देव प्रिय अवस्थी-
15 जुलाई 1937 को जन्मे प्रभाष जी आज 86 बरस के हो जाते. वे मुझे पत्रकारिता करने की सलाह देनेवाले पहले व्यक्ति थे. उन्होंने 1972 में अपनी एक कानपुर यात्रा के दौरान मुझे दिल्ली आकर पत्रकारिता करने का निमंत्रण दिया था. उस समय वे साप्ताहिक सर्वोदय जगत से जुड़े थे और मैं ग्रेजुएशन कर रहा था. तब पढ़ाई पूरी करना मेरी प्राथमिकता था, लेकिन मन में यह बात बैठ गई थी कि मुझे देर-सवेर पत्रकारिता करनी है.
जुलाई 1976 में एमए( मनोविज्ञान) का परिणाम आने के बाद मैंने दैनिक जागरण, कानपुर की चयन प्रक्रिया पूरी कर वहां काम शुरू किया. फिर 1979 में टाइम्स समूह की प्रशिक्षणार्थी पत्रकार योजना के माध्यम से नवभारत टाइम्स, दिल्ली से जुडा. प्रभाष जी के साथ काम करने का मौका 1983 के उत्तरार्ध में जनसत्ता का प्रकाशन शुरू होने पर मिला.
जनसत्ता ने हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में जो मानक बनाए, उनसे पत्रकारिता से जुड़े अधिकतर मित्र भलीभाँति परिचित हैं. प्रकाशन शुरू होने के एक वर्ष के भीतर दो लाख की प्रसार संख्या छूने वाला जनसत्ता पिछले कई वर्षों से रिरिया (यह प्रभाष जी का दिया शब्द है) रहा है. यह स्थिति विशाल जनसत्ता परिवार को, जिसमें उसमें काम करने वाले पत्रकारों-गैर पत्रकारों के साथ ही उसके पाठक भी शामिल हैं, बहुत पीड़ा देती और सालती है.
जनसत्ता के इस हश्र के कारणों की पड़ताल कई कोणों से की जाती रही है और होती रहेगी. मेरी नजर में जनसत्ता की इस दुर्गति की सबसे बड़ी वजह इसका क्रमशः संघीकरण होते जाना है. शुरुआत में जनसत्ता परिवार में सभी विचारधाराओं के लोग शामिल थे. बाद में यह स्थिति नहीं रही और संघ की पृष्ठभूमि के लोगों का दबदबा बढ़ता गया.
दुखद है कि संघ परिवार के लोग आज प्रभाष जी को येन केन प्रकारेण संघ का हितैषी और करीबी साबित करने की कोशिश में जुटे हैं. प्रभाष परंपरा न्यास पर तो उनका पूरा कब्जा हो ही चुका है. प्रभाष जी की पुस्तक “हिंदू होने का धर्म” जिस किसी ने पढ़ी होगी वह संघ के बारे में प्रभाष जी के विचारों से अच्छी तरह अवगत होगा. प्रभाष जी ने संघ के हिंदुत्व को कई बार आईना दिखाया है. लेकिन, सत्ता और साधनों की ताकत के बल पर उन्हें संघ के पाले में खड़ा करने-दिखाने पर आमादा लोगों का उनके विचारों से क्या लेना-देना.
