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आज पहले पन्ने पर क्रिकेट में हारने के अलावा टनल में फंसे मजदूरों की खबर ही महत्वपूर्ण है

संजय कुमार सिंह

वैसे तो आज के अखबारों में क्रिकेट की खबर ही लीड है लेकिन द हिन्दू ने टनल में फंसे मजदूरों की खबर को लीड बनाया है और क्रिकेट की खबर को सेकेंड लीड बनाया है। द हिन्दू की खबर का शीर्षक है, मजदूरों ने टनल में हफ्ता पूरा किया, राहत प्रयास जारी। यह हादसा इतवार को सुबह हुआ था। इस हिसाब से कल इतवार को सात नहीं आठ दिन पूरे हो चुके हैं। अखबार ने अधिकारियों से हवाले से लिखा है कि फंसे मजदूरों तक पहुंचने के लिए पांच तरीके अपनाये जा रहे हैं। पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था वाला विश्व गुरू बनने के मुहाने पर पहुंचा भारत सबका साथ सबका विकास करते हुए निर्माणाधीन टनल में फंसे मजदूरों की गिनती कई दिनों में ठीक कर पाया और अब तक 41 में से एक भी मजदूर को निकाल नहीं पाया है। चार योजनाएं फेल होने के बाद अब पांच विकल्पों पर काम चल रहा है। राहत कार्यों के विदेशी विशेषज्ञों के आने की खबर के बाद देश के राजमार्ग मंत्री के मौका मुआयना करने या सक्रिय होने की खबर आज अखबारों में है।

हालांकि, राजमार्ग मंत्री ने कहा है कि दो-ढाई दिनों में बचावकर्मी फंसे हुए मजदूरों तक पहुंचने में सक्षम होंगे बशर्ते मशीनें ठीक से काम करती रहें। प्रधानमंत्री कार्यालय से भेजी गई टीम के भास्कर खुलबे ने कहा है कि मजदूरों को बाहर निकालने में करीब पांच दिन लगेंगे। इन दो सूचनाओं या अनुमानों से और पहले जारी प्रेस विज्ञप्तियों तथा उसके बाद वास्तव में जो हुआ है उससे आप समझ सकते हैं कि मामले को कितनी गंभीरता मिल रही है। आज के मेरे ज्यादातर अखबारों में पहले पन्ने पर ही नहीं, खबरों वाले पहले पन्ने पर भी भरपूर विज्ञापन है। इसलिए पहले पन्ने की खबरें कम हैं लेकिन विकास के रास्ते में फंसे मजदूरों की खबर पहले पन्ने पर है। वैसे इन खबरों से यह पता नहीं चल रहा है कि वे विकास कर पायेंगे या इतना विकास हो चुका है कि वे मौत के मुंह में नहीं जाएंगे। आठ दिन बहुत होते हैं और खबर यही है कि चार योजनाएं फेल हो चुकी हैं।

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आप जानते हैं कि टनल या सुरंग खोद रहे मजदूरों के फंसने का कारण यह है कि वे जहां तक खोद चुके थे उसके पीछे की छत धंस गई। आगे रास्ता बंद था, पीछे का धंसने से बंद हो गया। इसलिए, फंसना ही था। पर विशेषज्ञों को कहना है कि इसमें इस्केप रूट होना चाहिये था जो नहीं था। इसलिए मजदूरों तक पहुंचने में दिक्कत आ रही है। फंसे मजदूरों को निकालने का काम कर रहे लोगों को सफलता नहीं मिली क्योंकि मलबे को निकालने के समय भी मलबा गिरा जिससे मशीनें खराब हो गईं। ऐसे में दो विकल्प बचते हैं – एक ऊपर से खोद कर या रास्ता बनाकर मजदूरों तक पहुंचा जाये या जहां मजदूर हैं उसे चौराहा बना दिया जाए।

