पहले प्रदीप संगम, फिर ओम प्रकाश तपस और अब संतोष तिवारी का जाना….

एक दुर्भाग्यपूर्ण संयोग या दुर्योग, जो कहिए… मेरे ज्यादातर प्रिय पत्रकारों का समुदाय धीरे-धीरे सिकुड़ता छोटा होता जा रहा है… दो-तीन साल के भीतर एकदम से कई जनों का साथ छोड़कर इस संसार को अलविदा कह जाना मेरे लिए स्तब्धकारी है… पहले आलोक तोमर, फिर प्रदीप संगम, उसके बाद ओमप्रकाश तपस और अब संतोष तिवारी… असामयिक रणछोड़ कर चले जाना या जीवन के खेल में आउट हो जाना हर बार मुझे भीतर तक मर्माहत कर गया… सारे पत्रकारों से मैं घर तक जुड़ा था और प्यार दुलार का नाता बहुत हद तक स्नेहमय सा बन गया था… इनका वरिष्ठ होने के बाद भी यह मेरा सौभाग्य रहा कि इन सबों के साथ अपना बोलचाल रहन-सहन स्नेह से भरा रसमय था… कहीं पर कोई औपचारिकता या दिखावापन सा नहीं था… यही कारण रहा कि इनके नहीं होने पर मुझे खुद को समझाने और संभलने में काफी समय लगा…

पत्रकारिता की राह पर शंभूनाथ शुक्ला का सफर… कुछ यादें, कुछ बातें

मैं बनवारी जी से मिलने साढ़े चार सौ किमी की यात्रा तय कर दिल्ली आ गया वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल जब से विजुअल मीडिया का दौर आया है पत्रकारिता एक ग्लैमरस प्रोफेशन बन गया है। पर हमारे समय में दिनमान ही पत्रकारिता का आदर्श हुआ करता था और रघुवीर सहाय हमारे रोल माडल। लेकिन उनकी …

नए और जोखिम प्रयोग क़े लिए याद किए जाएंगे संपादक बच्चन सिंह

वरिष्ठ पत्रकार बच्चन सिंह जी का अवसान हिंदी पत्रकारिता के एक युग का अंत है. बच्चन जी दरअसल पुरानी से लेकर अति आधुनिक पत्रकारिता तक के सफर के युग का  प्रतिनिधित्व करते थे. उन्होंने जो मानक स्थापित किये, वह भाषायी पत्रकारिता के 80 के दशक के बाद के एक सौ संपादक भी मिलकर नहीं कर सकते. पत्रकारिता में जो बदलाव को लेकर जो समझ और अनुमान उन्होंने तीन दशक पहले लगा लिए था, वह आज सामने  है.

श्रद्धांजलि : बच्चन सिंह और खुरदरी चट्टानों की यादें

खुरदरी चट्टान से जीवन पर / आशा के बादल बरसे जरूर हैं। पर नहीं उगा सके / सुख की एक हरी कोपल भी। और… / मैं बांझ चट्टान की तरह / चुपचाप अड़ा रहा, खड़ा रहा। अपने से ही लड़ता रहा / जीत-हार का फैसला किए बिना / मजबूरी की राह चलता रहा…।

एक बर्बाद जीनियस उर्फ ब्रजेश्वर मदान की याद…

Prabhat Ranjan : आज ब्रजेश्वर मदान को कोई याद नहीं करता. वे अपने जमाने के मशहूर फिल्म पत्रकार थे. ‘फ़िल्मी कलियाँ’ के संपादक थे और यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘जंजीर’ की पब्लिसिटी उन्होंने ही की थी. किस्सा यह है वे जासूसी लेखन के बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक के दोस्त थे. दोनों अक्सर शाम को रसरंजन की महफ़िल जमाते थे.

यह तस्वीर मदान साहब की बीमारी के बाद स्वास्थ्य लाभ के समय की है. 

