अशोक पांडे-
भारतीय चित्रकला का तिलिस्म देखना हो तो इस एक चित्र को गौर से देखा जाना चाहिए. बार-बार देखा जाना चाहिए.
बिल्कुल केंद्र में रोशनियों से सुसज्जित दुर्गा की विराट मूर्ति है, जिसकी अलौकिक जगर-मगर को उसके आसपास खड़े लोगों के हाथों में थमीं रोशनी की मशालें और अधिक उभार रही हैं. केवल छायाओं में बनाया गया जनसमूह है जिसके सलेटी-भूरे-काले को रेखांकित करने की नीयत से तीन या चार जगहों पर सुर्ख लाल रंग का प्रयोग किया गया है.
पेंटिंग की अग्रभूमि में एक घर के दुमंजिले के छज्जे पर लाल और फीरोजी धोतियाँ पहने दो भद्र महिलाएं दर्शकों के रूप में पेंटिंग में अमर बन गयी हैं ठीक जिस तरह जॉन कीट्स की उस अमर कविता में पुराने यूनानी कलश पर उकेरा गया नौजवान गायक-चरवाहा अमर बताया गया है.
पेंटिंग में बहुत सारा गहरे तांबई-सलेटी-भूरे की रंगत वाले अन्धेरे और नीम-अन्धेरे का उदास फैलाव है अलबत्ता केंद्र से निकल रही चौंधिया देने वाली अतिजादुई रोशनी जहां-जहां तक पहुँच रही है वहां-वहां उसे अलग-अलग और बेहद ड्रामाई शेड्स देने में एक बड़े उस्ताद की निगाह और निपुणता बरती गयी है.
पेंटिंग में जिसे मूवमेन्ट कहा जाता है, वह बहुत थोड़ी सी जगह पर महदूद है लेकिन रेखाओं की गतिशीलता इस कदर अकल्पनीय है कि जहाँ कुछ भी घटता नजर नहीं आ रहा वहां भी उसकी धमक को सुना और महसूस किया जा सकता है. पेंटिंग अपने विजुअल के साथ अपना ऑडियो भी रच देती है. यह कमाल की बात है.
गगनेन्द्रनाथ टैगोर (1867–1938) की इस क्लासिक पेंटिंग का शीर्षक है – प्रतिमा विसर्जन. साल 1915 से 1920 के बीच बनी यह पेंटिंग कई मायनों में बंगाल की दुर्गा-पूजा संस्कृति की सबसे प्रतिनिधि कलाकृति मानी जा सकती है. एक चित्रकार के रूप में गगनेन्द्रनाथ जीवन भर अपने बड़े भाई और महान चित्रकार अवनीन्द्रनाथ टैगोर की छाया में रहे लेकिन उनकी यह अनूठी और बेहद प्रभावशाली कलाकृति उन्हें भारतीय कला के इतिहास में अमर बनाने के लिए हमेशा काफी रहेगी. यह भी बता देना अप्रासंगिक न होगा कि ठाकुर रवीन्द्रनाथ के भतीजे गगनेन्द्रनाथ सिने-अभिनेत्री शर्मिला टैगोर के परदादा हुआ करते थे.
इस चित्र के बारे में मुझे सबसे पहले मेरी अतीव प्रतिभावान कवि-मित्र मन्दिरा चक्रवर्ती ने बताया था. इस चित्र को पोस्ट करने और उन्हें शुक्रिया कहने का आज विजयादशमी से बेहतर मौक़ा और क्या हो सकता है.