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सुख-दुख

कोई परिवार किसी बाबा या साध्वी की शरण में क्यों जाता है?

चंद्रभूषण-

पंथियों से लोग जुड़ते ही क्यों हैं… कोई परिवार किसी बाबा या साध्वी की शरण में क्यों जाता है, यह लंबे समय से मेरे लिए उत्सुकता का विषय बना हुआ है। मेरे परिचय के दायरे में इस तरह के व्यक्ति जरूर हैं, पूरे के पूरे परिवार नहीं। लेकिन इस मामले में मैं अपने दायरे को प्रतिनिधि या प्रामाणिक नहीं मानता। देश भर में कल्ट नुमा फॉलोइंग वाले बाबाओं और साध्वियों की संख्या लाखों में न सही हजारों में तो है ही। औसतन दो-तीन हजार परिवार भी एक कल्ट से जुड़े हों तो नतीजा यह निकलता है कि भारत के एकाध करोड़ परिवार पारंपरिक देवी-देवताओं या अन्य संगठित धर्मों के समानांतर या उनके साथ-साथ किसी न किसी व्यक्ति आधारित पंथ को मानते हैं।

ऐसे में इस तरह का कोई परिवार मेरे संपर्क में है या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है? जरूरत इन पंथों के कामकाज और इनसे लोगों के जुड़ाव का बुनियादी तर्क समझने की है। यह जानने की कोशिश भी की जानी चाहिए कि जिन वजहों से ये लोग किसी पंथ के साथ जुड़ते हैं, उनका कोई निदान क्या हमारी सामाजिक, धार्मिक व्यवस्था में संभव है। बलात्कार के आरोप में आजीवन कारावास की सजा पाने के बाद आसाराम बापू पिछले कुछ सालों से चर्चा में आते-जाते रहते हैं तो कुछ बात उनसे जुड़े अपने एक परिचित की करता हूं, जो बड़े तार्किक, दुनियादार और मददगार किस्म के इंसान हैं।

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कम्यूनिटी सेंस

इतने सारे हंगामे के बावजूद अपने गुरु के प्रति उनकी श्रद्धा हाल-हाल तक अक्षुण्ण थी। सारी ले-दे हो चुकने पर बापूजी के जेल चले जाने के बाद श्रद्धा के स्वरूप में कोई फर्क आया है या नहीं, यह शायद किसी अंतरंग बातचीत के बाद ही जान पाऊं। वे पर्सनल फाइनेंस के जानकार हैं और अभी अत्यंत सफलतापूर्वक एक निजी कंपनी बनाकर इसी काम में जुटे हुए हैं। लेकिन नब्बे के दशक तक वे एक बैंक में नौकरी करते थे और वहां शेयर कारोबार के सम्मोहन में फंसकर बर्बादी के कगार पर पहुंच गए थे। उनका कहना है कि उसी दौर में उनका संपर्क बापूजी से हुआ और उन्होंने अपनी सारी चिंताएं प्रभु को अर्पित करके वर्तमान में जीने की सीख उनको दी।

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इसका लाभ यह हुआ कि अपनी सारी संपदा लुटाकर बेरोजगारी की स्थिति में पहुंचे मेरे परिचित ने निर्विकार भाव से एलआईसी एजेंट और बैंकों से हाउसिंग लोन कराने का काम पकड़ लिया। शेयर वे कई साल तक सिर्फ दीवाली को बापूजी के नाम पर खरीदते रहे। इस संकल्प के साथ कि नुकसान होगा तो अपना, फायदा होगा तो बापूजी का और अपना आधा-आधा। उनसे बातचीत के क्रम में ही पता चला कि आसाराम बापू के लाखों अनुयायियों में एक किस्म का कम्यूनिटी सेंस है। आपसी भरोसे को आधार बनाकर वे शादी-ब्याह से लेकर कारोबार तक तमाम मामलों में एक-दूसरे की मदद करते हैं। इसका कारोबारी महत्व जगजाहिर है।

