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श्रद्धांजलि : कैंसर से पंजा लड़ाते हुए अमरेंद्र कुमार ने पत्रकार की तरह जीना नहीं छोड़ा

अमरेंद्र कुमार


वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र कुमार अब हमारे बीच नहीं हैं। 10 मई, 1945 को जन्मे इस शख्स ने 13 दिसंबर, 2014 को आखिरी सांस ली। जब भारत आजादी के करीब पहुंच रहा था तो उसी दौरान अमरेंद्र कुमार का जन्म बिहार के सासाराम में हुआ। जब वे अपने पैरों पर खड़े हो कर चलना शुरू ही किए थे तो भारत स्वतंत्र देश बन चुका था। और स्वाभाविक तौर पर, उनमें स्वतंत्र खयाल कूट कूट कर भरा हुआ था। स्वतंत्र खयालों के होने की वज़ह से उन्होंने जिंदगी को अपनी तरह से जीया और परिस्थितियों के साथ समझौता नहीं करने की उनकी जिद्द ने कई बार उनका माली नुकसान भी कराया। मगर, जो विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता रखते हैं, वे नफे नुकसान का कभी खयाल कहां रखते और ये सारी बातें उनके व्यवहारों और कार्यप्रणालियों में साफ देखने को मिलता था।

अमरेंद्र कुमार


वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र कुमार अब हमारे बीच नहीं हैं। 10 मई, 1945 को जन्मे इस शख्स ने 13 दिसंबर, 2014 को आखिरी सांस ली। जब भारत आजादी के करीब पहुंच रहा था तो उसी दौरान अमरेंद्र कुमार का जन्म बिहार के सासाराम में हुआ। जब वे अपने पैरों पर खड़े हो कर चलना शुरू ही किए थे तो भारत स्वतंत्र देश बन चुका था। और स्वाभाविक तौर पर, उनमें स्वतंत्र खयाल कूट कूट कर भरा हुआ था। स्वतंत्र खयालों के होने की वज़ह से उन्होंने जिंदगी को अपनी तरह से जीया और परिस्थितियों के साथ समझौता नहीं करने की उनकी जिद्द ने कई बार उनका माली नुकसान भी कराया। मगर, जो विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता रखते हैं, वे नफे नुकसान का कभी खयाल कहां रखते और ये सारी बातें उनके व्यवहारों और कार्यप्रणालियों में साफ देखने को मिलता था।

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पत्रकार बनने की इच्छा तो उन्हें बहुत बाद में पैदा हुई। उन्होंने तो बाकायदा काॅलेज में पढ़ाना लिखाना भी शुरू कर दिया था। मगर, जवाहर लाल नेहरू काॅलेज, डिहरी आॅन-सोन में साढ़े चार साल तक काम करने के बाद वह दायरा उन्हें छोटा लगने लगा और अपने ज्ञान और विज्ञान को प्रसार देने के लिए उन्होंने पत्रकारिता को पेशे के तौर पर चुनने का ऐलान किया। रास्ता मुश्किलों भरा था, घर परिवार में विरोधी स्वर भी मुखर हुए, लेकिन अपनी मुखरता के लिए मशहूर अमरेंद्र जी ने पीछे मुड़ने से साफ मना कर दिया।

शुरुआत भी गजब तरीके से हुई। अपने दम पर अखबार निकालने का फैसला कोई हंसी ठट्ठा का काम तो था नहीं। मगर, जिनके इरादे बुलंद होते हैं वे नतीजों के बारे में पहले से विचार कहां करते, सो अपने ही तरह के विचारों से ओतप्रोत ‘जन बिक्रांत’ नाम के अखबार को निकालने का फैसला किया। ये उनकी प्रतिभा का ही असर था कि बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद उनके अखबार का उद्घाटन करने के लिए तैयार हो गए। अखबार निकला और जब तक निकाला, ताल ठोंक कर अपनी मौजूदगी का अहसास कराता रहा।

