Krishnadev Naraian-
आज (5 अक्टूबर) ‘अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन’ के रहनुमा, क्रांतिकारी मन-मिजाज वाले नौजवानों के प्रेरणा स्त्रोत देवब्रत मजूमदार की पुण्यतिथि है। इस बात की जानकारी देबू दा के बेटे ईशान मजुमदार की पोस्ट से मिली। यह भी खबर मिली कि बनारस में दो विश्वविद्यालयों में उनके लिए श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गयी है। काशी विद्यापीठ इसमें पिछड़ गया। खैर कोई बात नहीं।
विद्यार्थी जीवन में उनके साथ बहुत कम ही रहा। उम्र का बड़ा अंतर जो ठहरा। जब देबू दा ‘६७ में एक बहुत बड़े छात्र आन्दोलन के सूत्रधार बन चुके थे, तब मेरी उम्र कुल बारह साल की थी। बीएचयू में पहुंचा तो समाजवादी आन्दोलन राष्ट्रीय स्तर पर दो और फिर बाद में तीन गुट में बट चुका था समाजवादी युवजन सभा भी विभाजित हो चुकी थी, पर देबू दा और मेरा और रिश्ता तो बन ही गया था।
दादा को संसोपा (चुनाव निशान-बरगद) से वाराणसी शहर दक्षिणी से टिकट मिला और बाकी किशोर वय स्वप्न जीवियों की मानिंद मैं भी माइक से चिपक गया। समता और सम्पन्नता मूलक समाज की संरचना के लिए बरगद पर मुहर लगाकर साथी देवब्रत मजुमदार को विजयी बनायें। चुनाव परिणाम आने के बाद लोग यही कहते मिले- पता होता इतना बढ़िया लड़ रहा है, तो मैं भी वोट इसी लड़के को देता।
अरे आप देते भी कैसे, दादा की जन्मकुंडली में विधानसभा लिखा ही कहां था।
खैर समय के साथ मेरी भूमिका बदलती रही। दुनिया की, दुनिया जाने बीएचयू में एसवाईएस माने देवब्रत मजूमदार। जिसके सिर पर हाथ रख दिया- नेता हो गया, ठीक राम बहादुर राय की तरह।
राम बहादुर राय जी उन दिनों बीएचयू में विद्यार्थी परिषद का संघटन देखते थे। टिकट निर्धारण में उनकी अहम भूमिका होती थी।
मैं विश्वविद्यालय से दूर हुआ तो अखबारी हो गया। एक दिन पता चला दादा को ब्रेन ट्यूमर है। सुब्रत राय ने आगे बढ़ कर इलाज करा दिया है और अब ठीक हैं। एक दिन दशाश्वमेध घाट पर लक्ष्मन चाय वाले की दुकान पर सुबह सुबह भेंट हो गयी। वहीं दाहिने हाथ से छोटी छोटी मूंछों की तलाश करने की पुरानी अदा – और कृष्ण देव कैसे हो?
- जी ठीक हूं।
- किस अखबार में हो?
- आज में।
- अभी वहीं पड़े हो?
- मैंने लक्ष्मन से कहा – जरा चाय बनाओ।
- ई पप्पुआ (पप्पू गुरु) कहां है, जरा बुलवाओ तो।
- आते ही होंगे।
तब-तब दादा को जानने वाले एक एक करके आने लगे। गनीमत यह रहा कि हमने चाय पी ली थी। - दिल्ली जाओगे?
- जब आप न गये, तो मैं क्या जाऊंगा।
- बहुत शरारती हो। अच्छा ई बताओ- शिवदेव कैसा है?
- जी ऊ भी ठीक हैं।
- चलता हूं, फिर आऊंगा।
दादा चले गये और फिर वे नही, उनके जाने की ख़बर आ गयी। अंदर के पेज पर सिंगल कालम खबर छपी थी। दूसरे दिन मैं दफ्तर में अपने साथियों से खूब लड़ा था। राजनीति ने तो उनके साथ न्याय नहीं ही किया, हिन्दी के अखबार ठीक से श्रद्धांजलि भी न दे सके।
दादा आप अक्सर याद आते हो और आते रहोगे।
विनम्र श्रद्धांजलि।