Mukesh Kumar : कल एक विदेशी चैनल पर एक टिप्पणीकार कह रहा था- CNN is crime against journalism and Fox News is failed journalism. अब भारतीय चैनलों को इन दो वर्गों में बाँटकर बताइए किसे कहाँ रखा जाए। एक हिंट मैं दे रहा हूँ- ‘ज़ी न्यूज़ पत्रकारिता के विरूद्ध अपराध है और इंडिया टीवी असफल पत्रकारिता।’
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सरकारी बूट तले कराहती प्रसार भारती की आत्मा
अब वक़्त आ गया है जब प्रसार भारती से लोक प्रसारक होने का तमगा छीन लिया जाए, क्योंकि वह इसके लायक नहीं है। उसे सीधे-सीधे सरकारी भोंपू कहा जाना चाहिए। मोदी सरकार के दो साल पूरे होने पर उसने जिस तरह हिज़ मास्टर्स वॉयस बनकर पूरी निर्लज्जता के साथ उसका प्रचार-प्रसार किया वह इसकी ताज़ा मिसाल है। उसने सरकार का प्रवक्ता बनकर एक बार फिर से ये साबित कर दिया कि उसे इस बात का एहसास तक नहीं है कि वह लोक प्रसारक है। एक नई सुबह के नाम से पाँच घंटे का लाइव दरअसल कुछ और नहीं सरकार का ढोल पीटना था।
दरअसल, एक बार फिर से ये साबित हो गया है कि लोक प्रसारक होने की कसौटी पर वह कहीं से भी खरा नहीं उतरता। किसी प्रसारक का केवल इसी से लोक प्रसारक हो जाना तय नही हो जाता कि वह जनता के पैसे से चलता है। अगर उसका स्वरूप, स्वभाव और व्यवहार लोकोन्मुखी नहीं है तो उसे लोक प्रसारक नहीं माना जा सकता। इसलिए इस भ्रम को अभी और इसी वक़्त तोड़ देना बेहतर होगा। लोक प्रसारण नामक चिलमन की आड़ से सत्तारूढ़ दल अपना खेल खेलते आ रहे है और उसी को जन हित का नाम दे देते हैं। ये गोलमाल अब और नहीं चलना चाहिए। प्रसार भारती को लोक प्रसारक के रूप में खुद को स्थापित करने के लिए अच्छा-ख़ासा समय दिया जा चुका है। अब उसके पास ऐसा कोई विश्वसनीय कारण नहीं बचा है जिसके आधार पर वह कह सके कि उसकी छवि क्यों नहीं बदली, वह आज भी वैसी की वैसी क्यों है। अगर आज भी उसे सरकारी भोंपू की तरह देखा जाता है, तो ये इस बात का प्रमाण है कि उसने लोक प्रसारक का चोला तो ओढ़ लिया मगर उसके शरीर और आत्मा पर अभी भी सरकारी निरंकुशता का भारी-भरकम बूट रखा हुआ है।
दरअसल, सरकारी शिकंजे से प्रसार भारती कभी मुक्त नहीं हुआ और इसलिए उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व भी नहीं बन पाया। उसके मातहत चलने वाले टीवी चैनलों और रेडियो स्टेशनों की साख में कोई वृद्धि नहीं हुई बल्कि वह लगातार गिरती ही चली गई। कार्यक्रम निर्माता या बाज़ार, कोई भी उसे सम्मान की नज़र से नहीं देखता। यहाँ तक कि सरकारें भी उसे विशेष भाव नहीं देतीं। शुरू के कुछ वर्षों में थोड़ी हलचल ज़रूर दिखलाई दी थी लेकिन फिर वह सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का एक्सटेंशन बनकर रह गया। हर चीज़ वहीं से तय होने लगी। प्रसार भारती के सीईओ और बोर्ड की हैसियत रबर स्टैंप की हो गई। प्रसार भारती के बीस साल के कामकाज के अधार पर बेहिचक कहा जा सकता है कि वह लोक प्रसारक बनने की जो पहली शर्त है, उसी में फेल हो गया है। वह खुद को निष्पक्ष रखना तो दूर उसकी कोशिश करते हुए भी नहीं दिखता। ज़ाहिर है जब उसका काम सरकारी प्रोपेगंडा हो जाए तो जनहित तो लोक प्रसारण के एजेंडे से बाहर हो ही जाएगा।
