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सियासत

इन अच्छे दिनों से भगवान बचाए

मेरी मां गायत्री देवी इस देश की उन करोड़ों सामान्य महिलाओं की तरह है जिनकी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं। बजट, संसद और विदेश नीति किस चिड़िया का नाम है, ये वह नहीं जानती और जानना भी नहीं चाहती। उसे इतना मालूम है कि नरेंद्र मोदी अब देश के सबसे बड़े नेता बन गए हैं। इसके अलावा कौन किस पद पर है, उसे मालूम नहीं। वे राजनीति का ककहरा भी नहीं जानतीं, लेकिन हाल ही में उनकी एक टिप्पणी ने सोचने पर मजबूर कर दिया।

<p><span style="line-height: 1.6;">मेरी मां गायत्री देवी इस देश की उन करोड़ों सामान्य महिलाओं की तरह है जिनकी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं। बजट, संसद और विदेश नीति किस चिड़िया का नाम है, ये वह नहीं जानती और जानना भी नहीं चाहती। उसे इतना मालूम है कि नरेंद्र मोदी अब देश के सबसे बड़े नेता बन गए हैं। इसके अलावा कौन किस पद पर है, उसे मालूम नहीं। वे राजनीति का ककहरा भी नहीं जानतीं, लेकिन हाल ही में उनकी एक टिप्पणी ने सोचने पर मजबूर कर दिया।</span></p>

मेरी मां गायत्री देवी इस देश की उन करोड़ों सामान्य महिलाओं की तरह है जिनकी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं। बजट, संसद और विदेश नीति किस चिड़िया का नाम है, ये वह नहीं जानती और जानना भी नहीं चाहती। उसे इतना मालूम है कि नरेंद्र मोदी अब देश के सबसे बड़े नेता बन गए हैं। इसके अलावा कौन किस पद पर है, उसे मालूम नहीं। वे राजनीति का ककहरा भी नहीं जानतीं, लेकिन हाल ही में उनकी एक टिप्पणी ने सोचने पर मजबूर कर दिया।

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अभी हाल में ईद पर छुट्टी हुई तो मेरे पिताजी दिल्ली से जयपुर आए। वे रात एक बजे सिंधी कैंप पहुंचे और ऑटोरिक्शा वालों से किराए के बारे में बात करने लगे। उन्हें एक ऑटो ड्राइवर मिला और बोला, साहब, रात एक बजे इतनी दूर कोई नहीं जाएगा, क्योंकि वापसी की सवारी नहीं मिलती। लेकिन आज सुबह मैं कहीं गया हुआ था और शाम को ही ऑटो लेकर आया हूं। तब से एक भी सवारी नहीं मिली। आप कहें तो मैं जाने के लिए तैयार हूं। कल ईद है। आपके किराए से हमारी भी ईद मीठी हो जाएगी।

आखिरकार वह 200 रु. में मान गया। जब ऑटो शहर के कुंभा मार्ग के नजदीक पहुंचा तो दो पुलिसकर्मी मिले। उन्होंने ऑटो रुकवाया। दोनों ने काफी शराब पी रखी थी। उनके मुंह से बदबू आ रही थी। उन्होंने मेरे पिताजी से पूछताछ की, टिकट देखा और बोले, ठीक है, तुम गाड़ी में बैठे रहो। फिर वे ड्राइवर की ओर गए और उसे नीचे उतारा। कागजात दिखाने के लिए कहा, लेकिन सभी कागजात चेक करने के बाद भी उन्हें कोई खामी नहीं मिली। आखिर में वे बोले, तुम्हारी वर्दी कहां है? चलो, चालान कराओ। इस पर वह ड्राइवर उनके आगे हाथ जोड़ने लगा। पुलिसवालों ने करीब आधे घंटे तक उसे डांटा-फटकारा। ड्राइवर ने उनसे विनती की कि कल ईद है और आज उसने एक पैसा भी नहीं कमाया। आप मेहरबानी कर जाने दीजिए। लेकिन पुलिसवालों को नहीं मानना था और वे नहीं माने। सब दलीलें खत्म होने के बाद उस ड्राइवर ने जेब से अपना तुड़ा-मुड़ा बटुआ निकाला और उन कर्मठ पुलिसवालों को थमाते हुए बोला, लो साहब, इसमें जो कुछ है वो आप रख लीजिए। वे पुलिसवाले उस बटुए पर यूं टूटकर पड़े जैसे मांस पर गिद्ध। उन्होंने बटुए की सभी जेबों से एक, दो, पांच के सिक्कों समेत 50 रु. के तीन नोट निकाल लिए। शायद पूरी रकम 200 रु. रही होगी, जो उन्होंने जेब में डाल ली। उन्होंने उन पैसों की कोई रसीद नहीं दी और चले गए। जाते हुए उन्होंने कहा, चलो, भागो यहां से।

