विश्व दीपक-
तारिक अली जैसे वो सेलेब्रिटी (वामपंथी) चिंतक जो तालिबान की जीत में अमेरिकी साम्राज्यवाद का पतन देखते हैं उनकी बुद्धि की मोटाई पर सिर्फ तरस खाया जा सकता है. सचमुच हैरान हूं और एक हद तक स्तब्ध भी.
इतना स्थूल बुद्धि?
जिन्हें लगता है कि अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान की वापसी किसी पॉपुलर अपराइजिंग का नतीज़ा है उन्हें अपने निष्कर्षों के बारे में एक बार फिर से सोचना चाहिए.
सच्चाई यही है की तालिबान, अल कायदा या दूसरे ग्लोबल जिहादी संगठन अमेरिकी साम्राज्यवाद के असली दलाल हैं. ना सिर्फ आतंकवादी संगठन बल्कि सऊदी अरब जैसे घोषित इस्लामिक देश कई दशकों से मध्य एशिया में अंकल सैम की गोद में बैठकर ग्लोबल आतंकवाद का कारोबार कर रहे हैं.
इस्लाम के नाम पर पूरी दुनिया को बर्बरता और मध्य काल की ओर धकेलने वाले ये संगठन अमेरिकी योजना, पैसे और सहयोग से ही पैदा हुए. मजबूत हुए यह सब जानते हैं.
ये सब कल भी अमेरिकी मोहरे थे आज भी हैं. बस फर्क यह है कि नौ – ग्यारह के बाद अमेरिका ने तय किया की यह वाला मोहरा बेकाबू हो चुका है, इसे बाहर करना चाहिए तो पीट कर बाहर कर दिया. उनकी जगह पर करजई, गनी को बैठा दिया. ये भी अमेरिकी मोहरे ही थे.
अब जब अमेरिका को लगा कि इतना पैसा खर्च करने के बाद भी अमेरिकी हितों का संरक्षण नहीं हो पा रहा तो क्यों न तालिबान को ही काबुल में बैठा दिया जाय. तो, बैठा दिया. अमेरिका ने मोहरा बदल दिया.
क्या लगता है अफगानिस्तान की सेना ने क्यों आत्मसमर्पण किया ? अफगानी सैनिक कायर नहीं थे. उन्हें पता चल गया था कि अमेरिका पाकिस्तान के मार्फत तालिबान को काबुल पर बैठने का ग्रीन सिग्नल दे चुका है. इसलिए लड़ने का कोई मतलब नहीं. इसलिए गनी भाग गया.
एक लाइन में दोहा डील यही है : अफगानिस्तान को प्लेट पर सजाकर अमेरिका और नाटो ने पाकिस्तान- तालिबान को सौंप दिया. अब दोनों उसे काटकर खाएंगे.
काबुल पर तालिबान का कब्जा असल में अमेरिकी साम्राज्यवाद का ही जिहादी एक्सटेंशन है ना की अमेरिकी सत्ता के पतन का सूचकांक.
