श्याम मीरा सिंह-
मुझे मोदी का रोना कभी भी झूठा नहीं लगा. न मैं मानता वे कोई एक्टिंग करते हैं, असल बताऊँ तो जब भी मोदी को भाषण देते देते रोते देखता हूं तो उनसे सहानुभूति होती है, उनके लिए दुःख होता है कि एक बूढ़ा आदमी जो अंदर से निरीह बच्चे जैसा है मरते दम तक एक नफ़रती इंसान बना रहेगा.
किसी भी विचारधारा, धर्म, ईश्वर के भक्तों में एक बात कॉमन होती है, जितना अधिक वे अपने विचार को लेकर अंधे होते हैं उतने ही समानुपात में भावुक भी. अगर कोई भावुक नहीं है तो वह कभी सेना में भर्ती नहीं हो सकता, कभी नक्सली नहीं बन सकता, कभी हमास का विद्रोही नहीं बन सकता कभी इज़राइल का जवान नहीं बन सकता, कभी कश्मीर में बंदूक़ नहीं उठा सकता. कभी अपने नेता के लिए दूसरों को गाली नहीं दे सकता. पक्ष और विपक्ष में पहली पंक्ति के काम एक भावुक आदमी ही कर सकता है. भावुकता आदमी की आत्मा की नग्नता है, जो बार बार अपना वातावरण पाते ही अपने कपड़े उतार देती है.
भक्त किसी भी धर्म का हो, कट्टरपंथी किसी भी विचार का मानने वाला हो, वो हज़ारों हत्याएँ कर सकता है, वो निर्ममता से से लाशों पर राजनीति कर सकता है, मगर उसकी हृदय की किसी कोशिका में भावुकता की वह नली होगी, जो हत्या करने के बाद भी उसे रुला देगी. कट्टरता अपनी क़िस्म की भावुकता है.
जितने भी धर्मावलंबियों से मैंने बहस की है, बहस के अगले ही पल वे तिलमिला जाते हैं, ऐसा नहीं है कि वे सहन नहीं करना चाहते, मुश्किल ये है कि सहन करना उनके बस में ही नहीं. इनकी क्षमताओं में नहीं ही नहीं. जितने भी हत्यारे, धर्मभीरु, किसी “वाद” वाले होते हैं वे सब अंदर से किसी बछड़े से मासूम हैं, उन्हें पुचकारने और बिठाकर माथे पर हाथ फेरने की ज़रूरत है, वे तुरंत अपने पैरों को सकोड़ आप से चिपटकर बालक हो जाना चाहेंगे. अगर उन्हें बचपन में या जवानी के सीखने के वक्त में कोई ग़लत विचार न पढ़ाया-समझाया गया होता तो वे ज़रूर अच्छे इंसान बनते.
मोदी को जब भी किसी मंच पर रोते डेकता हूँ तो उन पर हंसी या ग़ुस्सा नहीं आता, बल्कि प्यार या सहानुभूति ही उभरती है उनके लिए, ये सोचकर कि काश इस आदमी को समय से अच्छे दोस्तों ने टोका होता, बहस की होती, सही-ग़लत का फ़रक समझाया होता, घर आकर मोदी सोचते, अपने आप को ग़लत पाते और एक अच्छा इंसान बनते. मगर मोदी की उमर ने एक लंबी यात्रा तय कर ली है. जहां से पीछे लौटने की गुंजाइश कम है, उसके लिए अत्यधिक साहस की आवश्यकता है कि कोई उम्र के इस पड़ाव में अपने आप में संसोधन करे, अपने विचार में कट्टापिट्टी करे और अच्छा इंसान बने.
मोदी की उमर और पद उस संसोधन की जगह कम देता है, मगर बहुत से उदाहरण हैं कि उँगलियों की माला बनाकर जंगल-जंगल घूमने वाला अंगुलिमाल भी अंत में एक महात्मा बन जाता है. जब भी मोदी को रोते देखा, बस यही ख़्याल आया इन्हें विश्वविद्यालयों में पहुँचना चाहिए था, होस्टलों में पढ़ना चाहिए था. दोस्तों से लंबी यारियाँ करनी थीं, सड़कों पर किसी प्रेमिका के साथ निकलना था, दफ़्तरों में मरते शहरों को देखना था, मगर ये एक संगठन में “राष्ट्रनिर्माण” के झाँसे में अपना बचपन और जवानी खर्च बैठे, जहां से लौटने का रास्ता न था और उसी संगठन में खप गए.
किसी दोस्त ने उन्हें नहीं टोका, किसी अध्यापक ने सलाह नहीं दी कि घृणा और नफ़रत की राजनीति छोड़ दो, अगर रोकने-टोकने का ये काम किया गया होता तो ज़रा ज़रा सी बातों पर गला भर लाने वाला निर्दयी आदमी, एक देश का प्रधानमंत्री होता या न होता मगर एक अच्छा इंसान ज़रूर होता.