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उत्तर प्रदेश

भ्रष्टाचार पर अंकुश में कितना कारगर होगा योगी सरकार का यह प्रयास!

के पी सिंह-

प्रशासन में व्याप्त घोर भ्रष्टाचार उत्तर प्रदेश में सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री के रूप में जब कार्यभार संभाला था तो स्वच्छ प्रशासन को अपने एजेण्डे में सर्वोपरि स्थान पर रखा था। लेकिन बीच में कोरोना काल जैसी असाधारण परिस्थितियां सामने आने से राज्य सरकार को अपनी प्राथमिकता बदलनी पड़ी। कोरोना के आपात काल में व्यवस्था सुचारू बनाये रखने के लिए अधिकारियों और कर्मचारियों पर डंडा चलाने की बजाय पुचकार कर उनसे काम लेने की नीति अपनानी पड़ गई। बाद में जब कोरोना की विदाई हो गई और व्यवस्था पटरी पर आ गई तो भी प्रशासनिक भ्रष्टाचार पर रोक के मामले में सरकार तत्पर होती नहीं दिखायी दी।

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लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिली बड़ी असफलता के पीछे अन्य कारकों के साथ-साथ मगरूर और भ्रष्ट नौकरशाही की करतूतों को भी जिम्मेदार माना गया, जिसके चलते प्रदेश की जनता में सत्ता विरोधी भावनायें प्रचंड हुई हैं।

अब लगता है कि इस मोर्चे पर हो रही आलोचनाओं के चलते मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक बार फिर सतर्क हुए हैं। उन्होंने सभी राज्य कर्मियों को चेता दिया था कि अगर 30 सितम्बर तक मानव संविदा पोर्टल पर उन्होंने अपनी संपत्ति का ब्यौरा अपलोड नहीं किया तो उनका वेतन जारी नहीं किया जायेगा। हालांकि पीसीएस और पीपीएस अधिकारियों को इस व्यवस्था से मुक्त रखा गया है। अपनी परिसंपत्तियों का ब्यौरा दाखिल करने के लिए योगी सरकार पहले दिन से ही अधिकारियों और कर्मचारियों को निर्देशित कर रही है लेकिन इस मामले में सरकार की घुड़की को कर्मचारी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते रहे और उनका हौसला इसे लेकर इस कारण बुलंद रहा कि सरकार उन पर पहले कार्रवाई करने का साहस नहीं कर सकी थी। इस बार भी कर्मचारी इसी मुगालते में थे कि सरकार फिर चुप बैठ जायेगी। इस बीच सरकार उनके लिए समय बढ़ाती रही तो कर्मचारियों की उक्त मानसिकता को और बल मिला। पर अब स्पष्ट हो चुका है कि सरकार इस बार अपने फरमान में कोई कोताही न होने देने पर आमादा है। इसलिए कर्मचारी सहम गये।

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प्रदेश में राज्य कर्मचारियों की कुल संख्या आठ लाख पच्चीस हजार नौ सौ सरसठ है, जिनमें से 30 सितम्बर तक सात लाख तिरानवे हजार तीन सौ तैंतालीस कर्मचारी अपनी परिसंपत्तियों का ब्यौरा दाखिल कर चुके हैं। जबकि 32624 कर्मचारियों ने 30 सितम्बर की डेडलाइन को गुजरने तक ब्यौरा पोर्टल पर अपलोड नहीं किया था। उनका वेतन रोक दिया गया है, जिससे खलबली मची हुई है। कर्मचारियों में सबसे बड़ी दहशत इस बात की है कि राज्य सरकार ने एक सेल बना रखा है, जो पोर्टल पर दाखिल किये गये परिसंपत्तियों के कुछ ब्यौरों की रेंण्डम जांच करेगा।

यह किसी से छुपा नहीं है कि लेखपाल जैसे अल्प वेतन भोगी कर्मचारियों ने अकूत संपत्ति बना रखी है। लेखपाल एक बानगी हैं। जब भूमि विवाद के कारण देवरियां में पांच हत्याओं से राज्य सरकार दहल गई थी तो मुख्यमंत्री ने कहा था कि पैसे के लिए जमीन की पैमाइश महीनों तक टालने वाले राजस्व कर्मचारियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई होगी, जिनके कारण जमीनी विवाद में खून खराबे की नौबत आ जाती है। पर व्यवहारिक स्तर पर मुख्यमंत्री की इस चेतावनी को कोई भाव न मिलते देखा गया और आज भी लेखपाल और कानूनगो जब तक पैसा नहीं मिलता, तब तक जमीन नापने के लिए टस से मस नहीं होते। लेखपालों के दायित्व का संबंध राज्य सरकार की छवि से जुड़ा रहता है। इसीलिए मायावती के कार्यकाल में थानों और तहसीलों की पैनी निगरानी होती रहती थी ताकि आम जनता को चुस्त दुरुस्त प्रशासन का एहसास कराया जा सके।