सबसे माफी मांगते अनंत की ओर चले गये नीलाभ जी

Hareprakash Upadhyay : सबसे माफी माँगते हुए अनंत की ओर चले गये नीलाभ जी। बेहद प्रतिभावान-बेचैन, सहृदय लेखक, कवि- अनुवादक! मुझसे तो बहुत नोक-झोक होती थी, मैं उन्हें अंकल कहता था और वे मुझे भतीजा! अंकल! अभी तो कुछ और दौर चलने थे। कुछ और बातें होनी थी। आप तो सबका दिल तोड़ चले गये। पर शिकायतें भी अब किससे और शिकायतों के अब मानी भी क्या! अंकल, हो सके तो हम सबको माफ कर देना। नमन अंकल! श्रद्धांजलि!

सुनील छइयां की याद : मिलना था इत्तेफाक, बिछड़ना नसीब था

सुनील छइयां की तीन तस्वीरें, तीन मुद्राएं… अब यादें शेष!


 

-पारस अमरोही

सुनील छइयां से पहली मुलाकात कब हुई, अब याद नहीं। शायद अमरोहा के किसी
प्रोग्राम में। याद आते हैं सुनील के साथ बिताये दिन। दोनों साथ ही तो
अमर उजाला के मुरादाबाद संस्करण में रहे। सुनील एक पारखी छायाकार थे।
समर्पित। जुझारू। एक विश्वसनीय। इन्सान दोस्त। तब अमर उजाला की मुरादाबाद
ब्यूरो की कमान थी वरिष्ठ पत्रकार उमेश प्रसाद कैरे के हाथों में। अमर
उजाला का मुरादाबाद कार्यालय था-19 सिविल लाइंस यानी कैरे साहब का निवास।
सुनील की पहचान का दायरा मुरादाबाद में किसी भी लोकप्रिय माननीय से
ज्यादा था।

‘द जंगल बुक’ वाले रुडयार्ड किपलिंग तब दी पॉयोनियर इलाहाबाद में असिस्टेण्ट एडिटर थे

Sant Sameer : रुडयार्ड किपलिंग की मशहूर रचना ‘द जंगल बुक’ पर बनी बहुप्रतीक्षित फ़िल्म आज रिलीज हो रही है। बनी कैसी है, यह तो देखने के बाद पता चलेगा, पर इस रिलीज ने रुडयार्ड किपलिंग की याद ज़रूर दिला दी। किपलिंग सन् 1888 और 1889 के दो बरस इलाहाबाद में भी रहे थे। तब वे पॉयोनियर अख़बार में असिस्टेण्ट एडिटर थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सामने ही उनका बंगला था और पास में ही अख़बार का दफ़्तर।

…सुलह होगी पंकजजी, यहां नहीं तो वहां : ओम थानवी

Om Thanvi : परसों की ही बात है। आइआइसी मेन के लाउंज में सुपरवाइजर की मेज के गिर्द हम दोनों अगल-बगल आ खड़े हुए थे। करीब, मगर अबोले। बगल वाले शख्स पंकज सिंह थे। नामवर सिंहजी के सालगिरह समारोह के दिन से हमारी तकरार थी। बहरहाल, परसों हम आमने-सामने होकर भी अपने-अपने घरों को चले गए। पर मुझे वहाँ से निकलते ही लगा कि यहीं अगली दफा हम लोग शायद गले मिल रहे होंगे। क्षणिक तकरार कोई जीवन भर का झगड़ा होती है? आज मैं इलाहाबाद आया। वे पीछे दुनिया छोड़ गए। लगता है अब वहीं मिलेंगे। आज नहीं तो कल।

पंकज सिंह की याद में… Salute to the unsung hero of contemporary Hindi poetry

”कृष्णजी, मैं दिल्ली आ गया हूँ….” 17 दिसम्बर को Pankaj Singh का दूरभाष आया. वे अपने मुल्क़ मुज़फ़्फ़रपुर से आये थे जहां उन्हें कविता के लिये सम्मानित किया गया था. इस पर मैंने कहा- मैं भी अपने देश जा रहा हूँ, लौटकर मुलाक़ात होती है.

