महक सिंह तरार-
सारांश निकाला है कि…
अ) किसी भी धर्म का धार्मिक आदमी कभी भी अपने धर्म से ऊपर किसी सच, लॉजिक, रैशनल, फ़ैक्ट को स्वीकार नही कर सकता, ख़ास कर हिंदू व मुसलमान तो बिल्कुल नही। उपरोक्त साबित करता है की हरेक धार्मिक मान्यताओं पर चलता है सच पर नही। सातवें आसमान, स्वर्ग नरक, अल्लाह, गॉड, भगवान के मानने वाले ज़्यादा है व हमारे समाज में कट्टर होते जा रहे है। ऐसे नितांत रूढ़िवादी समाज में सेक्युलर लोगो की दोनो मिलकर ढोलक बनाएँगे। उन्हें गाली ही खानी है।
ब) MP-MLA का काम सिर्फ़ व सिर्फ़ क़ानून बनाना है मगर 99% नेताओ से जनता अपना थाना-कचहेरी-नोकरी-लाइसेन्स का निजी काम करवाना ही चाहते है। जनता पहले चोर नेताओ से काम निकालती थी अब डाकुओं से भी निकाल लेती है। बिना जनता में समझदारी आये सरकार बेशक बदल भी जाये मगर राजनीति नही बदलेगी। AAP जैसा नया दल राजनीति बदलने आया था, बहुत जल्दी पुरानो जैसा होकर भाजपा से भी बड़े बड़े झूठ बोलकर उन्हें टक्कर देने लगा। बारह हज़ार नोकरी देकर दस लाख बताते है।
Dharmender Kanwari भाई पत्रकारिता में नेताओ को कवर करते आये है उनके एक बयान से 100% सहमत हूँ कि “हमें ये वहम दिमाग़ से निकाल देना चाहिये कि कोई भी दल देश-समाज का भला करने के लिये राजनीति करता है। ये उनका ऑक्युपेशन है”
नुक़सान) मेरे निजी जीवन व अगली पीढ़ी पर चारों ओर के खूनी वातावरण, ख़राब इन्वेस्टमेंट माहोल, गुंडो मवाली नेताओ, नित दिन बढ़ती कट्टरता, महंगाई, ख़राब सुविधाओं का प्रभाव निश्चित ही पड़ता है।
नुक़सान के दो समाधान है !
पहला) मैं अपने काम धाम से समय निकालकर लगातार धार्मिक-राजनीतिक लोगो से संवाद करूँ भले उन्हें सही राजनीति (पॉलिसी मेकिंग) से वास्ता ही नही, ना अपने धर्म की वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आलोचनात्मक व्याख्या पसंद। ये पत्रकारों-लेखकों टाइप काम है की कुछ फ़र्क़ पड़े ना पड़े बस एक दिये की तरह टिमटिमाते रहो व खुद को शहीद की तरह आत्मिक तृप्ति देकर इस विचार के साथ बुझ जाओ की जो मेरे लिये सम्भव था, मैं वो करता रहा था !
दूसरा) ग़लत देख कर इग्नोर करता रहूँ, व्यक्तिगत एनर्जी/समय सेव करूँ, बुक्स पढ़ी जाये, स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाये ताकि चारों तरफ़ से हो रहे नुक़सान को किसी हद तक व्यक्तिगत जीवन में कम किया जा सके, क्यूँकि आख़िर हमारे जीवन में बाहर के वातावरण का प्रभाव 20-25% ही पड़ता है बाक़ी निजी जीवन में 70-80% योगदान तो निजी सामर्थ्य, संसाधन, शरीर या आत्मिक बल का ही है।
आपकी क्या राय है, पहला समाधान सही है या दूसरा !!
खुद के बारे में बता दूँ! मैं 1990 से 2010 मध्य तक सिर्फ़ नोकरी व नोकरी व साथ साथ पढ़ायी के पीछे लगा रहा व उसे साढ़े सात सौ रुपये से सवा दो लाख प्रति महीने तक खींच कर लाया। फिर लगने लगा कि सिर्फ़ खुद के लिये जीना कोई जीना नहीं, समाज भी ज़रूरी है। एशियन गेम्ज़ के दौरान भ्रष्टाचार की लड़ायी। वहाँ से अन्ना आंदोलन व AAP के रास्ते पर साढ़े चार साल बर्बाद किये। जो पैसा कमाया वो बर्बाद किया। जो पार्टी गली गली घूम घूम कर 100-100 रुपये की रसीद काटकर व शांतिभूषण के एक करोड़ रुपये के फ़्लैट को बेच कर खड़ी की वही राजनीति में चुनावी मजबूरी के नाम पर आधी रात को दो-दो करोड़ लेने लगी। बच्चों की क़सम खाके फिर समझौते करने लगी। जिस दिन 67 विधायक जीते उस दिन लगा एक मंज़िल हासिल हुई व पार्टी छोड़ काम पर लौट आये। बस पढ़ायी के नाम पर इस बीच लॉ अडिशनल काम कर लिया था। मैं आप की ४० की कोर कमेटी में था। किसी को नहीं पता था २०११ में कि ये RSS स्पॉन्सर्ड है।
सबको 2013 के आख़िर में पता लगा ये।
मैं केजरीवाल को भी बोल आया था। उसने कहा जीतने के बाद पार्टी में लोग घुसते हैं आप छोड़ कर जा रहे हो। मैने कहाँ जाट हूँ अगर जीत से पहले छोड़कर जाता तो लोग कहते हार गये। अब जीत गये तो वापस कुछ काम करूँगा।
राजनीति सही ग़लत का नाम नही है। यहाँ सर गिने जाते हैं। जिसके साथ मार्केटिंग, जाति, फ़्री बिजली पानी, मंदिर, मुसलमान आदि किसी भी मुद्दे के सहारे लोग जुड़ जाये वही सत्ता हासिल करके राज करता है, ना की पॉलिसी मेकिंग करता है। धर्म के अंधो की तो बात ही निराली है। तो सोच रहा हूँ कि इन दो सब्जेक्ट पर किसी भी तरह का संवाद करना बेकार है। इनपर satirical post के अलावा zero पोस्ट की जाये।