रंगनाथ सिंह-
कुछ लोग यह दिखाना चाह रहे हैं कि तालिबान केवल एक संगठन है और उसने अपने दम पर तख्तापलट किया है। कुछ लोग यह भी दिखाना चाह रहे हैं कि तालिबान के पास व्यापक जनसमर्थन है और उसकी मुहिम जनजागरण का परिणाम है। कल एक वरिष्ठ पाकिस्तानी पत्रकार ने डॉन न्यूज पर बहुत अच्छी बात कही। उन्होंने कहा कि काबुल में जिस तरह भीड़ द्वारा तालिबान का स्वागत करने का वीडियो मीडिया में जारी किया गया, ठीक वैसा ही वीडियो तब जारी किया गया था जब अमेरिकी फौज काबुल पहुँची थी। तब भी यही बयानिया (नरेटिव) तैयार किया गया कि अवाम ने अमेरिकी फौज का स्वागत किया है।
तालिबान को जिस तरह इस बार अफगानिस्तान की सत्ता सौंपी गयी है उससे जाहिर है कि वह एक सुनियोजित योजना का परिणाम है। पिछले तीन-चार दिनों में जिन लोगों के नाम नए निजाम के प्रमुख मनसबदार के तौर पर सामने आये हैं उन सभी का किसी न किसी तरह से अमेरिका से लम्बा नाता रहा है। और तो और इस वक्त तालिबान के मुखिया मुल्ला बिरादर को साल 2010 में पाकिस्तानियों ने गिरफ्तार कर लिया था। आठ साल पाकिस्तानी जेल में रहने के बाद मुल्ला बिरादर को साल 2018 में रिहा किया गया। माना जाता है कि मुल्ला बिरादर को अमेरिका के कहने पर रिहा किया गया।
अमेरिका ने जिस तरह तालिबान से सीधी बातचीत का रास्ता अख्तियार किया उसमें पर्दे के पीछे के सौदेबाजियों के बारे में अभी तक कोई खुलासा नहीं हुआ है। नेताओं के बयान इत्यादि पर भरोसा करने लगे तो आदमी अन्धेरे कमरे में आँख पर काली पट्टी बाँधकर भटकता रह जाएगा। हालिया घटनाक्रम और अमेरिका के कोवर्ट ऑपरेशन की क्षमता को देखते हुए अभी इस बारे में कोई ठोस राय कायम करना उचित नहीं। भारत में बाबा रामपाल के आश्रम में घुसने में पुलिस को कई दिन लग गये और काबुल में तालिबान टहलते हुए राष्ट्रपति भवन तक पहुंच गये तो इसका मतलब साफ है कि पर्दे के पीछे कुछ बड़ा खेल हुआ है।
तालिबान का राजनीतिक दफ्तर कतर के दोहा में था। तालिबान जब अफगान राष्ट्रपति भवन में घुसे तो कतर द्वारा वित्त-पोषित अल जजीरा का कैमरा उनके साथ था। कतर पर अल-जजीरा के अलावा कई कट्टरपंथी संगठनों को पैसे देने का आरोप लगता रहा है। अरब जगत के ज्यादातर देश अमेरिका की जेब में हैं। ऐसे में खेल की डोर अमेरिका के हाथ में होने का शक निराधार नहीं है।
मुल्ला बिरादर चीन भी आते जाते रहे हैं। चीन पाकिस्तान का नया गॉडफादर है। चीन अपनी ‘वन बेल्ट वन रोड’ परियोजना पर युद्ध स्तर पर काम कर रहा है। अफगानिस्तान से दोस्ताना रिश्तों के बाद चीन के लिए इस परियोजना को अंजाम देने में पहले से ज्यादा सहूलियत होगी। कई विश्लेषक यह मान रहे हैं कि चीन अफगानिस्तान के हिन्दकुश इलाके के खनिजों पर नजर गड़ाये हुए है। चीन ने पिछले कुछ सालों में जिस तरह नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश इत्यादि में अपनी पकड़ मजबूत की है उसे देखते हुए अफगानिस्तान में चीन के मंसूबे का अंदाज लगाना मुश्किल नहीं। तालिबान चीन को मित्र राष्ट्र मानता है तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पर्दे के पीछे खेलने वाला असल खिलाड़ी चीन हो।
