भोपाल में आयोजित दसवें विश्व हिंदी सम्मलेन को हिंदी साहित्य और साहित्यकारों की छाया से जिस तरह दूर रखा गया, वह कतई आश्चर्यजनक नहीं था. एक ऐसे समय में, जब केंद्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रत्यक्ष नियंत्रण में चलनेवाली सरकार क़ाबिज़ है, जब विवेक-विरोधी, दकियानूस ताक़तों के हौसले बुलंद हैं और आस्था के खिलाफ तर्क की बात करनेवालों पर कातिलाना हमले लगातार बढ़ रहे हैं, जब बाज़ार सम्बन्धी बुनियादपरस्ती और धार्मिक बुनियादपरस्ती कंधे से कंधा मिलाकर मानव-विरोधी विजय-अभियान पर निकल पड़ी हैं, ऐसे समय में हिंदी के साहित्यकार लगातार स्वतंत्र चिंतन, विवेक और प्रगतिशील-जनवादी मूल्यों के पक्ष में अपनी आवाज़ उठा रहे हैं.
हिंदी साहित्य की दुनिया में भाजपा और आरएसएस की कारगुजारियां निरपवाद रूप से आलोचना के निशाने पर हैं. मोदी शासन की शुरुआत में उनके पक्ष में उठी इक्का-दुक्का आवाज़ों ने भी कभी का दम तोड़ दिया है. हिंदी के लेखक मोदी सरकार के झूठे वायदों और नारों की पोल खोल रहे हैं और आलोचनात्मक विवेक की सदियों पुरानी परम्परा से मज़बूती से जुड़े हैं. ऐसे में कुतर्कों के आधार पर भाषा और साहित्य के बीच अंतर बताते हुए हिंदी सम्मलेन को साहित्यकारों से दूर रखने का औचित्य प्रतिपादित करना केंद्र सरकार की मजबूरी थी.
नरेंद्र मोदी से लेकर सुषमा स्वराज तक ने यही कुतर्क दुहराया और विदेश राज्यमंत्री वी के सिंह ने तो इस कुतर्क के साथ-साथ साहित्यकारों पर सम्मेलनों में जाकर खाने और ‘पीने’ का अपमानजनक आरोप भी जड़ दिया। इन कुतर्क-प्रेमियों ने एक बार भी यह स्पष्ट नहीं किया कि भाषा को सर्वाधिक रचनात्मक रूप में बरतने वाले साहित्यकारों का अगर भाषा के प्रचार-प्रसार के साथ कोई रिश्ता नहीं है तो उन राजनेताओं का कैसे है जो बड़ी संख्या में उदघाटन और समापन के अवसरों पर मंच की शोभा बढ़ा रहे थे!
विश्व हिंदी सम्मेलनों का जिस तरह से आयोजन होता रहा है, उसके कारण उनकी उपादेयता हमेशा से संदिग्ध रही है, पर इस बार का सम्मलेन तो इस सिलसिले को पूरी तरह से व्यर्थ का उपक्रम बना देने की दिशा में एक बड़ा क़दम था.
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
(महासचिव)
संजीव कुमार
(उप-महासचिव)
जनवादी लेखक संघ
प्रेस रिलीज