संपादकजी नये—नये आये थे. राजधानी शहर का पहला अनुभव. पहले छुटकनिया शहर में संपादक थे. एक रोज उन्हें हल्के बुखार का अहसास हुआ. रिपोर्टर को उन्होंने फोन किया. रिपोर्टर ने अपने एक दोस्त से कुछ देर के लिए कार देने को कहा. आनन-फानन में डॉक्टर से बात की कि वह अपने संपादक को लेकर आ रहा है. डॉक्टर ने कहा कि आओ लेकर. रिपोर्टर उधार कार लेकर दरवाजे पर पहुंचा कि चलिए सर. संपादकजी हत्थे से उखड़ गये. उनका बुखार और बढ़ गया. बोले कि ठीक होने दो, कल तो बताते हैं तुमको. यही रिपोर्टरी करते हो कि डॉक्टर को घर नहीं बुला सकते. चूतिये होते हैं बिहार के रिपोर्टर. स्साले सब मउगा होते हैं. स्साले की दो कौड़ी की औकात नहीं यहां पत्रकारिता की. ननस्टॉप बकबकाये जा रहे थे संपादकजी.
रिपोर्टर को देखते फिर कहते हैं— तेरी रिपोर्टरी का क्या फायदा. मुझे ठीक होने दो, कल बताता हूं. गाड़ी लेकर आए हो, तुम्हें क्या लगता है कि मैं डॉक्टर के पास जाउंगा. मैं… डॉक्टर के पास जाउंगा. आज तक नहीं गया. डॉक्टर घर आते हैं मेरे. यह भी नहीं कर सकता तो पत्रकारिता काहे लिए कर रहा हूं. शर्म आनी चाहिए तुम्हे—छी—छी… नाम डुबो रहे हो पत्रकारिता का. बेचारा रिपोर्टर वापस लौट गया. संपादकजी कुछ दिनों तक रेस्टमोड में रहें. आफिस आते तब तो उस रिपोर्टर से हिसाब—किताब करते लेकिन इसी बीच उनका कोई खास ट्रेन से आ रहा था.
उन्होंने फिर उसी रिपोर्टर को फोन किया कि सुनो, तुम किसी काम के आदमी तो हो नहीं लेकिन कल स्टेशन पर रहना, मैं भी आउंगा, मेरा दोस्त आ रहा है, उसे लेने जाउंगा. और हां, सीढ़ियों पर ज्यादा भीड़ नहीं होनी चाहिए, याद रखना. रिपोर्टर बेचारा दूध का जला इस बार माठा भी फूंकफूंकाने लगा. उसने स्टेशन पर पूरी सेटिंग कर दी. अधिकारियों—ठेकेदारों—हॉकरों सबको सेट किया. कुछ और लफुओं को भी बोला कि उस वक्त प्लेटफॉर्म पर रहना और मुझे देखते ही नमस्ते—नमस्ते करना सब. वेंडरों—ठेकेदारों को समझाया कि मुझे तो नमस्ते कहना ही, मेरे साथ जो होंगे, उन्हें कई बार नमस्ते—नमस्ते बोलना. बिहार में दारूबंदी के दिन में भी उसने वैकल्पिक तौर पर दारू का इंतजाम किया, क्योंकि पटना स्टेशन के ही बुद्धा फुड प्लाजा में संपादकजी को अपने मित्र के साथ खाने का इंतजाम था और रिपोर्टर जानता था कि उसके संपादक को बिन दारू खाना हजम नहीं होता.