मैनेज करने और मैनेज होने वाली पत्रकारिता का यह दौर और आलोक तोमर जी की याद

Ashish Maheshwari : फेसबुक है कि याद दिला देता है… आज जब पत्रकारिता मैनेज करने और मैनेज होने भर का माध्यम बनकर रह गई है ऐसे दौर में आलोक तोमर जी का न होना बेहद सालता है… दिल्ली में करियर के शुरूआती दिनों में फेसबुक के माध्यम से जिस शख्स से परिचय हुआ उनमें आलोक तोमर एक बड़ा नाम हैं ….मेरे पिता के मित्र और वरिष्ठ पत्रकार Hari Joshi ने कभी मुझसे कहा था कि दिल्ली में कोई दिक्कत हो तो आलोक तोमर जी से मिल लेना ….फोन पर बात तो बहुत हुई. मोबाइल पर तबले वाली उनकी कॉलर ट्युन और बेबाक अंदाज से रूबरू हुआ पर दुख इस बात का कि मुलाकात न हो सकी….

जन्मदिन 8 अगस्त पर : राजेन्द्र माथुर की गैरहाजिरी के 25 साल

किसी व्यक्ति के नहीं रहने पर आमतौर पर महसूस किया जाता है कि वो होते तो यह होता, वो होते तो यह नहीं होता और यही खालीपन राजेन्द्र माथुर के जाने के बाद लग रहा है। यूं तो 8 अगस्त को राजेन्द्र माथुर का जन्मदिवस है किन्तु उनके नहीं रहने के पच्चीस बरस की रिक्तता आज भी हिन्दी पत्रकारिता में शिद्दत से महसूस की जाती है। राजेन्द्र माथुर ने हिन्दी पत्रकारिता को जिस ऊंचाई पर पहुंचाया, वह हौसला फिर देखने में नहीं आता है। ऐसा भी नहीं है कि उनके बाद हिन्दी पत्रकारिता को आगे बढ़ाने में किसी ने कमी रखी लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में एक सम्पादक की जो भूमिका उन्होंने गढ़ी, उसका सानी दूसरा कोई नहीं मिलता है। राजेन्द्र माथुर के हिस्से में यह कामयाबी इसलिए भी आती है कि वे अंग्रेजी के विद्वान थे और जिस काल-परिस्थिति में थे, आसानी से अंग्रेजी पत्रकारिता में अपना स्थान बना सकते थे लेकिन हिन्दी के प्रति उनकी समर्पण भावना ने हिन्दी पत्रकारिता को इस सदी का श्रेष्ठ सम्पादक दिया। इस दुनिया से फना हो जाने के 25 बरस बाद भी राजेन्द्र माथुर दीपक की तरह हिन्दी पत्रकारिता की हर पीढ़ी को रोशनी देने का काम कर रहे हैं।

सालों, इतनी जल्‍दी भूल गए… अभी बताता हूं…

Abhishek Srivastava : कुछ लोग जीते-जी पीछा नहीं छोड़ते, लेकिन ऐसे लोग कम हैं जो जाने के बाद भी जबरन अपनी याद दिलाते रहते हैं। मुझे वाकई नहीं याद था कि चार साल पहले 20 मार्च को ही आलोकजी की मौत हुई थी। किसी ने दिन भर याद भी नहीं दिलाया, लेकिन रात ढलते-ढलते आलोकजी ने सोचा, ”सालों, इतनी जल्‍दी भूल गए… अभी बताता हूं।”

विनोद मेहता पत्रकारों को पगार देने के नाम पर बेहद कंजूस थे लेकिन ‘एडिटर’ कुत्तों पर खूब खर्च करते थे

(स्व. विनोद मेहता जी)


Sumant Bhattacharya : विनोद मेहता की रुखसती का मतलब… मैं शायद उन चंद किस्मत वाले पत्रकारों में हूं, जिनका साक्षात्कार विनोद मेहता साहब ने लिया और पत्रकारिता के अपने स्कूल में दाखिला लिया। मैं हिंदी आउटलुक में था और हिंदी आउटलुक को नीलाभ मिश्र साहब देख रहे हैं। वो भी मेरे बेहद पसंदीदा और मेरी नजर में पत्रकारिता के बेहद सम्मानित, काबिल नाम हैं।

विनोद मेहता कहीं आलोक मेहता के भाई तो नहीं हैं?