आपका कहना काफी हद तक सही है। लेकिन प्रबंधन द्वारा एक समय में संसाधन उपलब्ध न कराना भी एक बड़ी वजह रही। जब बाकी अखबार अपने प्रचार प्रसार पर जोर दे रहे थे, अच्छे कागज़ लगा रहे थे, कलर हो रहे थे, पेजों की संख्या बढ़ा रहे थे, जनसत्ता वही खराब कागज की आठ पेज वाली काली ओढ़नी ओढ़े हुए था। -amrendra Roy
jansatta के इस हालत तक पहुंचाने की बड़ी जिम्मेदारी management की है l संघ का कोई लेना देना नहीं l प्रभाष जी के समय में ही management ने उपेक्षा शुरू कर दी थी l इसे लेकर वह दुखी भी थे l एक्स्प्रेस का circulation हमेशा जनसत्ता से कम रहा, पर उसमे जनसत्ता से 20 गुना ज्यादा पैसा झोंका जाता रहा l 1990 से appointment बंद हो गए l जनसत्ता के लोगों का वेतन साथ काम कर रहे express के जूनियर रिपोर्टर से भी कम किए जाते रहे l मेरा अनुभव है इसमे प्रभाष जी की भी कमी थी, वज़ह कुछ रही होगी l जनसत्ता मे अंत तक वहीं रहे जो मिशनरी थे lआपने 30-35 साल में कहीं भी जनसत्ता के विज्ञापन, पोस्टर, banners, देखे हैं ? मैंने 1997 में express के GM से सीधे फोर्ड कार का किस्सा सुनाते कहा था कि जनसत्ता जो चल रहा है वह अपने पुराने reputation पर ही, जिसे प्रभाष जी ने अपनी मेहनत और अपनी बनाई टीम के जरिए बनाया है l रहा संघ का मामला तो प्रभाष जी के1991 के पहले और उसके बाद के रुख से आप भी परिचित होंगे l उनके मित्रों मे संघ के भी लोग थे, और आपके समय में भी editorial में हिन्दुत्व और संघ के लोग तो काफी भरे थे, ऊपर से ले कर नीचे तक, उनके प्रिय लोगों में भी l आप भी जानते हैं l प्रभाष जी सभी को लेकर चलते थे, पर किसी विचारधारा, खुद की अपनी विचारधारा को अखबार पर लादने की उन्होंने कभी कोशिश नहीं की l उनकी संपादकीय, उनकी राजनीति समझ हम लोगों की बात तो छोड़िए, जनसत्ता के स्टेट या district रिपोर्टर के लिए भी उनकी समझ या स्टोरी की गाइड लाइन नहीं बनी l अपनी समझ और अपने दायित्व के आधार पर खबर लिखी जाती थी, प्रभाष जी, व्यास जी, राय साहब के लाइन के भले ही अलग हो l डेस्क पर कई को नहीं पसंद आता तो भी स्टोरी रोकना, या उसकी दिशा बदलना उनके लिए आसान नहीं था l प्रभाष जी की एक सम्पादक के रूप में सबसे बड़ी खासियत यही थी कि उस दौरान जनसत्ता में खबर छपवाना आसान था, पर रुकवाना? बहुत ही मुश्किल l सम्पादक को भी कारण बताना होता l प्रभाष जी की यह परंपरा इतनी गहरी तक पहुंच गई कि उनके बाद भी जो सम्पादक आए उनके लिए भी ख़बरों को किसी दबाब में रोकना आसान नहीं रहा lबाहरी ही नहीं भीतर की ताकतें भी हर अखबारो की तरह यहां भी चाहती रही स्टोरी में अपने फैसले को डालने की, पर जनसत्ता में यह आसान नहीं था, लंबी बहस में उलझना पड़ता, उनकी हिम्मत नहीं होती l बहुत से अनुभव और किस्से हैं l खुशनसीब हूँ मैं कि प्रभाष के नेतृत्व में काम किया, उन्होंने लिखने की जो आजादी दी, पत्रकारिता की भाषा को साहित्यिक भाषा से मुक्त कर हम जैसे साइंस से आए लोगों को हिन्दी पत्रकारिता में ट्रेंड किया वह वाकई एक बड़ी चीज थी, उस समय l इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने एक अलग परम्परा कायम की , प्रभाष परंपरा l उनकी स्मृति को सादर नमन। – Pradeep Srivastava
