विनय श्रीकर
ढाई-तीन महीने पहले हिन्दी के महान पत्रकार बाबूराव पराड़कर की जयंती थी। लेकिन हिन्दी के किसी पत्रकार को उनकी याद नहीं आयी। हिन्दी के किसी अखबार में पराड़कर जी के बारे में मुझे कोई लेख या टिप्पणी देखने को नहीं मिली। खैर, उनका जन्म 16 नवम्बर 1883 को हुआ था। वह वाराणसी के एक जाने-माने शिक्षित परिवार से थे। उनके पिता पंडित विष्णु शास्त्री पराडकर अपने जमाने के धुरंधर विद्वान थे।
बाबूराव जब 15 साल की उम्र के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। जब वह 20 साल के हुए तो उनकी मां भी चल बसीं। सर से मां-बाप का साया हट जाने के कारण वह स्वभाव से अंतर्मुखी हो गये। उनकी स्कूली शिक्षा बिहार के भागलपुर में पूरी हुई। वहां उन्होंने अपने जीवन के बहुत साल गुजारे। आगे की पढाई उन्होंने ट्यूशन करके अर्जित पैसों से की। इसी बीच उन्हें डाक विभाग में नौकरी मिल गयी। लेकिन सरकारी नौकरी में उनका मन नहीं लग रहा था।
1903 में जब बाबूराव 20 साल के थे तभी वह अपने मामा सखाराम गणेश देउस्कर के संपर्क में आये। देउस्कर एक क्रांतिकारी होने के साथ-साथ बंगला भाषा के लेखक भी थे। उस समय देउस्कर लोकमान्य तिलक और अरविन्द घोष जैसे राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों के निकट संपर्क में थे। क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित होकर बाबूराव ने देशसेवा करने की ठान ली और डाक विभाग की नौकरी को अलविदा कह दिया। इसके बाद वह अपने समय के अन्य क्रांतिकारियों के संपर्क में रहने लगे। उन्होंने अपने जीवनयापन के लिए पत्रकारिता का रास्ता चुना।
1906 में वह “हिन्दी बंगवासी” नाम के एक अखबार के सह-संपादक बन गये। 1907 में उन्होंने हितवार्ता का संपादन शुरू किया। 1910 में वह “भारतभूमि “ नाम के अखबार के संपादक-मंडल के सदस्य बने। 1916 में उनके जीवन में एक नया मोड आया। उन्हें हत्या और क्रांतिकारी होने के आरोप में पकडकर साढे तीन साल के लिए जेल में डाल दिया गया। 1920 में जेल से छूटने के बाद वह वाराणसी लौट आये। उसी साल स्वर्गीय शिवप्रसाद गुप्त ने राष्ट्रवादी विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी समाचारपत्र “आज” का प्रकाशन शुरू किया था। बाबूराव पराडकर को “आज” के संपादकीय विभाग में नौकरी मिल गयी। शिवप्रसाद जी से कुछ खटपट हो जाने के कारण उन्होंने आज की नौकरी छोड दी और ‘संसार’ नाम के अखबार में चले गये। लेकिन कुछ ही दिन बाद शिवप्रसाद जी उन्हें मना कर वापस “आज“ में ले आये। इस अखबार से वह जीवन के अंत तक जुडे रहे।
दैनिक ‘आज’ के प्रवेशांक (5 सितंबर, 1920) के संपादकीय में उन्होंने लिखा :
‘हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए सर्व प्रकार से स्वातंत्र्य-उपार्जन है। हम हर बात में स्वतंत्र होना चाहते हैं। हमारा लक्ष्य है कि हम अपने देश के गौरव को बढ़ावें, अपने देशवासियों में स्वाभिमान का संचार करें, उनको ऐसा बनावें कि भारतीय होने का उन्हें अभिमान हो, संकोच न हो। यह अभिमान स्वतंत्रता देवी की उपासना करने से मिलता है।’
हालांकि उस समय की पत्रकारिता साधनों के लिहाज से आज की तुलना में बिल्कुल दरिद्र थी। लेकिन इसके बावजूद पराडकर जी ने हिन्दी पत्रकारिता की जो मजबूत नींव तैयार की वह कमोबेश आज भी कायम है। पराडकर जी मानते थे कि पत्रकारिता को प्रगतिशीलता का वाहक होना चाहिए और पत्रकार को प्रगतिशील। वह समाचार और विचार को अलग-अलग चीज मानते थे। वह कहते थे कि समाचार लिखते समय पत्रकार को अपने विचार को परे रख देना चाहिए। इसी कारण उन्होंने विचार व्यक्त करने के लिए समाचारपत्र में अलग से पेज रखने की परम्परा डाली।
