अनिल शुक्ल-
महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर समाज के बुनियादी ढांचे में वैकल्पिक बदलाव के पक्षधर थे। शिक्षा के संसार में भी उनकी दृष्टि शिक्षा के ऐसे वैकल्पिक सांचे को गढ़ने की थी जो अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के बिलकुल बरख़िलाफ़ हो। उनका बनाया शिक्षा मंदिर ‘शांतिनिकेतन’ इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। चिकित्सा के क्षेत्र में भी वह ऐलोपैथी के विकल्प की बात सोचते थे।महात्मा गाँधी के साथ नेचरोपैथी को लेकर उनके लंबे विचार विमर्श चले। उन्होंने होम्योपैथी का भी विषाद अध्ययन किया था। उनका आवास यद्यपि उन दिनों ‘शांतिनिकेतन’ हो गया था लेकिन बापू से चर्चा के बाद उन्होंने कोलकाता के 10, सुदूर स्ट्रीट स्थित अपने पैतृक आवास ‘जोरासेन्को ठाकुरबाड़ी’ में नेचरोपैथी और होम्योपैथी के दो अलग-अलग क्लिनिक शुरू करवाए। ‘शांतिनिकेतन’ में वैकल्पिक चिकित्सा शिक्षाओं का एक बड़ा केंद्र बनाने की उनकी हार्दिक इच्छा थी। अपने जीते जी यद्यपि वह इसकी स्थापना नहीं कर सके।
यह हालांकि ‘रनिंग कमेंट्री’ के संदर्भ से थोड़ा अलग हटकर है, तो भी कह देने में कोई हर्ज़ नहीं। शरतचंद चट्टोपध्याय के अलावा जिन एक और महान साहित्यकार और उनकी विश्वप्रसिद्ध रचना का भागलपुर से नाता है, वह हैं रवीन्द्रनाथ टैगोर। आपको जानकार यह आश्चर्य होगा कि कोलकाता वासी गुरुदेव ने अपनी कालजयी रचना ‘गीतांजलि’ की कुछ कविताएं भागलपुर में बैठकर लिखी थी। (‘गीतांजलि’ पर ही रवीन्द्रनाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार मिला था, इसका ज़िक्र करना ज़रूरी नहीं।) ‘टिलहा कोठी’ 1773 में बने ज़िला भागलपुर के पहले कलेक्टर का आवास थी। 1910 की फ़रवरी में ‘बंग्य साहित्य परिषद’ का उद्घाटन करने टैगोर भागलपुर आये थे। भागलपुर तब बंगाल सूबे का भाग हुआ करता था। वह ‘टिलहा कोठी’ में रुके थे। गंगा तट से सटे ऊँचे टीले पर बसी यह शानदार और कलात्मक कोठी एक शताब्दी से ज़्यादा समय से वीवीआईपी अतिथितियों का आवास हुआ करती थी। यहीं रहकर गुरुदेव ने ‘गीतांजलि’ की कुछ कवितायेँ लिखी थीं। 1779 में बनी यह कोठी आज ‘तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय’ परिसर का अंश है और इसका मौजूदा नाम ‘रवींद्र भवन’ है।
बहरहाल…….. । सन 2012 से 2017 तक के किडनी रोग से उबरने के बाद के मेरे पांच साल बड़े सुखमय थे। इस बीच के सालों में शरीर को लेकर भांति-भांति के प्रयोग चलते रहे। 2015 में मुझे कोल्ड हो गया। चेस्ट में ‘एक्यूट’ इनफ़ेक्शन और बुखार। डॉ० जेता सिंह का आदेश हुआ कि उपवास पर चले जाएँ। उपवास की बात गाँधी जी भी बार-बार करते हैं। शरीर की तमाम व्याधियों का प्राकृतिक इलाज गाँधी उपवास में तलाशते हैं और हर बार क़ामयाब होते हैं। उपवास के पीछे का विज्ञान है कि जब शरीर के अंगों और ख़ून की तमाम शक्ति खाना पचाने आदि में व्यय नहीं होगी तो वह पूरी सामर्थ्य शरीर की मरम्मत और रोगों से लड़ने में लगाएगा और विजयी होगा। कोई बैक्टीरिया या वायरस शरीर की जानदार प्रतिरोधी क्षमता के हमलों का सामना नहीं कर सकता। पराजित होना उसके लिए अवश्यम्भावी है।
