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राष्ट्रीय सहारा से निकाले गए एक पत्रकार की पत्रकारिता दिवस पर छलकी पीड़ा : कब तक भीख मांगेंगे पत्रकार?

फलां पत्रकार ने फलां अखबार ज्वाइन किया तो फलां ने फलां चैनल। फलाने खबरनवीस ने नए मीडिया हाउस से अपनी नई पारी शुरू की। ऐसे समाचार भडास4मीडिया के माध्यम से आयेदिन पढने को मिलते हैं। फलाने अखबार में वेतन के लाले। आज ही चौथी दुनिया के दुर्दिन की जानकारी मिली। यह अखबार उद्योगपति कमल मोरारका का है। नए वेजबोर्ड को लेकर बडे से लेकर मध्यम दर्जे तक के अखबारों में उठापटक भी देखने को मिल रही है। इस उठापटक में दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण ही नहीं कभी के शीर्ष उद्योगपति रहे बिडला घराने का हिंदुस्तान अखबार भी शामिल है। इस अखबार की नौकरी को हाल-फिलहाल तक सरकारी नौकरी कहा जाता था।

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फलां पत्रकार ने फलां अखबार ज्वाइन किया तो फलां ने फलां चैनल। फलाने खबरनवीस ने नए मीडिया हाउस से अपनी नई पारी शुरू की। ऐसे समाचार भडास4मीडिया के माध्यम से आयेदिन पढने को मिलते हैं। फलाने अखबार में वेतन के लाले। आज ही चौथी दुनिया के दुर्दिन की जानकारी मिली। यह अखबार उद्योगपति कमल मोरारका का है। नए वेजबोर्ड को लेकर बडे से लेकर मध्यम दर्जे तक के अखबारों में उठापटक भी देखने को मिल रही है। इस उठापटक में दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, दैनिक जागरण ही नहीं कभी के शीर्ष उद्योगपति रहे बिडला घराने का हिंदुस्तान अखबार भी शामिल है। इस अखबार की नौकरी को हाल-फिलहाल तक सरकारी नौकरी कहा जाता था।

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एक आम धारणा है कि पत्रकार/पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा खंभा होता है, जब मैं पत्रकारिता में आया  तो इसे “व्हाइट कालर” जाँब कहा जाता था क्यों कहा जाता था यह आजतक समझ में नहीं आया। हां एक और बात उस समय के वरिष्ठ कहते थे ” हिंदी पत्रकारिता संक्रमण के दौर से गुजर रही है तो अंग्रेजी अखबारों के पत्रकार हिंदी वालों को जूठन कहा करते थे यानि हिंदी के अखबार अंग्रेजी अखबारों का झूठन खाते हैं। अनुवाद के दौर तक यह बात सही भी थी। अंग्रेजी की एजेंसी पीटीआई और यूएनआई से कोई भी समाचार पहले आ जाता था उसके घंटों बाद उसी की हिंदी एजेसी भाषा और वार्ता देतीं थी। हिंदी की अपेक्षा अंग्रेज़ी अखबारों में वेतन भी ज्यादा था जबकि सर्कूलेशन काफी कम। ये बातें तबसे लेकर आजतक चली आ रही है। एचटी मीडिया के हिंदी अखबार हिंदुस्तान और इसी के अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स और नवभारत टाइम्स, टाइम्स आँफ इंडिया और जनसत्ता तथा इंडियन एक्सप्रेस में ये अंतर देखा जा सकता है।

अब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि लोकतंत्र के तथाकथित चौथे खम्भे और व्हाइट कालर जाँब की हालत इतनी दयनीय क्यों हैं। लोकतंत्र का चौथा खंभा बाकी तीनों खंभो की तुलना में खोखला क्यों है? देश की आजादी के ६९ साल बाद भी पत्रकारों की स्थिति दासों जैसी क्यों है? अपनी ही बात करें तो 1988 में मैंने हिंदी दैनिक आज से नौकरी शुरू की। 1992 से जनवरी 2016 तक राष्ट्रीय सहारा में था। तब सहारा का शुरुआती वेतन 1850 था। उस समय सहायक अध्यापक का वेतन 2000 था। आज उप संपादक का वेतन 25000 है तो सहायक अध्यापक का 54000 हजार। उस समय दबे जुबान से लोग पालेकर वेतन आयोग की बात किया करते थे। आज मजीठिया की कर रहे हैं। इस बीच दो या तीन वज बोर्ड गठित हुए पर किसी भी अखबार ने एक भी वेजबोर्ड की सिफारिशों को लागू नहीं किया क्यों?