संपादकजी स्टेशन पहुंचे, रिपोर्टर पहले से वहां मौजूद था. प्लेटफार्म पर घूसते ही सारे सेट किये हुए लोग चालू हो गये. दे—दनादन, दे दनादन प्रणाम—नमस्ते. एक आदमी तीन—तीन बार घूम—फिरकर नमस्ते करता. एक दो अधिकारी भी आ गये मिलने. रिपोर्टर ने अपने पैसे से अधिकारियों को गुलाब का फूल खरीदकर दे दिया था कि संपादकजी को नमस्ते कह भेंट कर दीजिएगा. अधिकारियों ने वैसे ही किया. संपादकजी बुखार में रिपोर्टर द्वारा डॉक्टर नहीं बुलाये जा सकने की घटना भूल रहे थे. प्रसन्न थे. बोले रिपोर्टर से गुड— तेरी पकड़ है. वेरी गुड. ट्रेन आयी. संपादकजी का दोस्त उतरा. हाफ पैंट और सैंडो टाइप गंजी पहने. पीठ पर बैग लटकाये. संपादक से हाथ मिलाया. बोला, का बे अईसे राज्य में फंस गये हो जहां सुखाड़ है, दारुए बंद है. स्ससाला हम तो ईहां रह नहीं पायेंगे. एक शादी है अटेंड कर जल्दी भागेंगे. संपादकजी ने बोला—अब्बे संपादक हैं, समझा अब पहिलका बात नहीं रह गया, अब संपादक हो गये हैं. दारू केतनो बंद हो जाएगा, नदी बहा देंगे तेरे लिए. चलो ना अभिये यहीं से शुरू करवाते हैं. दोस्त बोला कि वाह. तु तो बड़ा आदमी बन गया बे.
दोनो होटल पहुंचे. रिपोर्टर ने बैग से दारू का बोतल निकाल दिया. होटलवाले ने मना किया क्या कर रहे हैं, प्लीज ऐसा न कीजिए, यहां नहीं. संपादकजी ने रिपोर्टर की ओर आंखें तरेरकर देखा. रिपोर्टर ने होटल मैनेजर से बात की, आग्रह कर बताया कि संपादक हैं. मैनेजर ने कहा कि उ तो ठीक है बाकि ईहां एकदम संभव नहीं. रेस्टूरेंट की बजाय रूम में चलें, हम वहां पीने देंगे. रिपोर्टर डरते हुए आकर बोला संपादकजी से— सर, रूम में ही खाना मंगवा दे क्या? संपादक का दोस्त बोला कि अरे यार कहीं करवा दो, बस पीने का इंतजाम होना चाहिए, रोकटोक नहीं लेकिन संपादकजी को यह रोकटोक दिल पर लग गयी थी. उन्होंने मैनेजर से तो कुछ नहीं बोला लेकिन अब तक की सारी खातिरदारी का जो इंतजाम रिपोर्टर ने किया था सब भूल गये संपादकजी. इस इंसल्टी की कीमत तो चुकानी पड़ेगी. होटलवाले को भी और तुम्हें भी. तेरी क्या पकड़ है बीट पर समझ गया. एक होटल मैनेजर तुमसे मना कर देता है. मेरे यहां लौंडे रिपोर्टर होटल मालिकों को जेब में लिये घूमते हैं. स्साला—चुतियापा होता है बिहार में पत्रकारिता के नाम पर.
संपादकजी ने रेस्तरां में खाना नहीं खाया. वहां से निकले. गाड़ी में बैठे. दोस्त को बोले कि चल बे, जब रूम में पीना होगा तो घर में पीयेंगे. रिपोर्टर ने गाड़ी के पास आकर उन्हें विदा किया. संपादक के दोस्त ने कहा- कुछ नहीं होगा बे रिपोर्टर, काहे चिंता करता है, बस, एक और चीज का इंतजाम करवा देना… सब माफ कर देगा यह… हम जानते हैं न इसको, लंगोटिया यार है मेरा… रिपोर्टर का बिहारीपन जाग गया. गाड़ी के शीशे से ही संपादक के दोस्त का गला तक हाथ पहुंचाया. बोला—स्ससाले हरामी का जना, भंड़ुवा दिखते हैं का रे तुमको.