अफगानिस्तान के खेल में एक बड़ा खिलाड़ी रूस भी रहा है लेकिन इस बार रूस का नाम उभर कर सामने नहीं आ रहा है। हालाँकि साल 2017 में अफगानिस्तान के तत्कालिन राष्ट्रपति अशरफ गनी ने रूस पर तालिबान को हथियार आपूर्ति का आरोप लगाया था। तीन साल पुरानी एक चर्चा में अफगानिस्तान पर गहरी पकड़ रखने वाले वरिष्ठ पाकिस्तानी पत्रकार रहीमुल्ला यूसुफजई ने ध्यान दिलाया कि रूसी हथियार मिलने से रूस का हाथ मानना अक्लमंदी नहीं। सोवियत रूस के जमाने में अफगानिस्तान पर हमले के दौरान बहुत से हथियार यहीं रह गये थे। यह भी जरूरी नहीं कि रूसी हथियार सीधे रूस से मिले हों। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रूस के वर्तमान कर्णधार पुतिन खुफिया एजेंसी के प्रमुख रहे हैं। अमेरिका-विरोधी गुटबन्दी में रूस ने चीन और ईरान का साथ दिया। यहाँ तक कि भारत ने अमेरिका से दोस्ताना बढ़ाया तो रूस ने तुरन्त पाकिस्तान की तरफ हाथ हिलाकर भारत पर दबाव बनाया। ऐसे में अभी यह साफ नहीं है कि पर्दे के पीछे रूस ने क्या पत्ते चले हैं।
इलाके का तीसरा बड़ा मनसबदार ईरान है। ईरान की अमेरिका से तनातनी जगजाहिर है। ईरान कतई नहीं चाहता होगा कि उसके पड़ोस में अमेरिका प्रभावी रहे। चीन और रूस से उसकी नजदीकी से उसे यह भरोसा मिला होगा कि तालिबान पर नियंत्रण रखा जा सकता है। तालिबान के मौजूदा तख्तापलट में कई जानकारों ने इस बात को रेखांकित किया कि तालिबान ने ईरानी सीमा के करीबी प्रान्तों को पहले कब्जे में लिया। वहाँ जैसे मुकाबले की उम्मीद थी वह नहीं हुआ। अतः ईरान ने मौजूदा मामले में क्या भूमिका निभायी है यह वक्त आने पर ही पता चलेगा।
खेल का अगला अहम खिलाड़ी हमारा पड़ोसी पाकिस्तान है। संयोग है कि पाकिस्तान में तालिबान की शरणगाह खैबर पख्तूनख्वा से राजनीति शुरू करने वाले इमरान खान ही वजीरे आला है। तालिबानियों से उनके प्रेम के कारण उन्हें तालिबान खान भी कहा जाता था। ये सच है कि उनकी जमीन, राशन-पानी, बिजली, सड़क, अस्पताल और मदरसों के दम पर ही तालिबान 20 साल तक जिन्दा रहे लेकिन यह भी सच है कि यह बस वक्त-वक्त की बात है। आजाद खुदमुख्तार मुल्क के हुक्मरान बनते ही तालिबान यह याद दिला सकते हैं कि उन्होंने तीन बड़ी ताकतों (ब्रिटेन, रूस और अमेरिका) से जंग लड़कर मुल्क हासिल किया है तो पाकिस्तान जैसे कठपुतली मुल्क की घुड़की वो बर्दाश्त नहीं करेंगे।
आखिर में बचा हमारा भारत। तालिबान ने भारत के प्रति काफी नरम रुख दिखाया है। भारत ने भी अफगानिस्तान में चल रहे सत्ता संघर्ष में सुरक्षित दूरी बरती है। पिछली अफगान सरकारों से भारत के अच्छे सम्बन्ध थे। ऐसा लग रहा है कि फिलहाल तालिबान भी भारत से वैसे ही रिश्ते रखना चाहते हैं। इस इलाके के गहरे जानकार प्रोफेसर स्वर्ण सिंह से थोड़ी देर पहले एक वीडियो इंटरव्यू किया। प्रोफेसर साहब ने ध्यान दिलाया कि तालिबान ने कश्मीर को भारत का अन्दरूनी मसला बताया है। मीडिया खबरों के आधार पर यही राय बनती है कि भारत ने शायद यह रणनीति अपनायी है कि अफगानिस्तान के अन्दरूनी मसलों में दखल न दिया जाए। लेकिन जिस देश के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल हों तो यह मानना नादानी होगी कि भारत ने पर्दे के पीछे कोई पत्ता नहीं चला होगा।
कुल मिलाकर अफगानिस्तान में पिछले एक महीने में जो हुआ है उसके पत्ते वक्त के साथ-साथ धीरे-धीरे खुलेंगे। याद रखना है कि एक्शन स्पीक्स लाउडर दैन वर्ड्स। तो कौन क्या कह रहा है, इसके बजाय हमें इसपर निगाह रखनी है कि कौन क्या कर रहा है।
अश्विनी कुमार श्रीवास्तव-
अफगानिस्तान से सेना वापसी करके तालिबान को सत्ता परोस देने के मूर्खतापूर्ण फैसले के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन का न सिर्फ अमेरिका में विरोध हो रहा है बल्कि पूरी दुनिया में बिडेन और अमेरिका की खिल्ली उड़ाई जा रही है.