यह समुदाय-बोध, यह भरोसा हर इलाके में समय-समय पर होने वाले आयोजनों के जरिये बनता है, जिनमें समुदाय प्रमुख के वीडियो चलते हैं, संगीत बजता है और पूरे परिवार की एक आत्मीय आउटिंग जैसी हो जाती है। ईसाइयत में यह काम काफी हद तक चर्च में होने वाले संडे-मास के रूप में होता आया है। इस्लाम में जुमे के दिन बड़े पैमाने की नमाज में पूरा परिवार न सही, कम से कम पुरुष एक-दूसरे से मिल लेते हैं। हिंदू धर्म में उत्तर भारतीय परिवारों में मंगल और शनिवार की शामों में हनुमान मंदिर जाना इसके करीब की चीज मानी जा सकती है, लेकिन अभी यह प्रसाद चढ़ाने-खाने तक ही सिमट गया है, पारिवारिक मेल-मिलाप की गुंजाइश बहुत कम है।

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आध्यात्मिक पुकार

पंथों से जुड़ाव का एक छोर मेरी एक अत्यंत निकटवर्ती बुजुर्ग रिश्तेदार से भी जुड़ा है, लेकिन उसका स्वरूप दुनियादारी की तुलना में ज्यादा आध्यात्मिक है। बाल योगेश्वर वाले पंथ के साथ उनके पतिदेव का जुड़ाव अस्सी के दशक के अंत में बना। फिर दसेक साल बाद पति की और बीसेक साल बाद अकेले बेटे की अकाल मृत्यु हुई। इन आघातों के बीच उन्हें स्थितिप्रज्ञ देखकर मैं आज भी चकित रह जाता हूं। अपने बिखरते परिवार को उन्होंने न केवल अपने दम पर संभाल लिया बल्कि औरों के लिए भी प्रेरणास्रोत की भूमिका निभाई।

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कह नहीं सकता कि इसमें अपने पंथ से जुड़ाव ने उन्हें कितनी मदद पहुंचाई और किस हद तक उनकी अपनी खुद की मनोवैज्ञानिक बनावट उनके काम आई। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि वे अपने पंथ के प्रति समर्पित हैं। शक्ति भर उसे चंदा देती हैं और उसके आयोजन स्थलों के निर्माण में बढ़-चढ़कर सक्रिय भूमिका निभाती हैं। इन दो उदाहरणों से मुझे यही लगता रहा है कि अस्सी के दशक में धीरे-धीरे और नब्बे के दशक से बाढ़ की तरह उभरे चमक-दमक भरे मुनाफा राज ने ज्यादातर लोगों को अकेला और निहत्था बना दिया है। उनकी यह बौखलाहट धर्म और जाति की राजनीतिक गोलबंदियों में दिखाई पड़ती है, लेकिन इसका एक छोर पंथों के साथ उनके जुड़ाव में भी जाहिर हो रहा है।

निश्चित रूप से परिधि के विश्लेषण के जरिये आप पंथों के केंद्र को नहीं समझ सकते। बिल्कुल संभव है कि वहां कोई ऐसा व्यक्ति या गिरोह बैठा हो, जो खुद उन्हीं धंधों, दुर्गुणों और दुर्व्यवसनों में लिप्त हो, जिनसे निर्लिप्त रहने की उसकी सलाह कई लोगों के जीवन में किसी न किसी अर्थ में मददगार साबित हो रही हो। बताना जरूरी है कि विदेशी शाखाएं अभी हर देसी पंथ की प्राणवायु हैं। उनका उपयोग अगर विदेशी मुद्रा प्राप्त करने में न भी होता हो तो देसी काले को सफेद करने में हो ही जाता है। अंत में एक सलाह कि आपकी आस्था अगर ऐसे किसी पंथ में है तो आप उसे जारी रखें, लेकिन आप पर आंख मूंदकर भरोसा करने वाले परिजनों, खासकर बच्चों पर अपनी मर्जी न थोपें। बाद में पछताने का कोई मौका अगर आता भी है तो इसका जिम्मा अकेले आप पर नहीं आना चाहिए।

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