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सुख-दुख

मस्तिष्क ट्यूमर से लड़ रहे कामरेड अभिषेक रौशन की मृत्यु का समाचार एक सदमे की तरह लगा!

Robert Rahman Raman-

Comrade Abhishek Raushan was not just a fellow comrade, but someone from whom I learnt door to door campaigning during JNUSU election. The way he used to go even to a political opponents room, talk to him, appeal him to vote for us was remarkable. During our time JNU SFI torch light processions, SL campaigns and counting night would be unimaginable without him.

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I would be personally indebted to him as he has introduced me to so many Hindi writers, including Harishankar Parsaai… You will be thoroughly missed comrade! Red Salute!!

गंगा सहाय मीणा-

हमारे जेएनयू के सीनियर Abhishek Raushan छोड़कर चले गए। अभी एक महीने पहले ही बात हुई थी। जेएनयू में उनका स्‍नेह मिला। बालकृष्‍ण भट्ट पर काम करते हुए उनकी किताब (बालकृष्ण भट्ट और आधुनिक हिन्दी आलोचना का आरम्भ) पढ़ना उपयोगी रहा। पिछली बातचीत में साझी पीड़ाओं पर भी बात हुई और वे अपनी घातक बीमारी के बजाय मेरी पीड़ा की ही चिंता कर रहे थे। आप हमेशा स्‍मृतियों में रहेंगे अभिषेक सर!

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Vijoo Krishnan-

प्रिय मित्र और संघर्षों के साथी अभिषेक रौशन को लाल सलाम. कॉमरेड अभिषेक रौशन की मृत्यु का समाचार मुझे एक सदमे की तरह लगा. जांच में दो साल पहले उनके मस्तिष्क में ट्यूमर का पता चला था और चिकित्सा के तमाम उपायों के बावजूद उनकी स्थिति बुरी ही होती गई और अंततः उनकी मृत्यु हो गई।

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कॉमरेड अभिषेक रौशन ने 1998 में जेएनयू के SLL&CS, JNU में भारतीय भाषा केंद्र में MA में दाखिला लिया था और फिर वहीं से एमफिल तथा पीएचडी पूरा किया। JNUSU का उपाध्यक्ष होने के नाते नामांकन के तुरत बाद ही अभिषेक से जान पहचान हो गई थी। आगे चलकर स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के सक्रिय सदस्य बने. 1998 के छात्र चुनावों में उन्होंने काफी मेहनत किया जिससे SFI – AISF का पूरा पैनल ही जीतकर आया। 1998 में हमारे पूरे पैनल की जीत हुई थी और मैं उस साल छात्र संघ का अध्यक्ष निर्वाचित हुआ था। कॉमरेड अभिषेक काफी मेहनती साथी थे जिन्होंने काफी बड़े दायरे में हमारी राजनीति की पहुंच बनाई।

वे SFI के लड़ो और संघर्ष करो नारे के जीता जागता उदाहरण थे। उन्होंने अपने व्यक्तित्व से जेएनयू की प्रगतिशील राजनीति को सशक्त किया. मुझे अभी भी उनका वो उदास चेहरा याद है जब मैं 2000 के छात्र चुनावों में एक वोट से हारा था, उन्होंने आशा का दामन नहीं छोड़ा और संगठन को दुबारा मजबूत करने में अथक परिश्रम किया। उनकी उपस्थिति हमारे सभी कार्यक्रमों विरोध प्रदर्शनों, संघर्षों में हुआ करती थी।

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वे एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में 2009 से EFLU के हिंदी विभाग में कार्यरत थे। उनकी एक शिक्षक के रूप में और हिंदी साहित्य के विद्वान के रूप में ख्याति है उनके लेख उनकी किताब को काफी सराहा गया है।

उनके देहांत से हम सबने एक ऐसा साथी खोया है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती है। मैं अपनी तरफ से उनकी पत्नी, बेटी, परिवार के सभी सदस्यों और उनके सभी शुभचिंतकों को संवेदना प्रेषित करता हूं।

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