इससे घबराकर बिडेन अभी कुछ देर में अफगानिस्तान मसले पर राष्ट्र को संबोधित करने वाले हैं. लेकिन अब पछताए होत क्या , जब चिड़िया चुग गई खेत की कहावत यहां सच साबित हो रही है. बिडेन अब लाख लीपापोती कर लें लेकिन अपने इस फैसले से उन्होंने इतिहास में अपना नाम अमेरिका की जग हंसाई कराने वाले राष्ट्रपतियों में संभवतः सबसे ऊपर लिखा लिया है.
चीन और पाकिस्तान को तो मानों मुंह मांगी मुराद ही मिल गई है. अमेरिका ने अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार कर अपने चिर प्रतिद्वंद्वी चीन के लिए अफगानिस्तान और पाकिस्तान की मदद से दक्षिण एशिया में खेलने के लिए खुला मैदान छोड़ दिया है. यहां अब चीन को चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा क्योंकि अमेरिकी सेना के हटते ही चीन और पाकिस्तान की शह पर तालिबान अब पूरे दक्षिण एशिया को बेस बनाकर दुनिया में दूर-दूर तक अमेरिका, यूरोप, इजरायल और भारत के लिए खासे मसले खड़े करने वाला है. पाकिस्तान तो काफी पहले ही अमेरिका का साथ छोड़ कर चीन के पाले में आ चुका है.
विदेश नीति पर इतनी बड़ी चूक करके बिडेन ने अपनी साख पर बहुत बड़ा बट्टा लगा लिया है. अब अपने इस संबोधन में बिडेन कुछ भी कहें या कितनी भी सफाई पेश करें, तीर कमान से निकल चुका है…. और यह तीर भविष्य में खुद अमेरिका को ही बड़ा नुकसान पहुंचाने वाला है….
डोनाल्ड ट्रंप का जाना अमेरिका के लिए शायद ठीक साबित हो रहा हो मगर दुनिया और खासतौर पर भारत को तो इस बदलाव से बहुत बड़ा नुकसान होना शुरू हो गया है।
इस नुकसान की वजह नए राष्ट्रपति जो बिडेन का वह फैसला है, जिसके तहत अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुला ली है। सेना बुलाने के चंद ही रोज बाद अब वहां तालिबानी हुकूमत फिर कायम हो गई है।
यह दुनिया जानती है कि अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता आते ही वह कट्टरपंथी इस्लामी उग्रवादियों का गढ़ बन जाता है, जिसका फायदा पाकिस्तान भी भारत से अपनी दुश्मनी निपटाने के लिए उठाने लगता है।
ऐसे में अगर यह कहा जाए कि भारत एक बार फिर से अफगानिस्तान की तालिबानी हुकूमत और पाकिस्तान के गठजोड़ के कारण उग्रवादी हमलों की जद में आने जा रहा है तो यह बयान कोरी कल्पना या अटकलबाजी नहीं बल्कि बहुत बड़ा वास्तविक खतरा ही माना जाएगा।
साल 2001 में अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के तुरंत बाद से ही अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना के पहुंचने का फायदा भारत को भी हुआ था, जो कि 2001 से पहले अफगानिस्तान और पाकिस्तान के आतंकवादी गठजोड़ का कहर दशकों से झेल रहा था।
अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान में पहुंचने के बाद न सिर्फ अमेरिका और बाकी दुनिया ने बल्कि उन सभी से कहीं ज्यादा भारत ने राहत की सांस ली थी। अब जबकि तालिबान वहां फिर से काबिज हो गया है तो अमेरिका, यूरोप और इजरायल समेत बाकी दुनिया के लिए आफत कुछ देर से शुरू होगी लेकिन भारत पर इसका सीधा असर तत्काल ही दिखने लगेगा।
चूंकि भारत का टकराव पिछले कुछ बरसों से चीन से गहरा हुआ है और चीन- पाकिस्तान की दोस्ती भी गाढ़ी हो गई है तो भारत को अब न सिर्फ चीन और पाकिस्तान से निपटना होगा बल्कि अब भारत को अफगानिस्तान की तालिबानी हुकूमत की सरपरस्ती में पल रहे उग्रवाद का भी सामना करना होगा।
भारत के लिए यह स्थिति बेहद खतरनाक है। भारत के दो खुले दुश्मन दो पड़ोसी मुल्क तो हैं ही, तालिबान की सरपरस्ती में भारत के लिए उग्रवादी संगठनों के रूप में अदृश्य दुश्मन भी देश के हर हिस्से में वार करने की फिराक में जुट जाएंगे।
भारत, अमेरिका, रूस या यूरोप में किसी उदार धर्मनिरपेक्ष, शांतिप्रिय और खुशहाल देश में बैठकर अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी को इस्लाम का राज बताकर खुश हो रहे मुसलमान काश अफगानिस्तान में ही रह रहे होते. तब कहीं जाकर वह इस सवाल का जवाब दे पाते कि कट्टर इस्लाम का अफगानिस्तान जैसा राज अगर इतना ही जरूरी और बेहतरीन है तो खुद अफगानिस्तान के स्थानीय मुसलमान वहां से किसी और देश भागने के लिए अफरातफरी क्यों मचाए हुए हैं?