संपादक का अक्क—फक्क गायब. दोस्त की तो हालत खराब. रिपोर्टर ने ड्राइवर को चीखते हुए बोला कि अब्बे रोक गाड़ी. बढ़ाया तो स्साले उ हाल करेंगे कि मेहरारू चेहरा ना चिन्हेगी. संपादक बोला का कर रहे हो. गुस्सा क्यों गये? रिपोर्टर बोला कि हम तो आज से नहीं ही आयेंगे नोकरी करें बाकि तुमको अगर सप्ताह दिन में बिहार ना छोड़ा दिये तो हमहूं असल बाप के औलाद ना…
रिपोर्टर ने उस दिन, उसी वक्त से उस संस्थान में नौकरी छोड़ दी. अगले दिन उसे बेहतरीन नौकरी मिल गयी. संपादक कई दिनों तक छुट्टी पर रहे. बार—बार, रोजाना रिपोर्टर को व्हाट्सऐप कर, मेसेज कर माफी मांगते रहे. रिपोर्टर ने कहा कि जाओ माफ किया. संपादकजी अब संपादकी कर रहे हैं. उनके सारे माफिनामावाले मैसेज रिपोर्टर के फोन में कैद हैं.
बिहार के पत्रकार निराला की एफबी वॉल से. निराला फेसबुक पर ‘बिदेसिया राग’ नामक निक नेम से लिखते हैं. निराला प्रभात खबर अखबार में काम कर चुके हैं और इन दिनों तहलका से जुड़े हुए हैं. उपरोक्त पोस्ट पर आए ढेर सारे कमेंट्स में से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं…..
Pushya Mitra बिहार के रिपोर्टर भी एक लेवल तक खूब जी-हुजूरी करते हैं। अपने कई साथियों को इस तरह गाड़ी घोडा का इंतजाम करते देखा है। मेडिकल और रेलवे बीट का आदमी तो खैर तबाह ही रहता है
Sanjay Sinha और जी हुजूरी करके मोटा माल भी बनाते हैं। आना जाना कुछ नहीं, पर दिखावा तो पूछिए मत।
Umesh Chaturvedi बढ़िया…ई बढ़िया संपादक कौन हैं साहब…और ई रिपोर्टर साहेब की कहानी पत्रकारिता के छात्रों को केस स्टडी के लिहाज से पढ़ाया जाना चाहिए
Abhishek Tiwari स्वाभिमानी रिपोर्टर और अकड़ू संपादक । बेहतरीन इलाज़ किया , लेकिन डोज़ थोड़ा बढ़ा देना चाहिए था।
Ashutosh Kumar Pandey ऐसा संपादक तो आरा में नहिये आ सकते । कुछ भी हो जाये मुन्ना भईया चाय नहीं पिलायेंगे।
Uday Kumar Giri दरुवा में दो बूंद फुलिडानवा मिला देता, सुबह पता चलता शराब जहरीला था, सो सुतले रह गया
Shivashankar Satyarthi गंदगी व सड़ांध से भरी पत्रकारिता की आंतरिक तस्वीर। … गनीमत है, कोई तो मिला चुनौती देनेवाला। झकझोर कर रख दिया आपने।
Pradeep Pallove निराला भाई, एक संपादक राघवेंद्र भैया को देखा। कभी नहीं लगे संपादक हैं। खबर भेजिए तो कलम की जादू्गरी कर भेजने वाले रिपोर्टर का नाम वाइलाइन कर देते। कभी शहर भी आए तो कहते पल्लव, डीभीसी से काम चल जाएगा। यानि दाल भात चोखा। धनबाद में प्रभात खबर में संपादक थे, तो 12 बजे रात को खाना खिलाने पैदल अपने घ्रर ले गए। कहते भैया अकेले इतनी रात को डर नहीं लगता? वे बोले, आदमी अपने गुनाहों से डरता है? मुझे कोई डर नहीं। आपने जो संपादक के बारे में लिखा है, लगता है वे आधुनिक संपादक हैं। जब एमजेएमसी की परीक्षा दे रहा था तो संपादक के बारे में पूछा गया था। मैंने लिखा था, दफ्तर घूसते ही कर लो सबको दूआ, सलाम हाय, ना जाने कौन सा कमीना कब संपादक बन जाए।
ss
July 27, 2016 at 9:13 pm
ye ghatiya sampadak jaroor “Promoty” hoga, ya kissi badey sifarish se ya fir wahi Dalali karkey hi aya hoga… Aisey Sampadakon ko Reporters hi Badhawa dete hain… Tum nahin to koi aur, yahi chalta hai Reportery me…..!!!!