डॉ० जेता सिंह ने पहले 5 दिन के उपवास को कहा। पांचवे दिन बुखार उतर गया था और छाती का इंफ़ेक्शन भी दूर हो गया। डॉक्टर ने उपवास को 2 दिन और बढ़ाने को कहा। उपवास का यह मेरा पहला अनुभव था। शुरू में सोच रहा था कि इतने दिन भूखा रह पाना कैसे संभव हो सकेगा? चौथे दिन से लेकिन सब कुछ सहज होता चला गया। 24 घंटे में 5 बार 3 चम्मच शहद के साथ एक-एक गिलास नीबू-पानी लेने का निर्देश था।
किडनी की मरम्मत के एंगिल से उपवास के अभ्यास प्रायः करवाए जाते रहे। अभ्यासों की इस श्रंखला में मेरा सर्वाधिक लम्बा अभ्यास 52 दिन का था। आप लोगों को, जिन्हें उपवास का अभ्यास नहीं उन्हें यह बड़ा कौतूहल और आश्चर्यजनक लगेगा लेकिन इसमें ऐसा है कुछ भी नहीं।
शरीर अपनी ऊर्जा शहद से ग्रहण करता । शहद ही वास्तव में अकेला ऐसा तत्व है जो सम्पूर्ण भोजन है, बशर्ते शुद्ध हो। प्राचीन वैदिक और पौराणिक काल के ऋषि और मुनिगण शहद के बूते ही दीर्घायु प्राप्त करते थे। जिन दिनों 52 दिनी उपवास चल रहा था, उन्हीं दिनों उप्र० संस्कृति विभाग के लखनऊ ‘लोक नाट्य समारोह’ में प्रस्तुति के लिए हमारी ‘भगत’ की तालीम (रिहर्सल) चल रही थी। दोनों अभ्यास बखूबी समानांतर चलते रहे। लंबे उपवास में शरीर के सभी अंग अतिरिक्त चैतन्यावस्था में आ जाते हैं। उदाहरण के तौर पर सूंघने की शक्ति इस क़दर बढ़ जाती है कि अपने घर में बैठकर ही आप पड़ोसी की किचन में बनने वाले मीनू की रिपोर्ट का विस्तार से सच्चा वर्णन कर सकते हैं।
अपने सुन रखा होगा कि आंदोलनों के दौरान किये जाने वाले लंबे उपवासों को हमेशा जूस पिलाकर ही तुड़वाया जाता है। लंबे उपवासों को हमेशा जूस की मदद से ही तोड़ा जाना चाहिए। जूस सॉलिड भोजन तक पहुँचने के बीच की कड़ी है जिसमें 4 से 7 दिन लगते हैं। वैसे भरपेट जूस प्राकृतिक चिकित्सा का अलग से भी एक औज़ार है। अलग-अलग रोगों मे भांति-भांति का जूस पिलाकर इलाज किया जाता है।
प्राचीन युगों में स्वास्थ्य की दृष्टि से ही अलग-अलग समाज और देशों में धर्म की चौखट के भीतर उपवास, रोज़े और फ़ास्ट जैसे अभ्यासों को दाखिल करा दिया गया था। वैदिक धर्म के हर महीने में कई-कई तिथियों पर उपवास के आयोजनों के प्रावधान के पीछे की वजह यही है। यह मासिक स्वास्थ्य का एक बहुत बड़ा विज्ञान है। इसी तरह इस्लाम में 30 दिन के रोज़े तो जैसे सालाना स्वास्थ्य की क्रान्तिकारी और अचूक औषधि हैं। धार्मिक गुरू यदि भक्तगणों को धर्म के पीछे के इस विज्ञान की शिक्षा भी दें तो लोग उपवास को देसी घी के हलवे और दूध-मावा की मिठाइयों से तोड़ने की जगह फल- फ्रूट से तोड़ें। रोज़ेदारों के लिए भी रमज़ान के दिनों की रातों में भारी भरकम चिकनाई में मिर्च-मसालों में बने नॉन वेज खान-पान का सेवन डॉक्टर के शफ़ाख़ाने की दहलीज का जबरिया न्यौता होता है।