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नौकरशाही के भ्रष्टाचार के कारण एक ओर तो आम लोगों को अपने अधिकार नहीं मिल पा रहे जिससे लोकतंत्र की परिभाषा निर्रथक सिद्ध होकर रह गई है। दूसरी ओर विकास कार्यों के लिए बड़े संसाधन जुटाने पड़ रहे हैं, जिसकी वसूली आम जनता पर करों और शुल्कों का भारी बोझा लादकर की जाती है। यह किसी से छुपा नहीं है कि प्रदेश में चाहे पंचायतें हों या नगर निकाय विकास के जो भी कार्य इनके द्वारा कराये जाते हैं उनमें 70 प्रतिशत तक कमीशन वसूली होती है। जाहिर है कि इससे विकास की लागत बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है और फिर भी गुणवत्तापूर्ण विकास नहीं हो पा रहा। इसी भ्रष्टाचार के कारण बीडीओ और नगर निकायों के अधिशाषी अधिकारी कुछ ही साल की नौकरी में इतनी जायदाद बना लेते हैं कि उनके सामने बड़े-बड़े कारोबारी पीछे छूट जाते हैं।

अगर इनके द्वारा दाखिल किये गये अपनी परिसंपत्तियों के ब्यौरों की वास्तव में जांच करायी जाती है तो अधिकांश अधिकारी और कर्मचारी सरकार के शिकंजे में फंस जायेंगे। जिससे उनकी आने वाली पीढ़ियों को बेतहाशा दौलत इकट्ठा करके जेल जाने के इंतजाम से बचने का सबक मिलेगा और वर्तमान प्रशासन भी काफी साफ सुथरा होगा। वैसे भी धन कुबेर बन चुके अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ शासन में शिकायतें पहुंचती रहती हैं, लेकिन उनकी जांच नहीं होती। भ्रष्टाचार के खिलाफ इतनी कटिबद्धता दिखाने वाली योगी सरकार ने विजिलेंस, ईओडब्ल्यू और एंटी करप्शन जैसे विभागों को और सक्रिय करने की रणनीति पर अभी तक विचार नहीं किया है। दूसरे राज्यों की तरह इनको लोकायुक्त से जोड़कर मुहिम चलायी जाये तो कई अधिकारी नप सकते हैं।

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यह बिडंवना का विषय है कि जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सत्यनिष्ठा पर कोई एक पैसे की उंगली नहीं उठा सकता, इसके बावजूद उनके कार्यकाल में धारणा यह है कि भ्रष्टाचार बंद होना तो दूर पहले से कई गुना बढ़ गया है। शीर्ष नौकरशाही में अपर मुख्य सचिव और प्रमुख सचिव स्तर पर 40 के लगभग अधिकारी उत्तर प्रदेश में हैं, लेकिन सारे विभाग 8-10 अधिकारियों तक सिमटे हुए हैं। इस कारण उक्त अधिकारी ओवरलोड हो गये हैं, जिसका असर सरकार के कामकाज पर भी पड़ रहा है। दूसरी तरफ उपेक्षित अधिकारी खाली बिठा रखे गये हैं, जिससे उनकी क्षमता और दक्षता का कोई उपयोग नहीं हो पा रहा है। यही हालत पुलिस में भी है।

मुख्यमंत्री जिन अधिकारियों को अपना विश्वासपात्र समझते हैं उनके खिलाफ कोई फीडबैक उन्हें गंवारा नहीं है। उदाहरण के तौर पर बुन्देलखण्ड एक्सप्रेसवे के उदघाटन में उनके चहेते अधिकारी ने जल्दबाजी की, क्योंकि उनका रिटायरमेंट नजदीक था और वे नहीं चाहते थे कि इसका उदघाटन उनका सेवाकाल समाप्त होने का बाद हो। यह भी सामने आया है कि बुन्देलखण्ड एक्सप्रेसवे को बनाने में भारी घपलेबाजी हुई है। उदघाटन के तत्काल बाद ही एक्सप्रेसवे कई जगह क्षतिग्रस्त हो गया, जिससे सरकार की बड़ी फजीहत हुई। पर अपने नजदीकी अधिकारियों पर मुख्यमंत्री का अंधविश्वास भ्रष्टाचार पर अंकुश न हो पाने की एक बड़ी वजह है।

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तथ्य यह भी है कि अगर आईएएस, आईपीएस, पीसीएस और पीपीएस अधिकारी सुधर जायें तो निचले स्तर पर भ्रष्टाचार अपने आप रूक जायेगा। लेकिन शीर्ष प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारियों का मुख्यमंत्री पता नहीं क्यों बहुत अदब करते हैं। परिसंपत्तियों के मामले में वे उच्च पदस्थ अधिकारियों के पीछे पड़ने से बचना चाहते हैं। जाहिर है कि भ्रष्टाचार की गंगोत्री तो उच्च स्तर से ही निकलती है और अगर उच्च स्तर के अधिकारियों पर अंकुश नहीं होगा भ्रष्टाचार पर रोक के प्रयास सतही सिद्ध होकर रह जायेंगे।

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