यूँ तो पिछली तमाम सरकारों ने भी उसका जमकर दुरूपयोग किया मगर वर्तमान शासन में तो वह एक ग़ुलाम की तरह व्यवहार कर रहा है। उसकी पहचान गोएबल्स के माउथ पीस की तरह हो गई है। जब संघ प्रमुख का दशहरा भाषण लाइव किया जाने लगे और हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार के लिए उसका इस्तेमाल होने लगे तो फिर क्या बचा रह जाता है? दूरदर्शन और आकाशवाणी में काम करने वालों से दस मिनट बात कीजिए, उनका दर्द मवाद की तरह बहने लगता है। वे बताने लगते हैं कि किस तरह ख़बरों को दबाया और तोड़ा-मरोडा जा रहा है। प्रधानमंत्री के मुख दर्शन और गुणगान के नए-नए तरीके खोजे जा रहे हैं। दूरदर्शन देखकर आप पता नहीं कर सकते कि देश मे किस कदर बदहाली, बेरोज़गारी है और अत्याचार हो रहा है। कश्मीर, बस्तर, हैदराबाद और जेएनयू जैसे मुद्दों पर तो वह सरकार के प्रवक्ता के तौर पर तैनात हो जाता है। दूरदर्शन में तो ऊपर से लेकर नीचे तक संघ से संबंध रखने वालों को भर दिया गया है। वे संघ परिवार के हितों के रक्षक बनकर कंटेंट तैयार करवा रहे हैं। उनके लिए संविधान, साझी विरासत, बहुलता और विविधता का कोई अर्थ है ही नहीं। वे गोएबल्स के चेले हैं।
दूरदर्शन का हाल तो ये है कि तमाम सरकारी समर्थन के बावजूद बाज़ार में भी उसकी स्थिति चिंताजनक है। टीआरपी में तो वह निचले पाएदान पर खड़ा है। हालाँकि लोक प्रसारक से ये अपेक्षा नहीं रखी जानी चाहिए कि वह टीआरपी की होड़ में पड़े और मुनाफ़ा कमाना उसका एजेंडा बन जाए। मगर प्रसार भारती ने गुणवत्ता के भी कोई मानदंड नहीं कायम किए हैं। उसके कार्यक्रमों में नवीनता एवं नवाचार तो है ही नहीं। वह लकीर का फकीर बना हुआ है और ये होना लाज़िमी भी है। नई सर्जना के लिए उर्वर दिमाग, साहस और स्वतंत्रता चाहिए जो न उसके पास है और न ही वह बाहर से ले सकता है। जब प्रतिभाओं का पूल संघनिष्ठ शाखा मृगों तक सीमित हो जाएगा तो दरिद्रता के ही दर्शन हो सकते हैं। सरकारी कानून की वजह से उसे देश भर में दिखता तो है, लेकिन यदि वह बाध्यता हट जाए तो उसे कोई देखने वाला नहीं मिलेगा। डेढ़ साल पहले धूमधाम से लाँच किए गए किसान चैनल का हाल देख लीजिए। करोड़ों उस पर बहाए जा चुके हैं मगर न कोई उसे देखता है और न ही कोई उसका ज़िक्र करता है।
वास्तव में अब प्रसार भारती से ये पूछने की ज़रूरत भी नहीं है कि उसकी उपलब्धियाँ क्या हैं, क्योंकि वे तो सबको दिख ही रही हैं। ये बिल्कुल साफ है कि वह लोक प्रसारक नहीं बन पाया है, बस लोक प्रसारक का तमगा लगाकर घूम रहा है और देश-दुनिया को मूर्ख बना रहा है। ये उस संसद के साथ विश्वासघात है जिसने सन् 1997 में अधिनियम पारित करके उसे स्वायत्ता देने का रास्ता प्रशस्त किया था? ये उस जनता के साथ छल है जिसकी गाढ़ी कमाई से वसूले जाने वाले टैक्स से वह चलता है? ये उस भावना का अपमान है जो संसद द्वारा पारित अधिनियम में निहित है और उन लक्ष्यों से खिलवाड़ है जो उसके लिए निर्धारित किए गए थे?
ये तो इन बीस साल में साफ़ हो चुका है कि सरकार प्रसार भारती से अपनी नियंत्रण नहीं छोड़ेगी, क्योंकि जनमत को गुमराह करने का ये उसे बहुत बडा हथियार लगता है। वह निजी मीडिया से डरी हुई भी है। सरकार के इस तर्क में दम है कि निजी मीडिया को काउंटर करने और अपने कामों के प्रचार-प्रसार के लिए उसके पास भी साधन होने चाहिए। ऐसे में दो ही रास्ते बचते हैं। पहला तो ये कि सरकार कुछ चैनल अपने खाते में ले ले और उन्हें विशुद्ध रूप से सरकार के प्रचार-प्रसार के लिए चलाए लेकिन प्रसार भारती को अधिनियम के अनुसार लोक प्रसारक के रूप मे आकार लेने दे। अगर उसे ये मंज़ूर नहीं है तो प्रसार भारती को भंग करके पूर्व वाली स्थिति में ले जाए, ताकि ये जो लोक प्रसारण का छद्म है वह ख़त्म हो।
वरिष्ठ पत्रकार मुकेश कुमार के एफबी वॉल से.