सर्जरी से ठीक होने वाले कुछ रोगों को ऐलोपैथी के ज़िम्मे छोड़कर शेष सभी छोटे-बड़े रोगों को नेचरोपैथी से ठीक किया जा सकता है। क्रॉनिक किडनी, हार्ट सम्बन्धी अधिकांश रोग, लिवर सिरोसिस, सिस्ट और ट्यूमर की प्रवत्ति, डायबिटीज़ और थायरॉइड जैसे अनेक असाध्य रोगों का इलाज सिर्फ़ नेचरोपैथी के पास है।
पानी नेचरोपैथी की चिकित्सा टेक्नीक का पूर्वज होने के साथ-साथ उसका एक अत्यंत महत्वपूर्ण चिकित्सा उपकरण भी है। अपने इसी मेडिकल टूल के जरिये वे दुनिया की तमाम बीमारियों पर फ़तह हासिल करते हैं। नेचरोपैथी में पानी से जुड़े अनेक बाथ (स्नान) करवाए जाते हैं। अलग-अलग तापमान वाले पानी की चिकित्सा अलग-अलग रोगों की तासीर साबित होती है। पानी की भाप के दबाव के साथ शरीर के संयोजन से भी नेचरोपैथी भांति-भांति की चिकित्सा पद्धतियों का इस्तेमाल करती है।
शुरूआती लम्बे दौर में मुझे 2 अलग-अलग तापमान वाले पानी के बाथटब में निर्धारित समय के लिए कमर से बैठाया जाता था। एक बाथटब में रूम टेम्प्रेचर का ठंडा पानी और दूसरे बाथटब में निर्धारित डिग्री सेल्सियस का गर्म पानी होता था। अलग-अलग रोगों में यह टेम्प्रेचर और बैठने की टाइमिंग अलग-अलग होती है। ‘कटि स्नान’ जाने वाले इस ठंडे और गर्म पानी की टक्कर से किडनी का वॉल्यूम घटता-बढ़ता है। यह प्रक्रिया न सिर्फ़ उसके जीवित बचे नेफ्रॉन्स को (फ़िल्टर करने वाली कोशिकाएं) सक्रिय और जीवंत बनाये रखती है अपितु निष्क्रिय हो चुके नेफ्रॉन्स को भी पुनर्जीवित करती है।
एक विशेष ठन्डे तापमान वाले टब में ‘स्पाइनल कॉड’ (रीढ़) को डुबा कर उसके भीतर के ‘मेरो’ (मज्जा) के ‘स्टेम’ को सक्रिय किया जाता है। रीढ़ के भीतर की मज्जा ही ख़ून का निर्माण करती है। ‘वरुण चिकित्सा’ कहलायी जाने वाली एक अन्य चिकित्सा नेचरोपैथी का एक महत्वपूर्ण मेडिकल टूल है। इसमें एक विशेष चैंबर में भाप के जरिये ‘प्लाज़्मा’ निर्माण होता है जो रीढ़ के भीतर ‘स्टेम’ का निर्माण करता है। किडनी, सिरोसिस, ट्यूमर और सिस्ट आदि बीमारियों के इलाज में इसे इस्तेमाल किया जा रहा है।
इसी तरह एक अन्य चैंबर बॉक्स में मरीज़ को बैठा कर उसे भाप से नहलाया जाता है। यह ‘स्टीम बाथ’ शरीर से बेतरह उस कचरा युक्त पसीने को बहाती है जो हाल के महीनों में बहना बंद हो चुका होता है। यह एक प्रकार की ख़ून के कचरा की सफ़ाई है। पसीने के जरिये भीतर के विषाक्त अव्यव बाहर आते हैं। ‘स्किन’ को इसीलिये ‘सेकेण्ड किडनी’ भी कहा जाता है।
