लक्ष्मी प्रसाद पंत-
दैनिक भास्कर की बड़ी पहल..वैवाहिक विज्ञापनों में बेटियों के रंग से जुड़े विवरण अब नहीं छापेगा भास्कर….
संजय सिन्हा-
दैनिक भास्कर अखबार ने तय कर लिया है कि अब वो वैवाहिक विज्ञापन में लड़कियों के रंग की चर्चा नहीं करेगा। मतलब अब उस अखबार के वैवाहिक विज्ञापन में लड़कियों के बारे में ये नहीं लिखा होगा कि रंग गोरा है, सांवला है, गेहुंआ है। लड़की का रंग काला है ये तो कोई लिखता भी नहीं इसलिए गेहुंआ तक पर बात खत्म।
कई लोगों ने इस बात की सराहना की है कि एक अखबार ने शानदार पहल की है। मैं दुविधा में हूं। क्या सचमुच अब लोग लड़कियों के रंग देखना बंद कर देंगे? वो मान लेंगे कि लड़की सिर्फ लड़की होती है, गोरी, सांवली या काली नहीं? सिर्फ विज्ञापन में नहीं छापेंगे, या सचमुच में लड़की देखने जाएंगे तो मेकअप के भीतर लोग झांकेंगे भी नहीं? क्या सिर्फ रंग को लेकर भेद या फिर लड़की लंबी है, इकहरा बदन है, फलां जाति की है ये सब भी लिखना छोड़ देंगे?
मुझे तो लगता है कि लड़कियों के मां-बाप पर अब खर्चा बढ़ जाएगा। लड़के विज्ञापन पढ़ कर शादी के लिए लड़की देखने जाएंगे। उन्हें जाति, लंबाई, शिक्षा, गृह कार्य की दक्षता, परिवार का स्तर आदि तो पता विज्ञापन से चल जाएगा पर रंग का पता नहीं चलेगा। फिर क्या करेंगे? दुबारा लड़की देखने जाएंगे। अनुरोध आएगा कि लड़की तो ठीक है, मुन्ना एक बार बिना मेकअप के भी लड़की देखना चाहता है। फिर कौन-सा अखबार सामने आएगा कि रंग क्यों देखा?
असल में मसला रंग है ही नहीं। मसला है लड़कियों के प्रति हमारा नज़रिया। मैं इस विषय पर जितना लिखूंगा, कम होगा। मैंने ऐसे-ऐसे लड़कों को सुंदर लड़की से शादी करने का ख्याल पालते देखा है जिन लड़कों की कायदे से शादी ही नहीं होनी चाहिए थी। रंग-रूप तो बाद की बात है, जो शादी के योग्य ही नहीं उन्हें लड़की चाहिए ऐश्वर्या राय, सुष्मिता सेन, आलिया भट्ट।
आप सोचिए कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं। असल समस्या रंग भेद है ही नहीं। समस्या है लिंग भेद। लोग वाहवाही पाने के लिए मूल पर जाते ही नहीं। अखबार विज्ञापन में ये नहीं छापेगा कि लड़की का रंग कैसा है इससे वास्तव में लोगों की गोरे रंग की चाहत खत्म हो जाएगी? मैंने कोयला लड़कों को अपने लिए मिल्की वाइट लड़की की मांग करते देखा है। शुरू में तो मेरी समझ में नहीं आया था कि ये मिल्की वाइट क्या होता है? फिर पता चला कि दूध-सी सफेदी। सफेदी के भी कई रंग होते हैं।
अखबार ने लिखा है कि बेटियां बोझ, जिम्मेदारी या लाचारी नहीं बल्कि हर परिवार के लिए गौरव हैं। अखबार ने तय किया है कि वैवाहिक विज्ञापनों में बेटियों के रंग से संबंधित विवरण यानी कलर कॉम्लेक्स आज से प्रकाशित नहीं किए जाएंगे। एक प्रगतिशील समाज के लिए हम सबको ऐसे रंगभेद के खिलाफ खड़ा होना होगा।
हम हैरान हैं इस खबर को पढ़ कर। रंग भेद? क्या ये वही रंग भेद है जिसकी चर्चा गांधी जी, मार्टिन लूथर किंग ने की थी? क्या रंग की चर्चा ही बेटियों को बोझ, जिम्मेदारी या लाचार बनाता है?
सोच रंग में नहीं ढंग में बदलने की ज़रूरत है। आप रंग नहीं लिखेंगे इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लोगों की नज़र रंग भेद नहीं करेगी, इससे फर्क पड़ेगा।
मेरा मानना है कि लड़कियों के प्रति लोगों की सोच तब बदल सकती है, जब घर में बच्चों को मनुष्य बनने की ट्रेनिंग मिलने लगेगी। जब बच्चों को रिश्तों का मोल समझने का पाठ पढ़ाया जाने लगेगा। जब उन्हें ज़िंदगी के मायने बताए जाने लगेंगे। जब नैतिक शिक्षा आर्थिक शिक्षा से ऊपर हो जाएगी। नज़र बदलने से कुछ नही होगा, नज़रिया बदलेगा तो बात बनेगी। सोच का ढंग बदलना चाहिए, रंग नहीं।