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मेरे पिताजी को उस वक्त वह ड्राइवर दुनिया का सबसे ज्यादा बेबस और मजबूर बाप लग रहा था जो अपने बच्चों को ईद के दिन भी कुछ नहीं दे सकता था। वह किराए पर रिक्शा चलाता था और उस दिन इतनी कमाई भी नहीं हुई थी कि वह अपने बच्चों को ईदी दे सके। पिताजी ने उस ड्राइवर को किराए के 300 रु. दिए और उसे हिम्मत बंधाई। वह चला गया। उन्होंने उसका नाम भी नहीं पूछा। कुछ महान ‘सेकुलर’  भाई-बहनों को सूचित करना चाहूंगा कि कृपया यह न सोचें कि ऑटो ड्राइवर के साथ यह घटना इसलिए हुई क्योंकि वह मुसलमान था। इसे मजहब के चश्मे से न देखें। हमारे कुछ आधुनिक सेकुलरवादियों के लिए सेकुलरिज्म का इतना ही मतलब है कि एक को जी भरकर खरी-खोटी सुनाओ और दूसरे की हर बात का पक्ष लो। ऐसे ‘बुद्धिजीवियों’ को मैं दूर से ही सलाम करता हूं। जब तक पुलिस में बेईमान, डकैत और लुटेरे मौजूद रहेंगे तब तक न जाने कितने बच्चे ईदी से वंचित होंगे और न जाने कितनों को दिवाली पर मिठाई नसीब नहीं होगी।

घर आकर पिताजी ने पूरी बात बताई तो मेरी मां ने कहा, तभी मैं कहती थी कि केजरीवाल को नेता बनाओ। इन बदमाशों का इलाज वही कर सकता है। मां के मुंह से ऐसे शब्द सुनकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मुझे उससे यह उम्मीद नहीं थी कि वह भ्रष्टाचार के राजनीतिक समाधान का कोई उपाय बताएगी। वह मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री जैसा भारी-भरकम शब्द नहीं जानती और सबको नेता ही बोलती है।

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 मेरी मां के सुझाव ने मुझे केजरीवाल के उन तौर-तरीकों के बारे में सोचने के लिए विवश कर दिया जो उन्होंने कुछ दिनों के लिए दिल्ली में लागू किए थे। वे देश के राजनीतिक नक्शे पर तेजी से उभरे और जोश-जोश में मोदी को चुनौती दे बैठे, जो आत्मघाती फैसला साबित हुआ। शीला और मोदी में फर्क को केजरीवाल समझ नहीं सके और मात खा गए। आमतौर पर मैं राजनीतिक टिप्पणियों से दूर रहता हूं और इस देश के 99 फीसदी से ज्यादा नेताओं से मुझे कोई सुनहरी आशा भी नहीं है। मुझे उन पर बिल्कुल भी भरोसा नहीं है। उन एक फीसदी से भी कम लोगों में दो नाम ऐसे हैं जिन्हें मैं राजनीति में ईमानदार और कुछ नेक काम करने की इच्छाशक्ति वाला व्यक्ति मानता हूं। आप इससे सहमत या असहमत हो सकते हैं। यह आपका अधिकार है। मैं इन्हें फरिश्ता होने का प्रमाण पत्र भी नहीं दे रहा। ये मेरे निजी विचार हैं। इनमें एक हैं हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे हैं अरविंद केजरीवाल। दोनों ने जनता को सुनहरे सपने दिखाए और इसमें मुझे कोई शक नहीं कि दोनों ही उन्हें पूरा भी करना चाहते हैं। फिलहाल मोदी जी को हमने पांच साल के लिए काम सौंप दिया है और उनका मूल्यांकन 2019 में करेंगे।

