई ने निभाया था। इसलिए वह एकदम विश्वसनीय लगता है। हम लोग पैदल चलते हुए तीन बजे के क़रीब बेहमई पहुँचे। गाँव के बाहर ही एकदम आवाज़ आई- हाल्ट! यह सुनते ही मैं पलटा, लेकिन प्रेम सिंह ने कहा, यहीं खड़े रहिए, वर्ना यह जवान गोली मार देगा। कम्पनी कमांडर ने कहा- एसी। और उस जवान ने सेल्यूट ठोका। पूरा गाँव घूमे। कुआँ भी देखा। लगभग सभी लोगों के सिर घुटे हुए थे। बहुत कुछ पता किया। सफ़ेद धोती में लिपटीं युवा स्त्रियों की दहाड़ें सुनीं। वह सब कुछ सुना और जाना जो न तो शेखर कपूर की “बैंडिट क्वीन” में मिलता है न फूलन देवी की जीवनी लिखने वाली फ़्रेंच राइटर की किताब में।
प्रेम सिंह जी ने कहा, कि हम रात को यहाँ रुक नहीं सकते इसलिए वापस सिकंदरा चलना होगा। बीस किमी पैदल चलने के बाद और 25-30 किमी पैदल चलना मुश्किल लग रहा था। पर क्या करते। वापस चल दिए। अब हमें राजपुर नहीं सिकंदरा जाना था, जहां पहुँचने का रास्ता लंबा तथा कम बीहड़ वाला था। किंतु पीएसी के रूट मैप में यही था। साँझ घिर आई थी। हम चलने लगे। शुक्र था कि चाँदनी रात थी। मैंने सोचा हुआ था कि सिकंदरा से औरय्या-कानपुर के बीच चलने वाली दीक्षित बस सर्विस की आख़िरी बस पकड़ कर आज ही कानपुर पहुँच जाऊँगा। रात क़रीब पौने 11 बजे हम सिकंदरा पहुँचे। सड़क पर सन्नाटा पसरा था। आधा घंटा इंतज़ार करने के बाद जब बस नहीं आई तो रात सिकंदरा में गुज़ारने की सोची। पर अब जाऊँ कहाँ? पीएसी का साथ तो छोड़ दिया था। वहाँ एक व्यक्ति मिला जिसने कहा कि सारे अख़बार वाले प्रधान के घर डेरा डाले हैं। मैंने भी वहीं का रुख़ किया। कोई अवस्थी जी प्रधान थे। उनका मकान कच्चा था, लेकिन बहुत बड़ा था। तमाम पत्रकार वहाँ बरामदे में सो रहे थे। इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ़ इंडिया और हिंदुस्तान टाइम्स के भी। प्रधान जी ने मुझे भी एक खटिया और बिस्तर मय कम्बल के दिया। रात वहीं गुज़ारी।
सुबह जल्दी उठा। तैयार होकर कानपुर जाने वाली बस पकड़ी। फ़ज़ल गंज उतर कर रिक्शा किया और कहा, साकेत नगर। बस रिक्शे में ही सो गया। साकेत नगर में मकान के सामने उतरा और सीधे खटिया गिरा कर सो गया। वह पूरा दिन और रात सोता रहा। अगले रोज़ सोचा, इस रिपोर्ताज को कहाँ भेजा जाए! बम्बई से निकलने वाले साप्ताहिक करंट के संपादक शायद यूसुफ़ साहब या अय्यूब साहब (मैं नाम विस्मृत कर रहा हूँ) थे। मैं पहले डाकघर गया। बम्बई ट्रंक काल कर उनसे बात की। फिर आकर स्टोरी लिखी और सीधे आरएमएस में जाकर पोस्ट कर दी। अगले हफ़्ते वह प्रकाशित हो गई। मुझे मेहनताना 500 रुपए मिला था।
कई अखबारों के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला की एफबी वॉल से.