Sushant Jha : विनोद मेहता से सिर्फ एक बार मिला, वो भी संयोग से। सन् 2004 में IIMC में एडमिशन लेना था, प्रवेश परीक्षा का फार्म खरीद लिया था। एक सज्जन थे जो 1000 रुपये प्रति घंटा विद चाय एंड समोदा कोचिंग करवाते थे। किसी भी कीमत पर IIMC में घुस जाने की जिद ने मुझे नोएडा सेक्टर 30(शायद) के एक सोसाइटी में पहुंचा दिया। सुबह के सात-साढे सात बजे होंगे। हमारी कोचिंग चल ही रही थी, कि कॉलबेल बजा।

प्रताप सोमवंशी ने रिपोर्टरों को बुलाकर कहा- जिन्हें विचार की राजनीति करनी है वे मीडिया छोड़ दें (किस्से अखबारों के : पार्ट-चार)

(सुशील उपाध्याय)


 

मीडिया में विचार की कद्र रही है, ऐसा हमेशा से माना जाता रहा है। इस धंधे में विचार कोई बुरी चीज नहीं रही। एक दौर रहा है जब पूंजीवादी मालिक अपनी दुनिया में रहते थे और अखबारों में वामपंथी रुझान के पत्रकार, संपादक अपना काम करते रहते थे। नई आर्थिक नीतियों के अमल में आने के बाद संभवतः पहली बार मालिकों का ध्यान विचार की तरफ गया। ये दक्षिणपंथ के उभार का दौर था। मालिकों और दक्षिणपंथ के बीच के गठजोड़ ने प्रारंभिक स्तर पर विचार के खिलाफ माहौल बनाना शुरु किया। इसके बाद धीरे-धीरे उन लोगों को दूर किया जाने लगा जो किसी विचार, खासतौर से प्रगतिशील विचार के साथ जुड़े थे। उन्हें सिस्टम के लिए खतरे के तौर पर चिह्नित किया जाने लगा। ढके-छिपे तौर पर पत्रकारों की पृष्ठभूमि की पड़ताल होने लगी। जो कभी जवानी के दिनों में किसी वामपंथी या प्रगतिशील छात्र संगठन से जुड़े रहे थे, उनकी पहचान होने लगी।

मैंने पहली बार अमर उजाला का कंपनी रूप देखा था (किस्से अखबारों के : पार्ट-तीन)

(सुशील उपाध्याय)


भुवनेश जखमोला एक सामान्य परिवार से आया हुआ आम लड़का था। वैसा ही, जैसे कि हम बाकी लोग थे। वो भी उन्हीं सपनों के साथ मीडिया में आया था, जिनके पूरा होने पर सारी दुनिया बदल जाती। कहीं कोई शोषण, उत्पीड़न, गैरबराबरी न रहती। लेकिन, न ऐसा हुआ और न होना था। भुवनेश ने नोएडा में अमर उजाला ज्वाइन किया था। 2005 में उसे देहरादून भेज दिया गया, कुछ महीने बाद भुवनेश को ऋषिकेश जाकर काम करने को कहा गया। उस वक्त भुवनेश की शादी हो चुकी थी। अमर उजाला में काम करते हुए उसे लगभग पांच साल हो गए थे, उसे तब तक पे-रोल पर नहीं लिया गया था। पांच हजार रुपये के मानदेय में वो अपनी नई गृहस्थी को जमाने और चलाने की कोशिश कर रहा था। उसे उम्मीद थी कि एक दिन वह अपने संघर्षाें से पार पा लेगा और जिंदगी की गाड़ी पटरी पर आ जाएगा, लेकिन होना कुछ और था।

भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह का एक पुराना इंटरव्यू

मीडियासाथी डॉट कॉम नामक एक पोर्टल के कर्ताधर्ता महेन्द्र प्रताप सिंह ने 10 मार्च 2011 को भड़ास के संपादक यशवंत सिंह का एक इंटरव्यू अपने पोर्टल पर प्रकाशित किया था. अब यह पोर्टल पाकिस्तानी हैकरों द्वारा हैक किया जा चुका है. पोर्टल पर प्रकाशित इंटरव्यू को हू-ब-हू नीचे दिया जा रहा है ताकि यह ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे और यशवंत के भले-बुरे विचारों से सभी अवगत-परिचित हो सकें.

यशवंत सिंह

 

अतुल माहेश्वरी की चौथी पुण्य तिथि और अमर उजाला से चार दशक से जुड़े एक पत्रकार का दुख

प्रातः स्मरणीय भाई साहब अतुल माहेश्वरी की आज चौथी पुण्य तिथि है। हां हम ‘उन्हें भाई’ साहब नाम से ही पुकारते रहे हैं। अमर उजाला उन्हें ‘नवोन्मेषक’ कहता है। यह उसका विषय है। चौथी पुण्य तिथि पर एक ऐसे व्यक्ति जो इंसानियत की मिसाल हो, जो मनसा, वाचा, कर्मणा पत्रकारिता और अमर उजाला को समर्पित हो, जो अपने कर्मचारियों, छोटे से छोटे हम जैसे कार्यकर्ताओं का भी पूरा-पूरा ध्यान रखते हों, जिन्हें हर स्टेशन का स्टींगर मुंह जुबानी याद हो, जो हर फोन काल को स्वयं रीसिव करते और रीसिव न हो पाने की स्थिति में काल बैक करते, हर पत्र का उत्तर देना मानों उनका अपना दायित्व होता, कोई आमंत्रण हो तो उपस्थित न हो सकने की स्थिति में उसके लिए शुभ कामना का पत्र और किसी कर्मी, कार्यकर्ता के दुख-सुख में ढाल बन समाधान करते ऐसे संपादक को खोने का दुख हम-सा तुच्छ कार्यकर्ता भी महसूस कर सकता है। भाई साहब! आपको अश्रुपूरित श्रद्धांजलि, ईश्वर आपकी आत्मा को शान्ति दे।

श्रद्धांजलि : कैंसर से पंजा लड़ाते हुए अमरेंद्र कुमार ने पत्रकार की तरह जीना नहीं छोड़ा

अमरेंद्र कुमार


वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र कुमार अब हमारे बीच नहीं हैं। 10 मई, 1945 को जन्मे इस शख्स ने 13 दिसंबर, 2014 को आखिरी सांस ली। जब भारत आजादी के करीब पहुंच रहा था तो उसी दौरान अमरेंद्र कुमार का जन्म बिहार के सासाराम में हुआ। जब वे अपने पैरों पर खड़े हो कर चलना शुरू ही किए थे तो भारत स्वतंत्र देश बन चुका था। और स्वाभाविक तौर पर, उनमें स्वतंत्र खयाल कूट कूट कर भरा हुआ था। स्वतंत्र खयालों के होने की वज़ह से उन्होंने जिंदगी को अपनी तरह से जीया और परिस्थितियों के साथ समझौता नहीं करने की उनकी जिद्द ने कई बार उनका माली नुकसान भी कराया। मगर, जो विचारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता रखते हैं, वे नफे नुकसान का कभी खयाल कहां रखते और ये सारी बातें उनके व्यवहारों और कार्यप्रणालियों में साफ देखने को मिलता था।

LAST CHAT WITH AJAY JHA SIR

Dear Yashwant ji,  Still my hands are trembling , am shaken and eyes full of tears. Do not know how am I even writing all this. It feels as he was just there with me. A while ago. On whatsapp, on facebook, on gmail chat, on phone – blessing me from India. Our chat only used to  start with me saying CHARANSPARSH DADA with a reply coming from him many times as KALYANAM ASTU.