आज बात करते हैं केजरीवाल जी की। वास्तव में यह व्यक्ति मुझे ऐसा शख्स लगता है जो कुछ भी गलत होते नहीं देख सकता। खासतौर से बेईमानी और कामचोरी। इसे रोकने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता है और कभी-कभी जिद पर अड़कर गलत फैसले कर बैठता है। यह गलती उनके पूरे आंदोलन की लुटिया डुबो देती है। केजरीवाल उत्साही हैं और इसमें कुछ गलत भी नहीं हैं लेकिन अति उत्साह पूरे किए-धरे का सत्यानाश कर देता है। बस यही उनमें एक सबसे बड़ी कमी है। इसके लिए उन्हें परिस्थितियों पर ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए और अति आदर्शवाद व अति उत्साह से बचना चाहिए। दिल्ली की गद्दी छोड़ना उनकी महानतम भूल है। अगर वे दिल्ली की सरकार मजबूती से चलाते और भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारी वर्ग के खिलाफ सख्त कदम उठाते तो केरल से कश्मीर तक लोग उनके नाम की मिसाल देते। लोग एक-दूसरे को हिदायत देते कि दिल्ली में रहना है तो घूस खाना छोड़ दो। वहां केजरीवाल बैठा है। पता नहीं तिहाड़ की किस काल-कोठरी में डालकर उम्र भर सड़ाएगा। अगर दिल्ली में केजरीवाल सिर्फ इतना कर देते तो उनकी लोकसभा में कम से कम 80 सीटें होतीं। इस जीत से हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड के साथ ही पंजाब, यूपी और बिहार के आगामी विधानसभा चुनावों में उनका दावा और मजबूत होता। खैर, अब ये सब कल्पनाएं हैं। मुझे घोर आश्चर्य इस बात का है कि केजरीवाल के अनुभवी संगी-साथी पत्रकार यह समझने में इतनी भयंकर भूल क्यों कर बैठे? मुझे केजरीवाल एक ऐसे व्यक्ति मालूम होते हैं जो भला काम करना चाहता है, लेकिन परिस्थितियों को समझने में गलती करता है, अति आदर्शवाद और अति उत्साह में जिद करता है और आखिर में बुरा परिणाम लेकर आता है। उन्हें इस बिंदु पर मनन करना चाहिए।

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मैं केजरीवाल को उन सैकड़ों विधायकों, मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से कहीं बेहतर मानता हूं जिनके लिए भ्रष्टाचार मुद्दा ही नहीं है, जबकि आम जनता आज इससे ही सबसे ज्यादा परेशान है। अगर भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ हद से ज्यादा सख्त व्यवस्था हो तो उसका असर दूरगामी होगा और महंगाई, बेरोजगारी, सरकारी बाबुओं का निठल्लापन और दूसरी तमाम समस्याएं काबू में आ जाएंगी। इसकी चर्चा फिर कभी करेंगे।

अब दिल्ली का भावी मुख्यमंत्री कौन है? यह भविष्य का विषय है जिसे जानना मेरे लिए असंभव ही है। फिर भी एक नागरिक के तौर पर मेरा मानना है कि दो लोग दिल्ली को बेहतर बना सकते हैं और उन्हें पुराने मतभेद भुलाकर साथ आना चाहिए। ये हैं अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी। इनमें से सीएम कोई भी बने लेकिन अगर ये प्रतिद्वंद्वी के बजाय एक सहयोगी के रूप में आते हैं तो दिल्ली को भ्रष्टाचार, बदमाशी और बेईमानी से काफी हद तक निजात दिलवा सकते हैं।

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सार्वजनिक सत्कार से रुकेगा भ्रष्टाचार!

यह एक आम धारणा है कि हमारी पुलिस भ्रष्ट है। यह बात पूरी तरह सच नहीं है, फिर भी सच के काफी नजदीक है। मैंने कहीं पढ़ा था कि जापान, अमेरिका, ब्रिटेन जैसे कुछ देशों में अगर कोई नागरिक रात को किसी संकट में हो और उसे कोई पुलिसकर्मी दिख जाए तो उसका हौसला बढ़ जाता है। वह मानता है कि मेरे देश का यह सेवक अपनी जान पर खेलकर भी मेरी रक्षा करेगा। वहीं भारत में अगर कोई पुलिसवाला दोपहर, शाम या देर रात को कभी भी मिले तो बेचारे सामान्य नागरिक के होश हवा हो जाते हैं। वह जानता है कि यह वर्दीवाला गुंडा अब हजार-पांच सौ से कम में नहीं मानेगा। मैं स्पष्ट रूप से यह बताना चाहूंगा कि इस लेख में पुलिसवालों के लिए प्रयुक्त कुछ कठोर शब्द बेईमान और भ्रष्ट लोगों के प्रति हैं। मैं यह मानता हूं कि कुछ पुलिसवाले ईमानदार और फर्ज के प्रति सच्चे भी होते हैं। मैं उनकी सच्चाई को सलाम करता हूं।