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मगर, आर्थिक मुश्किलों का सामना ना तो जज्बातों से किया जाता है और ना विचारों से। अखबार निकलना बंद हो गया। अब रोजगार की नई समस्या खड़ी हो गई। मगर, अमरेंद्र जी इस बात से अच्छी तरह वाकि़फ थे कि जब एक रास्ता बंद होता है तो दूसरा अपने आप खुल जाता है और खास कर तब जब आप में कुछ कर गुजरने का दमखम हो। हुआ भी वही, पटना से प्रकाशित होने वाले प्रतिष्ठित अखबार ‘आज’ के संपादक ने उन्हें मिलने का आमंत्रण भेजा और शुरू हो गई एक नई यात्रा। बतौर न्यूज एडिटर तक का सफर पूरा करने के बाद उन्होंने दिल्ली की ओर रूख किया और राष्ट्रीय अखबार ‘राष्ट्रीय सहारा’ के मुख्य पृष्ठ के इंचार्ज बना दिए गए।

बिहार के एक छोटे से जिले से अपना पत्रकारिता का करियर शुरू करने वाले अमरेंद्र जी की ये उन बड़ी उपलब्धियों में शामिल नहीं है जो उन्होंने बाद के दौर में इस क्षेत्र में अपनी लेखनी के जरिए योगदान दिया। ‘युग’ नाम का पाक्षिक पत्रिका उनके संपादकत्व में लंबे समय तक दिल्ली से प्रकाशित होता रहा। जब तक वे इस पत्रिका में रहे, पत्रिका युगांतकारी साबित हुई।  इसके बाद उन्होंने वाईएमसीए में पत्रकारों को बनाने का फैसला किया। यहां पर नए-नए छात्रों से रूबरू होने के बाद पहली बार उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि नई पीढ़ी भाषा के स्तर पर काफी पिछड़ी हुई है और जब तक भाषा में सुधार नहीं होता, पत्रकारिता के मानक स्तर बिखर कर रह जाएंगे। सो, उन्होंने भाषा को बेहतर बनाने के लिए किताबें लिखनी शुरू कर दी।

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21वीं सदी और हिंदी पत्रकारिता, पत्रकारिता के अश्वथामा (उपन्यास), हिंदी पत्रकारिता के अध्ययन अध्यापन में मील का पत्थर साबित हो रहा है। कई सारे अन्य किताबों में कस्बानामा (कथा रिपोर्ताज), कविता संग्रह कतरन, कहानी संग्रह-यहां वहां, व्यंग्य संग्रह-दूसरों के जरिए, जो है सो, सुन मेरे बंधु रे, अक्षरों की मछलियां (कहानी संग्रह), लड़की देखेंगे (नाटक) शामिल हंै। इन सब मुश्किल कामों को पूरा करते हुए भी वे पत्रकारिता से कभी खुद को अलग नहीं रख सके और व्यस्तताओं के बावजूद उनके स्वतंत्र लेखन का काम अनवरत चलता रहा। तब भी, जब उनके स्वास्थ्य ने उनका साथ देना छोड़ दिया था। कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से पंजा लड़ाते हुए उन्होंने पत्रकार की तरह जीना नहीं छोड़ा। लिखते रहे और बस, लिखते ही रहे। यही तो खयाल था, जो उन्हें स्वतंत्र खयालों वाला बनाए हुए था।

अब, वे हमारे बीच सशरीर नहीं हैं। मगर, उनके शब्द, उनके ज्ञान, उनकी प्रेरणा स्त्रोत बातें, उनके साथ बिताए लंबा वक़्त, उनकी यादें, उनकी बातें-सब कुछ जेहन में रचा बसा हुआ है। उनकी खामोशी सालती जरूर है मगर, उनकी यादें, उनके होने का हर पल ये अहसास कराती है कि जैसे वे कह रहें हों कि जला तो सिर्फ शरीर ही है। शरीर का जल जाना एक क्रिया मात्र है। जीवन यहीं खत्म नहीं होती। आज भी हम साथ साथ हैं।

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युवा लेखक अमित कुमार से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. Sujeet Kumar

    December 17, 2014 at 2:46 pm

    Excellent writing by Amit Kumar about a person whom he was extremely close.

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