एक विकल्प खोद कर जहां पहुंचना था उधर से खुदाई की जाती और फंसे हुए मजदूरों तक पहुंचा जाता। जो भी लोग काम कर रहे थे और निर्णय लेने की स्थिति में उन लोगों ने जो निर्णय लिया वह नाकाम रहा और अब नये उपाय हो रहे हैं जिसमें समय लग रहा है। कायदे से सारे प्रयास एक साथ शुरू किये जाने चाहिये थे जिससे किसी भी एक तरीके से फंसे मजदूरों तक कम से कम समय में पहुंचा जा सकता। पर अब इतनी देर हो चुकी है कि मजदूरों की जान सांसत में लग रही है। इसके अलावा आज के अखबारों में जो खबरें हैं उनमें एक दिलचस्प शीर्षक हिन्दुस्तान टाइम्स में है। इस खबर का शीर्षक हिन्दी में होता तो कुछ इस तरह होता, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि राजस्थान कांग्रेस के नेता एक दूसरे को पीछे करने में लगे हुए हैं।

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मुझे लगता है कि यह सही भी हो तो प्रधानमंत्री, प्रधान प्रचारक या विरोधी दल के व्यावहारिक तौर पर सबसे बड़े नेता द्वारा कही जान योग्य बात नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री देश के खर्च पर चुनाव प्रचार करने जाते हैं और अगर ऐसी ही बातें बोलनी है (जो मन के बात जैसी है) तो क्या यह जरूरी है कि रैली में कही जाये या वहां जाकर कही जाये। मुझे लगता है कि आकाशवाणी, दूरदर्शन की सेवाएं प्रधानमंत्री के लिए मुफ्त हैं ही उन्हें ऐसी बातें रेडियो टीवी पर कहनी चाहिये, रैली में बोलने के लिए कुछ गंभीर बातें बचाकर या ढूंढ़कर रखनी चाहिये। कम से कम रैली का महत्व तो बचा रहे। वरना रैली भी केचुआ बना दिया जाये तो हम कया कर लेंगे।

मैं यह नहीं कहूंगा कि प्रधानमंत्री के पास चुनाव प्रचार में कहने के लिए कुछ नहीं है, इसलिए वे ऐसी बातें कर रहे हैं। मैं मान लेता हूं कि उनके ऐसा कहने से उनकी पार्टी को वोट मिलेंगे और यही सर्वश्रेष्ठ नीति है। लेकिन मन की बात रैली में की जायेगी तो मुझे डर है कि रैली में लोग नहीं आयेंगे और यह ज्यादा बुरा होगा। देश के लिए, सरकारी पार्टी के लिए और प्रधानंमत्री के लिये भी। प्रधानमंत्री ने कहा है तो निश्चित रूप से यह पहले पन्ने पर छप सकती है और मुझे उससे कोई दिक्कत नहीं है। मुझे दिक्कत इस बात से है कि टनल में फंसे मजदूरों को निकालने की कोशिशें ठीक नहीं हैं या कमजोर हैं और आज जब खबरें बहुत कम हैं तो भी शीर्षक से नहीं लग रहा है कि आठ दिन यूं ही निकल गये।

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इंडियन एक्सप्रेस का शीर्षक भी प्रचार करने वाला ही लग रहा है। आप भी देखिये –  “उत्तरकाशी टनल : नई पांच सूत्री बचाव योजना”। उपशीर्षक है, “गडकरी ने मौके का मुआयना किया, कहा बचाव 2-3 दिन में अगर मशीनें ठीक से काम करती हैं”। इसके मुकाबले द टेलीग्राफ का शीर्षक है, गडकरी, पीएमओ के प्रतिनिधि में बचाव में लगने वाले समय को लेकर मतभेद। टाइम्स ऑफ इंडिया का शीर्षक है, बचाव की उम्मीद ऊपर से ड्रिल करने के मौके पर टिकी हैं। उपशीर्षक है, ऐसे ही प्रयास से 2015 में हिमाचल प्रदेश में मजदूरों बचाया गया था। तब नौ मजदूरों को इस तरह निकाला गया था। इस बार एक मजदूर ज्यादा हैं तो गिनती ही गड़बड़ थी। फिर भी विश्व गुरू होने से कौन रोक सकता है?   

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