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वास्तव में हम अपनी प्राचीन संस्कृति और आदर्शवाद को सर्वश्रेष्ठ मानने के प्रयास में इतने अंधे हो गए हैं कि पाश्चात्य देशों की कुछ अच्छाइयों की ओर देख ही नहीं सकते। यूरोप के कुछ देशों और जापान में इतनी ईमानदारी है कि उनके बारे में पढ़-सुनकर हमें लज्जित होना चाहिए। मैंने एक प्रख्यात लेखक के जापान भ्रमण लेख में पढ़ा कि वहां सिटी बसों में कंडक्टर को आप अपना बटुआ दे दीजिए, वह खुद ही उसमें से पैसे निकालकर टिकट और बाकी के पैसे रख देता है। क्या मजाल कि एक पैसे की भी हेरा-फेरी हो। उन लोगों के डीएनए में ही ईमानदारी घुल-मिल गई है। यह नियम आप अपने देश में लागू कर देखिए। पहले दिन ही न जाने कितने नोट हमारे कंडक्टर पार कर देंगे। जयपुर के कई कंडक्टर तो यात्रियों को टिकट भी नहीं देते और पूरा पैसा अपनी जेब में डाल लेते हैं। असल में हम भारतीयों के खून में ही बेईमानी इतनी ज्यादा फैल गई है कि अब वह सामान्य उपायों से ठीक नहीं होगी। इस लेख के जरिए मैं हमारे प्रधानमंत्री, सभी मुख्यमंत्रियों और खासतौर से अरविंद केजरीवाल को भ्रष्टाचार रोकने के लिए कुछ सुझाव देना चाहूंगा। मेरा मानना है कि इन तरीकों से भारत को भ्रष्टाचार से बहुत जल्द मुक्ति मिल जाएगी।

– सबसे पहले यह स्वीकार कर लीजिए कि सिर्फ कानून बना देने से ही भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा। एक्ट को एक्शन तक पहुंचाना होगा।

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– जो कानून पहले से बने हुए हैं, उन्हें प्रभावी तरीके से लागू कीजिए। बेईमानों को पकड़ने के लिए आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कीजिए। सभी सरकारी दफ्तरों का ज्यादातर काम ऑनलाइन कर दीजिए ताकि दलालों और घूसखोरों की जरूरत ही न रहे।

– हर विभाग की वेबसाइट पर उसके द्वारा दी जाने वाली सेवाओं का कैसे उपयोग किया जाए, इसका विवरण आसान भाषा में हो। मिसाल के तौर पर, डाकघर में जाकर मनीऑर्डर फॉर्म किससे लें, यह कैसे भरें और कहां जमा कराएं, इसकी पूरी जानकारी वेबसाइट पर हो, ताकि आम जनता सरकारी दफ्तरों में ठोकर (मारवाड़ी में इसे भचीड़ भी कहते हैं) खाती न फिरे। ऐसा हर विभाग की सेवाओं के साथ हो।

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– जो कर्मचारी एक बार घूस लेता पकड़ा जाए और उसका दोष सिद्ध हो जाए, उसे किसी सार्वजनिक स्थान पर बैठाया जाए। हो सके तो यह रविवार का दिन हो ताकि लोग ज्यादा तादाद में आ सकें। फिर वहां उपस्थित सभी लोगों को बताया जाए कि देखिए, यह एक बेईमान है और इसने यह गुनाह किया है। उसे सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाए। मीडिया ऐसे मामलों की ठीक से रिपोर्टिंग करे और लोगों के घरों तक यह बात पहुंचाए। बस इतना भर करना है। उसे कोड़े लगाने या फांसी देने की जरूरत नहीं है।