अफगानिस्तान में इस वक्त हालात यह हैं कि जो वहां से निकल कर किसी शांतिप्रिय देश में जाने में सक्षम है, वह या तो अब भाग चुका है या भागने की फिराक में है.
तालिबान के इस बेहतरीन कट्टर इस्लामी शासन के लिए बस वही प्रजा बची रह जाने वाली है, जो किसी मजबूरी के चलते अफगानिस्तान से भाग नहीं सकती…. या किसी न किसी रूप में तालिबान से जुड़ी है.
दुनिया में मुस्लिम देशों की तादाद बहुत ज्यादा है फिर भी तालिबान और उसके समर्थक कट्टर मुसलमानों को लगता है कि अफगानिस्तान जैसा हाल जब तक सभी मुस्लिम देशों का न हो जाए, तब तक उन मुस्लिम देशों का शासन भी इस्लामी नहीं माना जा सकता.
ऐसा सपना देखने वाले मुसलमान सबसे ज्यादा उन्हीं देशों के हैं, जहां सभ्य, धर्मनिरपेक्ष, कानून पसंद, शांतिप्रिय समाज रहता है. जाहिर है, खुद वह ऐसे देशों में खुशहाल हैं इसलिए पूरी संभावना है कि इन मुसलमानों को अगर तालिबान की नई सरकार फ्री में जमीन/ मकान या नौकरी देकर परिवार समेत अफगानिस्तान में आकर बसने को कहे तो शायद ही 10 परसेंट मुसलमान यह तोहफा कुबूल करें.
इसके बावजूद, अफगानिस्तान के मुसलमान बंदूक और आतंक के दम पर आए इस तालिबानी शासन में खुश हैं या नहीं, यह दूसरे देशों में बसे ऐसे मुसलमानों के लिए मायने नहीं रखता. उन्हें तो बस इस बात की तसल्ली है कि इस धरती पर किसी देश में तो कट्टर इस्लामी शासन कायम हो गया है. काश तालिबान का समर्थन कर रहे दुनिया के हर मुसलमान को तालिबानी अफगानिस्तान में ही जाकर बसने का सौभाग्य मिल सके…. तब ही कहीं जाकर इस सत्ता पलट का सही मतलब इन्हें समझ आएगा…
तकरीबन 20 साल तक मुट्ठी भर अमेरिकी फौजों के डर से अपने ही देश में दुबका रहा तालिबान अमेरिकी फौजों के जाते ही अफगानिस्तान में आज फिर से काबिज हो गया है। इधर, भारत में ज्यादातर आम लोगों के लिए इस घटना की कोई अहमियत नहीं है क्योंकि उन्हें अफगानिस्तान अपने देश से काफी दूर लगता है।
जबकि पाकिस्तान की सरकार और फौज की मदद से पाकिस्तान के ही रास्ते आतंकवादी दस्ते अफगानिस्तान से भारत में बड़ी आसानी से आकर आतंकवादी हमले करते रहे हैं। इस्लामी आतंकवाद का वह हिंसक दौर भारत दशकों तक झेल चुका है। लिहाजा अफगानिस्तान में आज हुआ यह सत्ता पलट भारत में एक बार फिर उग्रवादी हमलों की झड़ी लगा सकता है, यह वह सच्चाई है, जिसे जितना जल्दी भारत समझ जाए, उतना ही बेहतर होगा।
सभी जानते हैं कि आज ही के दिन 1947 में आजादी मिलने के एक दिन पहले 14 अगस्त को भारत और अफगानिस्तान के बीच पाकिस्तान का वजूद आ गया था। चूंकि पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर की सीमा के अलावा भारत की कोई भी सीमा अफ़गानिस्तान से सीधे तौर पर नहीं लगती इसलिए भारत में आम लोग अफगानिस्तान में तालिबानी शासन की वापसी पर चिंतित नहीं हैं। भारत सरकार जरूर पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को अपना ही मानती है इसलिए नक्शे पर भारत की सीमा से सटे देशों में अफगानिस्तान की गिनती भी तकनीकी रूप से आज भी की जाती है। हालांकि उस सीमा की लंबाई भी मात्र 106 किलोमीटर ही है।