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अपने इस हालात के लिए हम पत्रकार भी दोषी हैं। अस्थिरता और शोषण-उत्पीडन हर क्षेत्र में है लेकिन हर क्षेत्र के लोग अपनी बेहतरी के संघर्ष करते हैं। लाठी-डंडे खाते हैं जेल भी जाते हैं लेकिन हम “माटी के महादेव” की खामोश रहते हैं। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में शिक्षा मित्र और शिक्षा आचार्य मानदेय पर रखे गए थे अपनी बेहतरी के लिए लडे और आज सरकारी कर्मचारी हो गए। संविदा शिक्षक अभी नियुक्ति के लिए लड रहै हैं जब नियुक्ति मिल जाएगी तो नियमितीकरण के लिए लडेंगे। 28 साल तो मुझे हो गए पत्रकारिता में एक भी आंदोलन पत्रकारों ने अपने मालिक के खिलाफ वेतन वृद्धि या नौकरी पर रखे जाने के लिए नही किया। हाल में दैनिक जागरण और राष्ट्रीय सहारा में हडताल हुई लेकिन यह वेतन वृद्धि, वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने या नौकरी पर रखे जाने के लिए नहीं हुई। आज भी अखबारों और समाचार चैनलों में 3-4 हजार से लेकर 7-8 हजार में लोग काम कर रहे हैं। राष्ट्रीय सहारा देहरादून में ही सात हजार में संवादसूत्र के रूप में बडी संख्या में लोग काम कर रहे हैं।

अब बात स्थिरता की। नौकरी कोई भी हो स्थिरता मायने रखती है। अखबारी जगत में हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा की नौकरी स्थाई मानी जाती थी। हिंदुस्तान के मुकाबले सहारा में पैसा कम था लेकिन नौकरी पक्की थी। 90 के दशक में हिंदुस्तान में संविदा का रोग (वायरस) आया। अब तो सहारा ने भी इसे अपना लिया। मजीठिया वेजबोर्ड से बचने के लिए सहारा ने कानट्क्टैक पर काम करने वाले को रिटेनर बना डाला। इस शोषण-उत्पीड़न के लिए हम पत्रकार ही दोषी है। आज की तारीख में पत्रकारों से बडा नपुंसक प्राणी इस धरा पर कोई दूसरा नहीं मिलेगा।

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मित्रों आज 30 मई को पत्रकारिता दिवस है। जगह-जगह समारोह होंगे। कहीं हम मंत्री को बुलाएंगे तो कहीं मुख्यमंत्री को। हम अपने मांगों का पुलिंदा सौपेंगे और रिरियायेंगे कि साहब ” सस्ता आवास दे दो, प्लाट दे दो, बस और रेल में मुफ्त यात्रा की सुविधा दे दो, अस्पतालों में मुफ्त इलाज और जांच की व्यवस्था करा दो”। क्यों….? किस अधिकार से हम मांगते हैं। हम सरकार से क्यों मांगते हैं? सरकार हमारी नियोक्ता है क्या? हम अपने मालिक से क्यों नहीं मांगते। मालिक से मांगने में “पुलपुली” क्यों कांपती है? क्या हम पत्रकारिता दिवस के मुख्य अतिथि से वेजबोर्ड लागू कराने की बात कह पाएंगे?

अरुण श्रीवास्तव
राष्ट्रीय सहारा से निकाला गया पत्रकार
देहरादून
संपर्क : [email protected]

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0 Comments

  1. कुमार कल्पित

    May 31, 2016 at 7:57 pm

    अरुण जी ने सोलहो आने सही बात लिखी है। पत्रकारों और पत्रकारिता के बुरे हाल के लिए हम पत्रकार और हमारे संगठन ही दोषी है। पत्रकारिता में रीढहीन लोगों की फौज घुस आई है। जब तक ऐसे लोग (मालिक के दलाल )रहेंगे तब तक बेहतरी की कल्पना करना बेमानी है।

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