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सियासत

क्या अब चीन का जापान होने वाला है? भारत के साथ भी ऐसा हो सकता है क्या?

सुभाष सिंह सुमन-

एक इकोनॉमी के रूप में अभी चीन की हैसियत बहुत शानदार है. इस कदर शानदार कि अमेरिका का सितारा जबसे चमका है, पहली बार उसे टक्कर देने वाला कोई तैयार हुआ है. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया सही से कभी बाइपोलर यानी दो-ध्रवीय नहीं हो पाई. सोवियत नजदीकी प्रतिस्पर्धी था, पर अर्थव्यवस्था के मामले में कभी भी उससे अमेरिका को गंभीर खतरा नहीं हुआ था. इस बात को चीन के नेता लोग खूब अच्छे से समझे और इसी कारण उन्होंने साम्यवाद की बोतल में पूंजीवाद की शराब को पैक किया. उसके बाद चीन के दुर्दांत दशकों की शुरुआत हुई. औसत से समझिए कि करीब 3 दशक तक चीन की जीडीपी ने 10 पर्सेंट का औसत निकालते हुए ग्रो किया. तभी वह इस मुकाम तक पहुंच पाया है कि आर्थिक मामलों में अमेरिका को पहली बार टक्कर मिल रही है.

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अभी मैंने ऊपर लिखा कि क्या चीन का जापान होने वाला है? जिन्हें पता है कि जापान होने का मतलब क्या है, उनके लिए तो सब ठीक, पर जिन्हें नहीं पता उनको थोड़ा बता देते हैं. 1995 में जापान 5 ट्रिलियन की इकोनॉमी बन गया था, लेकिन उसके बाद कुछ खेल हो गया. ऐसा खेल कि करीब 30 साल बाद भी जापान वहीं अटका हुआ है और उस समय बालक रहे चीन-भारत दौड़ लगा रहे हैं. जापान के साथ दो चीजें हुईं. एक तो जॉब मार्केट से जुड़ी बात है और दूसरी जो चीज हुई, उसे इकोनॉमी के शब्दों में कहते हैं डिफ्लेशन.

इकोनॉमी को तेजी से ग्रो करने के लिए जॉब मार्केट का सही रहना जरूरी होता है. जॉब मार्केट की अहमियत इतनी है कि इसके हिसाब से इतिहास लिखने की नई परंपरा चल पड़ी थी. क्रेडिट गोज टू वन एंड वनली मार्क्स. उसे लेबर हिस्ट्री कहते हैं. लेबर हिस्ट्री में पढ़ा जाता है अटलांटिक ट्रेड शिफ्ट. यह शिफ्ट एक ऐसा प्रोसेस हुआ, जिसने दुनिया का नक्शा बदल दिया. अभी आपको दुनिया में जितने बदलाव दिख रहे हैं, सबका कारण यही एक शिफ्ट है. ये न होता तो शायद भारत और चीन कभी गुलाम न बनते, और शायद अमेरिका नाम का देश पैदा ही नहीं होता. खैर… कभी और बात करेंगे इस बारे में, जब इतिहास वाली कक्षा लगेगी.

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अभी अटलांटिक ट्रेड शिफ्ट से बस ये समझिए कि यहां पर इसका जिक्र स्लेव ट्रेड से कनेक्शन के कारण है और जॉब मार्केट के इवॉल्यूशन में स्लेव ट्रेड का बड़ा रोल है. नेटफ्लिक्स पर Django Unchained जैसी कई फिल्में हैं, जो ये चीज समझा सकती हैं. इसके साथ में Gangs of New York देख लेंगे तो स्लेव ट्रेड को इवॉल्व होकर आधुनिक इमिग्रेशन सिस्टम में बदलते देख लेंगे. स्लेवरी को जब बंद किया गया तो इंडस्ट्रियलाइजेशन के दौर में कारखानों में सस्ते मजदूरों से लेकर कई वैसे काम जो कम शालीन या अशालीन थे, उनके लिए लेबर चाहिए था. इसी जरूरत ने उदार से उदार इमिग्रेशन पॉलिसी और लैंड ऑफ दी फ्री पीपुल आदि का सृजन किया.