जबकि बंटवारे से पहले भारत और अफगानिस्तान की सीमा की लंबाई 2670 किलोमीटर थी, जिसे अब पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा के बंटवारे की लाइन ‘ डूरंड लाइन‘ के नाम से जाना जाता है। पाकिस्तान खुद मुहम्मद अली जिन्ना के कट्टर इस्लाम के द्विराष्ट्र सिद्धांत के कारण अस्तित्व में आया है लिहाजा इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही अफगानिस्तान में हुए सत्ता पलट को देखा जाना चाहिए।
आज का सत्ता पलट कट्टर इस्लामी राज्य की अवधारणा पर हुआ है तो कट्टर इस्लामी अवधारणा से ही पाकिस्तान भी पैदा हुआ है। इस्लाम की कट्टरता की डोर से बंधे पाकिस्तान और अफगानिस्तान के नए हुक्मरान तालिबान के बीच वैसे भी बहुत पुराना और गहरा याराना रहा है। यही वजह थी कि तालिबानी राज में अफगानिस्तान में जड़ें जमाकर अमेरिका, यूरोप समेत पूरी दुनिया में इस्लामी उग्रवाद के हमलों की झड़ी लगा देने वाले अल कायदा और उसके संस्थापक लादेन को पाकिस्तान ने अमेरिका से बरसों तक बचाए रखा।
अब जबकि अमेरिकी फौज फिर सुदूर अपने देश में लौट गई है, अफगानिस्तान में फिर से लादेन और तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर जैसे कट्टरपंथी और उग्रवादी नेताओं की नई फसल पैदा होने वाली है, जिसे बचाने और फलने- फूलने में पहले की ही तरह पाकिस्तान ही अहम भूमिका निभाने वाला है।
यदि सब कुछ पुराने तालिबानी दौर जैसा ही हो गया तो इस बार यह पहले से कहीं ज्यादा खौफनाक भी साबित होगा, इसमें भी कोई संदेह नहीं होना चाहिए। वह इसलिए क्योंकि इस बार तालिबान को रोकने वाला फिलहाल कोई दूर दूर तक नहीं दिख रहा है….
प्रकाश के रे-
ओसामा बिन लादेन के बाद अमेरिका के हिट लिस्ट में दूसरे पायदान पर रहे गुलबुद्दीन हिकमतयार भी उस टीम में हैं, जो पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने पूर्व विदेश मंत्री एवं रिकंसेलिएशन काउंसिल के प्रमुख अब्दुल्ला अब्दुल्ला के साथ बनायी है, जो अगली सरकार के गठन के बारे में तालिबान से बातचीत करेगी.
हिकमतयार एक अलग किरदार हैं. ये जब सत्तर के दशक में काबुल विश्वविद्यालय में सक्रिय थे, तब अहमद शाह मसूद भी वहीं थे. हिकमतयार के कट्टर विचारों से मसूद चिढ़ते थे. उस समय हिकमतयार ने मसूद को मारने की कोशिश की थी.
बाद में जब नजीबुल्लाह के जाने के बाद रब्बानी राष्ट्रपति बने, तो हिकमतयार लंबे समय तक काबुल को घेरे रहे और बमबारी करते रहे. शहर को तबाह कर दिया इस आदमी ने. तब रब्बानी और मसूद को इन्हें शहर में आने देना पड़ा. उसी समय उनको बुचर ऑफ़ काबुल का नाम मिला.