एक अन्य धुरंधर पत्रकार स्वर्गीय बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखा है कि पूरे पचास वर्ष तक समाचारपत्र जगत की निरंतर सेवा करने वाले किसी दूसरे हिंदी पत्रकार का हमें पता नहीं। चतुर्वेदी जी का यह भी कहना है कि पराडकर की पत्रकारिता का मुख्य उद्देश्य था- क्रांतिकारी दल में सम्मिलित होकर देशसेवा करना। हिंदी बंगवासी में सहायक संपादक का कार्य स्वीकारने के पीछे अपने परिवार का खर्च चलाना और पुलिस की नजरों से बचना ही था । वे ‘हितवार्ता’ और ‘भारतमित्र’ के संपादन का दायित्व के साथ-साथ चंदन नगर स्थित क्रांतिकारी दल की गुप्त समिति का काम भी करते थे।
जिस दौरान हितवार्ता में काम कर रहे थे उसी दौरान पराड़कर जी अरविंद घोष के नेशनल कालेज में हिंदी और मराठी का अध्यापन भी किया करते थे। हितवार्ता के मालिकान के दबाव के बावजूद उन्होंने नेशनल कालेज का अध्यापन कार्य नहीं छोड़ा, बल्कि वहीं हिंदी अध्यापन के लिए पंडित अंबिकाप्रसाद वाजपेयी को भी बुला लिया था। लेकिन बाद में जब नेशनल कालेज अंग्रेजी हुकूमत के प्रभावक्षेत्र में आ गया तो उन्हें कालेज छोड़ना पड़ा। पराड़कर जी के जीवनी लेखक लक्ष्मीशंकर व्यास के अनुसार अरविंद घोष का नेशनल कालेज एक प्रकार से तत्कालीन क्रांतिकारियों का प्रधान केंद्र बन गया था।
सन् 1910 में हितवार्ता के प्रकाशन के बंद होने के बाद पराड़कर जी ने भारतमित्र में अंबिकाप्रसाद वाजपेयी के साथ काम करना शुरू कर दिया। उन दोनों भारतमित्र की प्रतिदिन 4000 प्रतियां बिका करती थीं। दुर्भाग्यवश उन्हीं दिनों कोलकाता के तत्कालीन डिप्टी पुलिस सुपरिंटेंडेंट की हत्या हो गयी और 1 जुलाई 1916 को क्रांतिकारी दल में कार्य करने के अपराध में पराडकर जी को साढ़े तीन वर्ष का कारावास हो गया। सबूत के अभाव में 1920 में उन्हें जेल से मुक्त कर दिया गया।
काशी में उन दिनों हिंदी साहित्य की अभिवृद्धि के लिए बाबू शिवप्रसाद गुप्त ने ‘ज्ञानमंडल’ की स्थापना की थी। पराड़कर जी ने ज्ञानमंडल से शुरू हुए दैनिक पत्र आज का संपादन-दायित्व संभाल लिया। वह आजीवन इसी अखबार से संबद्ध रहे। पराड़कर जी केवल हिंदी के पत्रकार ही नहीं थे, बल्कि अहिंदीभाषी परिवार में जन्म ले उन्होंने हिंदी को जो समर्थन दिया तथा हिंदी भाषा और साहित्य को अपनी अनवरत साधना के जरिये जो समृद्धि दी, उसके लिए हिंदी संसार उनका हमेशा ऋणी है और रहेगा। उनका कई देशी भाषाओं पर अधिकार था इसलिए हिंदी का वह अधिक उपकार कर सके।
29 अक्तूबर 1930 से 8 मार्च 1931 तक सरकारी नीति के विरोध में संपादकीय स्थल को खाली रखकर उस पर उनका केवल यह वाक्य होता था– ”देश की दरिद्रता, विदेश जाने वाली लक्ष्मी, सिर पर बरसाने वाली लाठियाँ , देशभक्तों से भरनेवाले कारागार– इन सबको देखकर प्रत्येक देशभक्त के हृदय में जो अहिंसामूलक विचार उत्पन्न हों,वही संपादकीय विचार है।”
लेखक विनय श्रीकर वरिष्ठ पत्रकार हैं और ढेर सारे बड़े हिंदी अखबारों में उच्च पदों पर कार्य कर चुके हैं. उनसे संपर्क उनकी मेल आईडी shrikar.vinay@gmail.com के जरिए या फिर उनके मोबाइल नंबर 9580117092 के माध्यम से किया जा सकता है.