सन्त समीर गए काम से। बस अभी दस मिनट पहले। ‘कादम्बिनी’, ‘नन्दन’ बन्द। आज से फुरसत। अन्देशा जैसे कुछ दिन पहले से होने लगा था। चन्द रोज़ पहले मैंने श्रीमती जी से मज़ाक़ में कहा—अरे भई, चलो खादी भण्डार से कुछ कुर्ते (कुर्ता-पाजामा मेरा राष्ट्रीय पोशाक है) वग़ैरह ले लेते हैं, वरना यह नौकरी कभी भी जा सकती है और तब तुम कहोगी कि इस साल पाजामा पहनकर काम चलाओ, जब टेंट इजाज़त दे तो अगले साल कुर्ता पहनना। लगता है यह सन्त-वाणी प्रभु ने सुन ली और बेमन की साध पूरी कर दी।
कल की रात मैंने देर तक जागकर दफ़्तर का काम किया। कुछ अतिरिक्त के साथ आगे की तैयारी भी की, ताकि मेरी अन्तरात्मा मुझसे यह न कहें कि तुमने अपनी ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई। मेरी सन्तुष्टि बस इस बात में है कि मैंने हिन्दुस्तान टाइम्स के दफ़्तर में जब तक काम किया, अपने हिस्से से अतिरिक्त करके दिया। आमतौर पर दोगुना और कभी-कभी तीन गुना भी। पत्रिका के अलावा अख़बार के भी काम जब-तब करता रहा हूँ। वे काम भी मैंने किए, जिनका मेरी ज़िम्मेदारी से कोई लेना-देना नहीं था। कई घटनाओं में से शुरू के दिनों की एक छोटी-सी घटना याद आ रही है। सात-आठ साल पहले कनॉट प्लेस वाले दफ़्तर में तकनीकी बदलाव के दौरान यह समस्या आई कि लोअर वर्जन क्वार्क में अपर वर्जन वर्ड वग़ैरह की फ़ाइलें कैसे लाई जाएँ। हमारे आईटी विभाग के लोगों को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। कुछ लोग मेरे तकनीकी शौक़ को जानते थे, तो वे मेरे पास आए और बोले कि हमें विश्वास है कि इस समस्या का समाधान आप कर सकते हैं। ख़ैर, लगभग घण्टे भर की मशक़्क़त के बाद समस्या का समाधान मैंने खोज लिया। आईटी वालों ने इसी तरीक़े को जा-जाकर सबको समझाया और श्रेय भी ख़ुद ले गए। आज भी एचटी हाउस में मेरे बताए उसी तरीक़े से काम चलाया जा रहा है। ख़ैर…
दस साल इस तरह से काम करने का सबसे बड़ा मज़ा यह है कि हमारे समूह सम्पादक शशिशेखर जी को शायद ही अन्दाज़ा हो, कि मैं काम क्या करता रहा हूँ। सुकून की बात इतनी ही है कि जब वे नए-नए आए थे तो उनके साथ कादम्बिनी टीम की पहली बैठक हुई। परिचय होते-होते जब मेरा नाम आया तो बड़े प्रफुल्लित भाव से बोले—‘‘मुझे ख़ुशी है कि मैं पढ़े-लिखे लोगों के बीच में आया हूँ। आपकी किताब मैंने पढ़ी है, शानदार है।’’ मैं चूँकि पहली लाइन से नीचे था, तो इसके बाद मेल-मुलाक़ात का कोई संयोग नहीं रहा और फिर तो कौन किसकी ख़बर रखे? यह तो भला हो सोशल मीडिया का कि इसकी वजह से संस्थान के कई लोग मेरे बारे में कुछ-कुछ जानने लगे हैं, वरना तमाम लोग कभी जान भी न पाते कि हमारे आसपास सन्त समीर नाम का प्राणी भी कभी हुआ करता था।
बहरहाल, अभी खुला आसमान देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि अगली उड़ान कैसी होगी। समाजसेवा की आदतों के चलते मैं जीवन में कभी पैसा बचाने वाला काम नहीं कर पाया, पर बैङ्क खाते की तहक़ीक़ात की तो पता चल रहा है कि पहली बार ऐसी स्थिति बन गई है कि साल तो नहीं, पर कुछ महीने ज़िन्दगी ज़रूर चल जाएगी। ज़िन्दगी की कई शुरुआतें शून्य से की हैं, पर इस बार कम-से-कम शून्य पर नहीं हूँ…अलबत्ता, ज़िम्मेदारियाँ ज़रूर चुनौतीपूर्ण हैं। जब गृहस्थी सँभालनी चाहिए थी तो फ़क़ीरी की; और अब, फ़क़ीरी की बात सोचनी चाहिए तो गृहस्थी सँभालने के लिए युद्धरत हूँ। ज़िन्दगी सबक़ देती है। सोचता हूँ, जो हुआ, किसी भावी अच्छे का सङ्केत होगा। नौकरी ख़त्म बन्दिशें ख़त्म, अब बेलाग लिखने-पढ़ने से कौन रोक लेगा! मुश्किलें कुछ आसानियों का आग़ाज़ हो सकती हैं?
वरिष्ठ पत्रकार संत समीर की एफबी वॉल से।