– उस बेईमान व्यक्ति का यह सार्वजनिक सत्कार कम से कम दो दिन तो होना ही चाहिए। उसके नाम व फोटो के पोस्टर बनाकर उसके घर व आस-पास के स्थानों पर चिपकाए जाएं। उसके सभी रिश्तेदारों, मित्रों व दफ्तर के सहकर्मियों को रजिस्टर्ड डाक से ऐसे पोस्टर निशुल्क भेजे जाने चाहिए।

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– भ्रष्ट अधिकारी का निलबंन कर देने और बाद में मामला ठंडा होने पर चुपके से बहाल कर देने से यह समस्या हल नहीं होगी। बेहतर होगा कि ऐसे बेईमान सीधे सौ साल के लिए जेल जाएं। उनसे वोट देने, चुनाव में खड़े होने, गैस, बिजली, टेलीफोन कनेक्शन, सरकारी सुविधाएं और समस्त सब्सिडी छीन ली जाएं।

– भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारी की फोटो फेसबुक, वॉट्स एप और दूसरी तमाम सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स पर डाली जाएं। एक वेबसाइट बनाकर उस पर उनका विवरण और फोटो प्रकाशित किया जाना चाहिए। इस वेबसाइट का हर सरकारी दफ्तर में प्रचार-प्रसार हो। अखबारों में भी ऐसे भ्रष्ट लोगों का फोटो प्रकाशित किया जाना चाहिए।

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– अगर संभव हो तो उसके माथे पर अमिट स्याही से लिखा जाए – मैं बेईमान हूं। ये सभी नियम महिला और पुरुष, दोनों पर लागू हों। किसी पर भी रियायत न हो। किसी के साथ कोई रहम नहीं होना चाहिए।

मैं दावे के साथ कहता हूं कि बेईमानों का यह सत्कार सिर्फ एक सप्ताह तक कर दीजिए। फिर देखिए सरकारी दफ्तरों में कैसे काम होता है और घूसखोरी के मामलों में कैसे कमी आती है। आज हमारा देश जिस तरह से बेईमानी की कीचड़ में डूबा है वहां ऐसे कड़वे उपायों को अपनाना ही होगा। अन्यथा लोग घूसखोरी का रोना रोते रहेंगे, बाबू जेबें भरते रहेंगे, सरकारें बदलती रहेंगी और कुछ भी नहीं होगा। भले ही कितने भी मोदी आ जाएं, कितने भी अन्ना अनशन पर बैठ जाएं, कितने भी केजरीवाल मुख्यमंत्री बन जाएं, भ्रष्टाचारियों का कुछ नहीं बिगड़ेगा। असल में बेईमानी कानूनी से ज्यादा मानसिक व नैतिक समस्या है। इसका समाधान सिर्फ कानून बना देने से नहीं होगा। इसके लिए जरूरी है कि बेईमानों का सार्वजनिक रूप से पर्दाफाश हो। उन्हें इतना अपमानित किया जाए कि दूसरे लोग उनसे सबक लें। यह कदम उन लाखों या शायद करोड़ों लोगों के लिए कड़ा सबक होगा जो अंधेर नगरी, चौपट राज में छुट्टे सांड बन चुके हैं। ऐसे सांडों के लिए कानून के डंडे के साथ ही बेइज्जती की नकेल भी डालनी होगी। यह उन लोगों के लिए भी कठोर सबक होगा जो सरकारी नौकरी का मतलब ही निठल्लापन और लूट का लाइसेंस हासिल करना समझ बैठे हैं। कृपया मानवाधिकार, सेकुलरिज्म और महिला अधिकारों के नाम पर जब तब क्रांति का झंडा उठाने वाले शांत रहें। क्योंकि ऐसे ज्यादातर नकली क्रांतिकारी ए.सी. कक्ष में बैठकर ही क्रांति करते हैं। इन लोगों से सावधान रहने की जरूरत है। ऐसे लोग ही कठोर नियमों के निर्माण में बाधा डालते हैं। अगर हम ऐसा करने में कामयाब हुए तो उस दिन न तो किसी अन्ना को भूखा रहना होगा, न किसी केजरीवाल को लाठी खानी होगी और न ही किसी गरीब की ईद और दिवाली फीकी होगी। तभी अच्छे दिन आएंगे। अगर मौजूदा लूट, कामचोरी और सरकारी कर्मचारियों की मनमानी ही अच्छे दिन हैं तो इन अच्छे दिनों से भगवान बचाए।

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राजीव शर्मा

ganvkagurukul.blogspot.com

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