बाद में जब जापान का सितारा चमका तो उसमें सबसे बड़ा योगदान था, प्रचुरता में लेबर की उपलब्धता का. दूसरे वर्ल्ड वार के बाद जापानियों में सबसे बड़ा बदलाव हुआ कि वे गजब के महनती बन गए. उसी मेहनत ने बर्बाद देश को दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बना दिया. फिर हुआ कि देश बुढ़ा गया, उसके लोग उम्रदराज हो गए, मतलब काम करने के लिए जरूरी लेबर कम पड़ गए. दूसरी चीज हुई डिफ्लेशन. डिफ्लेशन के ज्याडा डीप में नहीं जाना अभी. इसे मोटा-मोटी समझिए एकदम कम इंफ्लेशन मने महंगाई बचे ही ना.

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महंगाई बड़ी खराब चीज है. बढ़ जाए तो लोगों का जीना हराम हो जाता है. अर्थशास्त्र वाले इसको हिडन इनडाइरेक्ट टैक्स ऐसे ही नहीं बोलते हैं. औश्र जब यह कम या खत्म हो जाए तो इकोनॉमी का भट्ठा बैठ जाता है. कैसे- वो कुछ इस तरह कि महंगाई एक दम कम हो जाए मतलब सामान सब बहुत सस्ते हो गए. सामान सब किस तरह सस्ते हो सकते हैं? या तो सप्लाई बहुत ज्यादा हो जाए या फिर डिमांड गायब हो जाए. जब डिमांड गायब होने से सामान सस्ता हो, तब शुरू होता है डिफ्लेशन का खतरनाक खेल. यह ऐसी खतरनाक चीज है कि अगर जल्दी इसे नहीं भगा पाए तो इकोनॉमी पर कुंडली मारकर बैठ जाती है, और तब जो होता है, उसे कहते हैं इकोनॉमी का जापान हो जाना.

अभी चीन के साथ ये दोनों समस्या जबरदस्त तरीके से आ गई है. आबादी बूढ़ी हो रही है. बहुत ज्यादा बूढ़ी आबादी मने इकोनॉमी के लिए बहुत ज्यादा बोझ. ऐसी आबादी, जो न फैक्ट्री में काम करेगी न ही ऑफिस में. कमाएगी नहीं तो खर्च कहां से करेगी? और जब पैसे खर्च नहीं होंगे तो पैसे कहां से बनेंगे? बूढ़ी आबादी इकोनॉमी के लिए उसी कदर खराब है, जैसे साइकिल से चलने वाला आदमी.

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अभी चीन दोनों समस्या से घिरा हुआ है. जुलाई में महंगाई जीरो के पास पहुंच गई… 0.3 पर्सेंट. यूथ की बेरोजगारी 21 फीसदी के पार. समस्या सुलटा सकते हैं. अमेरिका लेबर मार्केट वाली समस्या को इमिग्रेशन से दूर करता रहा और डिफ्लेशन के लिए डिमांड क्रिएट करने के कई फॉर्मूले हैं. पड़ोस में सिंगापुर ने डिमांड क्रिएट करने के लिए रियल एस्टेट का गजब मॉडल डेवलप किया है. जापान नहीं कर पाया था. चीन कर पाया तो उसका भी अमेरिका हो जाएगा और नहीं कर पाएगा तो जापान गति तय है. देर-सवेर भारत के सामने भी ये वाली समस्या आएगी.

(ऑन अ लाइटर नोट: अगर भारत को ऐसी समस्या से बचाना चाहते हैं तो मस्क भाई की बात फॉलो करिए. एक-दो के फेर में नहीं अटकना है, कम से कम आधी क्रिकेट टीम तो किसी भी सूरत में होनी चाहिए. बर्थ रेट मेंटेन रहा तो लेबर की कमी नहीं होगी और जब कमाने वाले हाथ होंगे तो स्वाभाविक है कि खाने वाले मुंह की कमी नहीं पड़ेगी.)

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