Gopal Rathi-
आज प्रभाषजी का जन्म दिवस हैl देश के सबसे मूर्धन्य संपादकों में शुमार प्रभाष जोशी ने पूरी जिंदगी मूल्यों पर आधारित पत्रकारिता के लिए समर्पित कर दी। जीवन के आखिरी कुछ साल उन्होंने ‘पेड न्यूज’ के खिलाफ आवाज बुलंद की और पत्रकारिता में शुचिता के लिए प्रयासरत रहे। वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय कहते हैं, ‘प्रभाष जोशी ने सबसे पहले पेड न्यूज के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने पेड न्यूज के खिलाफ अभियान शुरू किया और इसको लेकर बड़ी बहस छिड़ी।
आज वह हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके चाहने वालों की यह जिम्मेदारी है कि पत्रकारिता को नुकसान पहुंचा रही पेड न्यूज की व्यवस्था के खिलाफ आवाज बुलंद करें।’ ‘जनसत्ता’ के जरिए हिंदी पत्रकारिता की गरिमा को नए शिखर पर ले जाने वाले जोशी लेखनी के दायरे को हमेशा विस्तृत करने के पक्ष में रहे। उनकी लेखनी का दायरा भी बहुत विस्तृत था, जिसमें राजनीति से लेकर खेल तक शामिल हैं।
‘चौथी दुनिया’ के संपादक संतोष भारतीय कहते हैं, ‘प्रभाष जोशी गणेश शंकर विद्यार्थी की परंपरा को आगे बढाने वाले पत्रकार थे। उन्होंने पत्रकारिता को नया आयाम दिया। आज के दौर में जोशी की पत्रकारिता को ही उदाहरण के तौर पर पेश करने की जरूरत है।’ विनोबा भावे की पदयात्रा और जेपी आंदोलन के प्रत्यक्ष गवाह रहे जोशी का जन्म 15 जुलाई, 1936 को भोपाल के निकट आष्टा में हुआ। जोशी ने ‘नई दुनिया’ से पत्रकारिता की शुरुआत की। बाद में वह सरोकार परक पत्रकरिता के लिए मशहूर रामनाथ गोयनका के साथ जुड़े। यहीं से उनकी क्रांतिकारी लेखनी और संपादकीय हुनर की गवाह पूरी दुनिया बनी।
साल 1983 में ‘जनसत्ता’ की शुरुआत प्रभाष जोशी के नेतृत्व में हुई। 80 के दशक में यह अखबार जनता की आवाज की शक्ल ले चुका था। पंजाब में खालिस्तानी अलगाववाद और बोफोर्स घोटाले जैसे कुछ घटनाक्रमों में इस प्रकाशन ने निर्भीकता और निष्पक्षता का जोरदार परिचय दिया। यह सब जोशी के विलक्षण नेतृत्व के बल पर संभव हुआ। जोशी की मूल्य आधारित पत्रकारिता के बारे में ‘जनसत्ता’ के पूर्व स्थानीय संपादक और वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव कहते हैं, ‘मैंने प्रभाष जोशी के साथ बतौर स्थानीय संपादक काम किया।
मेरा मानना है कि उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की गरिमा को बढ़ाने और उसे एक नए शिखर पर ले जाने काम किया।’ सक्रिय पत्रकारिता से अलग होने के बाद जोशी ने अपनी लेखनी को विराम नहीं दिया। जीवन के आखिरी कुछ साल में उन्होंने ‘पेड न्यूज’ के खिलाफ जोरदार आवाज बुलंद की। उनके प्रयासों का नतीजा था कि पेड न्यूज के खिलाफ पहली बार एक बहस छिड़ी और भारतीय प्रेस परिषद ने इस संदर्भ में जांच कराई।
जोशी क्रिकेट के बड़े शौकीन और मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर के बड़े मुरीद थे। पांच नवंबर, 2009 को आस्ट्रेलिया के खिलाफ सचिन की ऐतिहासिक पारी को देखने के दौरान उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनका निधन हो गया।