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सुख-दुख

अभिषेक उपाध्याय की सीरिया डायरी : हमें देख ‘इंदी’ ‘इंदी’ कहने वालों की यहां होड़ थी!

अभिषेक उपाध्याय-

सीरिया जैसे देश में अगर भारत के नाम पर लोग आपके गले लग जाएं, अगर तीन तरफ से विद्रोहियों से घिरे इलाके में वे आपके लिए फिक्रमंद हो उठें, अगर “इंदी इंदी” कहकर वे आपका इस्तकबाल करें और आपको माथा चूम लें, तो गर्व के साथ स्वीकार करना चाहिए कि ये नए भारत की अद्भुत ताकत का परचम है…

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गज़ब लोकप्रियता है शाहरुख ख़ान की। सीरिया के एलप्पो और हामा जैसे विद्रोहियों से घिरे इलाके में भी लोग हिंदुस्तान के नाम पर शाहरुख ख़ान का नाम लेते हैं। कल से आज तक न जाने कितने सीरियाई लोगों को हिंदुस्तान का नाम सुनते ही शाहरुख ख़ान का नाम लेते सुन चुका हूं।

सीरिया डायरी— (1) : फ़्लाइट के उड़ते ही उसने हमारे साथ एक सेल्फ़ी ली और व्हाट्सअप पर किसी को भेज दी और कहा, “वेलकम टू सीरिया।” मैं सन्न रह गया। फ्लाइट अभी शारज़ाह से दमिश्क के लिए उड़ी ही थी। आशंका के अजीब से बादल मेरी आँखों में घुलने लगे थे। मुझे लगा कि जैसे फ्लाइट की रफ्‍तार धीमी पड़ गई हो और नब्ज़ें उससे भी तेज़ दौड़ने लगी हों।
“इंदी….इंदी….इंदी..”

वह फिर से बुदबुदाया और उसने अचानक से मुझे गले लगा लिया। मेरे ज़ेहन में छनाक की आवाज़ के साथ कुछ गिरा था। आशंकाओं के मर्तबान (बर्तन) का शीशा टूट गया हो जैसे। एक हिंदुस्तानी को अपने बग़ल में पाकर वो अपनी ख़ुशी बयां नही कर पा रहा था और मैं उसकी ख़ुशी देखकर नि:शब्द था। फ़्लाइट में मिले पहले ही सीरियाई ने मेरे ज़ेहन में अब तक की खिंची सीरिया की तस्वीर का नक़्शा ही पलट दिया था। भूमध्य सागर के ख़ारे पानी में रिश्तों की एक मीठी झील करवटें बदल रही थी।
“सहाफ़ी…सहाफ़ी…. ज़लज़ला…..ज़लज़ला…..” अरबी में बातें कर रहा वो शख़्स बीच बीच में कुछ जाने पहचाने लफ़्ज़ों का पुल बनाता जा रहा था जिसके सहारे हम बिना किसी वीज़ा और पासपोर्ट के ही भाषाई सरहद के इमीग्रेशन को पार कर ले रहे थे।

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अब तक वो समझ चुका था कि मैं सीरिया में भूकंप की कवरेज के लिए आया हूँ और मुझे इत्मिनान हो चुका था कि ये शख़्स हिंदुस्तानी होने के नाते मुझे अपने दिल में जगह दे चुका है। हम दोनो ही परिचय के एक अपरिचित से रिश्ते में बंध चुके थे। वह दमिश्क उतरने के बाद भी इमीग्रेशन तक हमारे साथ ही रहा। हमें इशारों के ज़रिए एयरपोर्ट की एक एक चीज़ समझाता हुआ। अजनबीयत की दंग हुई आँखों को बहलाता हुआ। फिर उसने विदा ली। ये सीरिया से हमारा पहला परिचय था।

हम एयरपोर्ट पऱ उतरे तो ऐसा लगा कि जैसे पूरे एयरपोर्ट को पता हो कि हिंदुस्तान से दो सहाफ़ी (पत्रकार) आने वाले हैं। इमीग्रेशन के अधिकारियों ने हमारा चेहरा देखकर ही हमें लाइन से अलग कर दिया। वे फार्म लेकर आए। उसे भरवाया। काउंटर पर ले गए। औपचारिकताएँ पूरी करवाईं। ये सब इसलिए था कि सीरिया की सरकार की ओर से एयरपोर्ट पर हमारे लिए पहले से ही चिट्ठी जा चुकी थी। दुनिया के इस सबसे ख़तरनाक माने जाने वाले ज़ोन में जाने के लिए हमें विशेष परमीशन की ज़रूरत पड़ी थी। इसलिए यहां भी उसी के मुताबिक सब तैयारियां थीं।

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एयरपोर्ट पर हमारे इक्विपमेंट की लिस्ट से लेकर हमारे चैनल के ब्योरे तक सब मौजूद था। यह एक ज़रूरी औपचारिकता थी जो वे किसी भी विदेशी पत्रकार के लिए करते होंगे मगर मसला ये नही था। मसला ‘इंदी’ नाम के उस लफ़्ज़ का था जो यहां भी कदम कदम पर शोर कर रहा था। हमें देखते ही ‘इंदी’ ‘इंदी’ कहने वालों की यहां भी होड़ थी जिसमें एयरपोर्ट के अधिकारी तक शामिल थे। एक अजीब किस्म का उत्साह उनके चेहरों पर नाच रहा था। बात ये नही थी कि दो सहाफ़ी आए हैं। बात ये थी कि हिंदुस्तान से दो सहाफ़ी आए हैं। थोड़ी थोड़ी देर पर लोग आते और हमसे हाथ मिलाते।

हम एकदम क्लियर थे। वे हमसे हाथ नही मिला रहे थे। वे हिंदुस्तान से हाथ मिला रहे थे। मेरा मुल्क मेरे कंधे पर खड़ा होकर अपनी बाँहें लहरा रहा था। उसकी बाँहें कस चुकी थीं। अल हबीबी कहता हुआ एक सीरिया उन बाहों में समा चुका था। दमिश्क के एयरपोर्ट पर दो मुल्क एक दूसरे के गले लग चुके थे। इतिहास का कोई थका सा यात्री सिल्क रूट का रेशमी तकिया लगाकर ठीक बग़ल में सो गया था। मैं सीरिया में उतरा था और सीरिया मुझमें उतर चुका था…

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(जारी……)

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