रब्बानी सत्तर के दशक में विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर थे और छात्र नेताओं- मसूद व हिकमतयार- के वैचारिक नेता थे. बाद में भी मसूद की इनसे नहीं पटी. वारलॉर्ड हिकमतयार दो बार प्रधानमंत्री बने. अलग अलग मुजाहिद वारलॉर्ड्ज़ की आपसी लड़ाई में काबुल और अन्य जगहों पर बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे. उस समय हिकमतयार पाकिस्तान के कार्ड थे. वही लड़ाई और लूट तालिबान के अस्तित्व में आने का कारण बनी. तालिबानियों के काबुल आने पर हिकमतयार ईरान भाग गए.
करज़ई और अब्दुल्ला पर फिर कभी. बहरहाल, ये तीनों नेता एक-दूसरे से अलग प्रवृत्ति के हैं और देखना दिलचस्प होगा कि यह मामला क्या होता है. मेरे एक वरिष्ठ अंतरराष्ट्रीय पत्रकार मित्र का कहना है कि इनको ‘very Afghaan thing- consensus’ का ज़िम्मा मिला है. मेरा आकलन है कि 19 अगस्त को नयी सरकार अस्तित्व में आ जाएगी. सुरक्षा परिषद की आज की बैठक से भी साफ़ हुआ है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय (माने खिलाड़ी देश) बाधा नहीं बनेंगे.
आर के जैन-
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान और हम !
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी हुकूमत वापस आ गई है । लगभग बीस वर्षों तक अफ़ग़ानिस्तान में रहने के बाद अमेरिका वापस चला गया है और अफ़ग़ानी जनता को तालिबान के रहमोकरम पर छोड़ गया है।
सभी जानते हैं कि तालिबान की पृष्ठभूमि क्या है ? धर्मांन्धता, कट्टर वाद, निरंकुशता और बर्बरता इसकी पहचान है। शांति, सद्भाव और आज़ादी इनके एजेंडा में नहीं है। इनका इतिहास धर्म और जिहाद के नाम पर आतंकवाद को पोसने का है। हमने तो इन्हें अच्छी तरह भुगता है । कश्मीर का आतंकवाद , और कांधार विमान अपहरण कांड हम कैसे भूल सकते हैं ।
तालिबानी शासन के ख़ात्मे के बाद उम्मीद जगी थी कि अफ़ग़ानिस्तान में अब शांति क़ायम हो जायेगी और अफ़ग़ानी जनता भी धर्मांन्धता और कट्टर वाद से मुक्ति पाकर दुनिया के साथ कदम मिला कर चल सकेगी। इस दौर में अफ़ग़ानिस्तान के नव निर्माण के लिये विश्व के कई देशों द्वारा दिल खोलकर मदद की जा रही थी । हमने भी लगभग 23000 करोड़ रूपये व्यय कर कई परियोजनाऐ वहॉ लगाई है। अफ़ग़ानिस्तान में शिक्षा, स्वास्थ्य, और मूलभूत सुविधाओं पर हमने दिल खोलकर मदद की है ताकि हमारा एक पड़ोसी देश अपने पैरों पर खड़ा हो सके।
अमेरिका के जाने के तुरंत बाद जिस तेज़ी से तालिबान ने अपने पैर पसारे है और वहॉ की सरकार , सेना और आम जनता ने जिस तरह समर्पण किया है वह चौंकाने वाला है । समझ में नहीं आता कि इनका मनोबल अमेरिका के जाते ही कैसे रेत से बनी इमारत की तरह ढह गया । अफ़ग़ानिस्तान की आबादी लगभग 3.80 करोड़ है , जबकि तालिबान लड़ाकों की वर्तमान संख्या एक अनुमान के अनुसार 2.00 लाख तक पहुँच गई है जो कुछ वर्षों पहले तक 10 हज़ार तक सिमट गई थी । ज़ाहिर है कि तालिबानी चुपचाप अपनी ताक़त बढ़ा रहे थे जिसकी जानकारी न अफ़ग़ानिस्तान सरकार को थी और न ही अमेरिका को । अफ़ग़ानिस्तान के नागरिक आमतौर पर बहादुर व लड़ाके होते है, तो क्या यह माना जाये कि अफ़ग़ानिस्तान का बहुमत तालिबानी हुकूमत को पसंद करता है जिस कारण बिना किसी प्रतिरोध के उनके समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया ।
