अमर उजाला, दैनिक हिंदुस्तान, दैनिक जागरण जैसे अखबरों में दो दशक तक पत्रकारिता करने और आजकल फुल टाइम घुमक्कड़ी व लेखन करने वाले वरिष्ठ पत्रकार व साहित्यकार अनिल यादव को श्रेष्ठ कृति सम्मान ‘शब्द’ दिया गया है. अमर उजाला फाउंडेशन की तरफ से शब्द सम्मान 2018 के तहत अनिल को यह सम्मान कथेतर कैटगरी में मिला है. कल एक समारोह में अनिल को सम्मानित किया गया. अनिल को पहला शब्द सम्मान मिला है. उन्हें देश भर से उनके जानने वाले बधाइयां प्रेषित कर रहे हैं.
अमर उजाला शब्द सम्मान 2018 प्रथम वर्ष के लिए तीसरा श्रेष्ठ कृति सम्मान-छाप कथेतर वर्ग में पत्रकार और लेखक अनिल यादव को उनकी किताब ‘सोनम गुप्ता बेवफा नहीं है’ के लिए दिया गया. दो दशक से ज्यादा समय तक पत्रकार और रिपोर्टर रहे अनिल यादव बेहद संवेदनशील और गंभीर लेखक हैं. इसके पूर्व उनकी दो और किताबें जिनमें एक कहानी संग्रह- ‘नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’ और ‘वह भी कोई देस है महराज’ है, जो चर्चा में रही हैं।
इस मौके पर अमर उजाला की तरफ से अनिल से कई लोगों ने संवाद किया, जिसका कुछ अंश नीचे दिया जा रहा है….
मैं लेखक होने के रास्ते में हूं। उस मोड़ पर जहां सारा रोमांस हवा हो जाता है। एक सतत बेचैनी बाकी सब कुछ को झकझोरते हुए मटमैली आंधी की तरह मन के अंतरिक्ष में फैलती जाती है। लेखन आपके जीवन के पुराने ढर्रे और प्रिय चीजों की कुर्बानी मांगने लगता है। दे सकते हो तो दो और अंधरे में टटोलते, गिरते आगे बढ़ो वरना अपनी डेढ़ किताबों और अपराधबोध के साथ गाल पर उंगली धरे राइटरनुमा पोज देते हुए फोटू खिंचाते रहो। वैसे जियो जैसे कोई प्रेमी बाप के दबाव में दहेज लेकर अनजान सुशील कन्या के साथ जीता है। लिखना एक रहस्यमय काम है, इसलिए उसके बारे में बात करने वाला अक्सर पांच अंधों द्वारा हाथी के वर्णन जैसी मुग्धकारी अबोधता में भटकने लगता है। अगर अपने लेखन पर बोलना हो तो मजा बहुत आता है, लेकिन सामने वाले के हाथ कुछ नहीं लगता। ये दुनिया आदमी के भीतर कैसी अनुभूतियों के रूप में दर्ज हुई है, इसे कागज पर उतार पाना ही लेखन है। बाकी सब सलमे सितारे हैं। दिक्कत यह है कि जिंदगी का चलन लेखन के खिलाफ है। बचपन से हमें सच्चाइयों को भुलाकर खुद को ऐसे व्यक्त करना सिखाया जाता है, जो समाज में सर्वाइवल के लिए जरूरी होता है। इस प्रैक्टिस के कारण हम खुद को ऐसे तहखाने में बंद कर देते हैं, जहां से पूरे जीवन के दौरान पश्चाताप, विस्मय और मृत्यु के एकांत में सिर्फ कुछ घंटों के लिए बाहर आ पाते हैं। मेरे मन में एक लंबी अंधेरी सुरंग है, जिसकी एक दीवार कल्पना और एक दीवार स्मृति से बनी है। सब कुछ इस सुरंग से दिल की धडक़न की लय पर गुजरता है और दूसरे छोर पर बिल्कुल नए रंग रूप में प्रकट होता है। इसी प्रवाह में से मैं लिखने का एक विषय चुनता हूं। अगर विषय में इतना दम है कि वह मेरी इच्छा शक्ति का स्विच ऑन कर काम पर लगा सके, तो लिखा जाता है वरना वापस उसी सुरंग में समा जाता है। जब अलहदापन के कारण अच्छे विषय का दम घुटने लगता है, तो वह फंतासी की लंबी रील में बदलकर सोने नहीं देता। अक्सर एक बिंब आता है कि मैंने एक पूरा उपन्यास मन से सरकाकर हाथ की उंगलियों के पोरों पर एकत्रित कर लिया है। एक योगी की एकाग्रता से खुद को संयोजित कर मैं कंप्यूटर के की-बोर्ड पर पंखों से फडफ़ड़ाते हाथ सिर्फ दो बार रखता हूं और सामने स्क्रीन पर अक्षर मधुमक्खियों की तरह उड़ते हैं, जो जरा सी देर में किताब में बदल जाते हैं। जिस विषय के साथ ऐसा होता है, मैं समझ जाता हूं- यह कभी नहीं लिखा जाएगा।-अनिल यादव