साफ़ सुथरी मिट्टी दुनिया के कचरे को सोखने में सिद्धस्त होती है। विशेष गहराई से प्राप्त साफ सुथरी मिटटी लेकर इसके इसी गुण का प्राकृतिक चिकित्सा में उपयोग किया जाता है। किडनी और दूसरे असाध्य रोगों में शरीर को मिट्टी के लेप से ढँक दिया जाता है। यह मिट्टी भीतर के विषाक्त पदार्थों को सोखती है। पेट और लिवर सिरोसिस आदि के रोगों में भी ‘एब्डॉमिन’ (उदर) को मिटटी से ढँक कर इलाज किया जाता है।
अलग-अलग रोगों के लिए ‘कंट्रोल डाइट’ (आहार) का अलग-अलग निर्धारण भी नेचरोपैथी का अत्यंत महत्वपूर्ण ‘मेडिकल टूल’ है। इस आहार में मुख्य ज़ोर फलों और कच्ची सब्ज़ियों के सेवन पर होता है। आज के दौर में भारत जैसे देशों में जहाँ बाज़ारवाद के चलते ‘पेस्टीसाइड’ और रासायनिक खादों के भयानक इस्तेमाल ने फल और सब्ज़ियों को बेतरह ज़हरीला बना डाला है। नेचरोपैथियों ने खाने का ‘मीठा सोडा’ जैसे क्षारीय पदार्थ की मदद से इनके विष को काफी हद तक कमज़ोर कर लेने के रास्ते निकाल लिए हैं। इसके अलावा नेचरोपैथी में फल और सब्ज़ियों की उन्हीं श्रेणी के इस्तेमाल पर ज़ोर होता है जो ‘सीज़नल’ तो हों ही, साथ ही स्थनीय खेतों में जिनका उत्पादन होता हो। दूरदराज़ से आयातित और ग़ैर मौसमी फल व सब्ज़ियों का नेचरोपैथी की आहार तालिका में पूर्णतः निषेध है। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के ‘डाइट प्लान’ में शाकाहारी पका हुआ भोजन भी नाक भौं सिकोड़ कर ‘एलाउ’ किया जाता है, ‘नॉन वेज’ पर तो सख़्त प्रतिबन्ध है।
शरीर के दैनंदिन कार्यव्यापार को चलाने के लिए ऊर्जा की ज़रुरत होती है। प्राप्त भोजन से हमारा पाचन तंत्र सामग्री इकठ्ठा करके उसे ऊर्जा में बदलता है। इस प्रक्रिया में बचा हुआ कचरा ज़हर सरीका हो जाता है, शरीर से जिसका बाहर निकाल फेंका जाना बेहद ज़रूरी होता है। पसीने और मूत्र के अलावा जिस अन्य पदार्थ के रूप में यह कचरा बाहर निकलता है वह मनुष्य का मल (लेट्रिन) है और यह मल कचरे की सबसे बड़ी तादाद है। कचरे के शरीर में अटक जाने को ही नेचरोपैथी सभी रोगों की जड़ मानता है।
यह सुनकर आपको ताज्जुब होगा कि कचरे की सफाई का न होना ही कैंसर, ट्यूमर, किडनी और लिवर सिरोसिस जैसे भयानक रोगों का कारण बनता है। कचरे के बाहर निकालने पर नेचरोपैथी का इसीलिये सर्वाधिक ज़ोर होता है। चूंकि लेट्रिन सबसे बड़ा ‘कचरा स्टॉक’ है इसलिए सबसे ज़्यादा ज़ोर पेट की सफाई पर होता है। पेट की सफाई के लिए जिस टूल का इस्तेमाल किया जाता है वह है एनीमा पॉट। गुनगुने या सदा पानी भरे बर्तन से जुड़े ट्यूब से मल द्वार में पानी को भीतर दाखिल कराया जाता है और उस तरह पेट की सफाई की जाती है।
(क्रमशःजारी……… ।)
आगरा के मूल निवासी अनिल शुक्ल हिंदी मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार, हिंदी जगत के जाने माने रंगकर्मी और चर्चित सोशल एक्टिविस्ट हैं.