अभी कुछ दिन पहले ही अफ़ग़ानिस्तान की सरकार ने भारत से यह गुहार लगाई थी कि वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर इस मामले को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में एक आपात बैठक बुलाकर उठाये क्योंकि वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता भारत के पास है। आज अफ़ग़ानिस्तान जिस मोड़ पर है , यह ज़रूरी है कि पूरी दुनिया उसकी स्थिति पर विचार करें कि क्या अफ़ग़ानिस्तान को फिर धर्मांन्धता के दलदल में धकेलना है या अफ़ग़ानियों को भी चैन से जीने का हक़ है । अफ़ग़ानिस्तान सरकार ने भारत से यह उम्मीद भी जताई थी कि भारत अमेरिका सहित अन्य देशों को राज़ी करें कि ताकि अफ़ग़ानियों को भी एक शांत व सुरक्षित भविष्य नसीब हो सके। अफ़ग़ानिस्तान में यदि निरंकुशता बढ़ी तो आतंकवाद दुनिया के लिये फिर बड़ा ख़तरा बन जायेगा।
भारत के सुरक्षा परिषद के राजदूत श्री टीएस तिरू मूर्ति साहब ने कहा भी था कि अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति पूरी दुनिया के लिये गहरी चिंता का विषय है और हम अफ़ग़ानिस्तान में आतंकी शिविरों को फिर से पनपने नहीं दे सकते , क्योंकि इसका सीधा असर भारत पर पड़ेगा। उन्होंने यह भी कहा था कि हम एक स्वतंत्र, शांतिपूर्ण, लोकतान्त्रिक, और स्थिर अफ़ग़ानिस्तान देखना चाहते हैं तथा भारत ने अफ़ग़ानियों के शांति, सुरक्षा और स्थिरता के हर प्रयास का समर्थन किया है और अब पूरे विश्व को इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है।
मैं नहीं जानता कि अफ़ग़ानिस्तान के मसले पर संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद द्वारा कोई विचार किया गया है नहीं पर मैं समझता हूँ कि पूरी विश्व बिरादरी अफ़ग़ानिस्तान के मामले पर तटस्थ हो गई है और wait & watch वाली दुविधा में है।
दरअसल दुनिया में जितने भी कट्टर पंथी संगठन है उनकी पहली शिकार महिलायें होती है । कट्टर पंथी संगठन महिलाओं की आज़ादी, शिक्षा और उनकी आत्म निर्भरता के सख़्त विरोधी होते है । महिलाऐ इनके लिये एक भोग विलास की वस्तु से ज़्यादा कुछ नहीं होती । तालिबान के शासन में वहॉ की महिलाओं को ही इनके अत्याचार, दमन और शोषण का सामना करना पड़ेगा यह भी हक़ीक़त है और उनकी रक्षा के लिये न कोई भाई आयेगा , न ही कोई बाप और न ही कोई समाज । जो भी उनके लिये आवाज़ उठायेगा , उसे मज़हब का दुश्मन बताते हुऐ मार दिया जायेगा ।
जहॉ तक मैं समझता हूँ कि तालिबानी शासन का समर्थन कोई शांति प्रिय , नागरिकों की आज़ादी का समर्थक कर ही नहीं सकता क्योंकि जिस शासन की बुनियाद ही हिंसा, नफ़रत और कट्टरता हो वह कभी अपने नागरिकों को आज़ादी, समानता, अधिकार और शांति दे ही नहीं सकता। हिंसा ,नफ़रत तथा धार्मिक कट्टरता से प्राप्त सत्ता पूरी तरह निरंकुश और अराजक होती है।
अफ़ग़ानिस्तान की जनता के लिये हम सिर्फ़ दुआये ही कर सकते हैं और उम्मीद कर सकते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान की जनता को एक शांत, स्थिर,लोकतांत्रिक और सुरक्षित देश मिल सके ताकि वह अपने भविष्य का निर्माण कर सके।