न तो कवि की नीयत कुतुबमीनार खरीदने की है, न हैसियत। फिर भी जब वह कह रहा हो कि ‘मैं कुतुबमीनार खरीदना चाहता हूँ’, तो इसके कुछ निहितार्थ तो होंगे ही! पिछले दो-ढाई दशकों में हमने पहले उदारवाद और फिर नव-उदारवार के दौर का नजारा देख लिया है। इसके भुक्तभोगी भी रहे हैं हम। प्रथम चक्र में देश के बाजार को विदेशी कंपनियों के हवाले किया गया और द्वितीय चक्र में बेशकीमती संसाधनों की लूट का नंगा नाच खेला गया, जो अब भी जारी है। लेकिन मामला सिर्फ संसाधनों की लूट तक सीमित नहीं रहा। विदेशी पूंजी का निर्बाध प्रवाह अपने साथ एक ऐसी संस्कृति भी लेकर आता है जो सबसे पहले देश की विविधता वाली संस्कृति पर निर्णायक वार करता है। बहुलतावादी संस्कृति बड़ी पूंजी को रास नहीं आती है। अलग पहनावे, अलग खान-पान, अलग-अलग परंपरायें बड़े-बड़े बहुराष्ट्रीय ब्राण्ड की आक्रामक मार्केटिंग के रास्ते में रोड़ा होती हैं।
दक्षिण का आदमी इडली-दोसा खाये और उत्तर का छोले-भटूरे तो मेकडोनेल्ड का क्या होगा? इसलिये वह सबसे पहले स्थापित परंपराओं-चलन पर चोट करता है और विकल्प के रूप में स्वयं को स्थापित करता है। होली-दीवाली में योजनाबद्ध ढंग से मिलावटी मिठाइयों की खबरें दिखाई जाती हैं और इसके समांतर मिठाई के स्थानापन्न के रूप में ‘कुछ मीठा हो जाये’ के मंत्र के साथ चॉकलेट के विज्ञापन लगातार चलते रहते हैं। वह हमारी बोली-भाषा को भी खत्म करता है। वह जयपुर फेस्टिवल के बहाने हमारी भाषा -साहित्य को बेदखल करता है। वह लोक-संस्कृति के विरूद्ध एक छद्म ‘पापुलर-कल्चर’ को खड़ा करता है और इसके लिये आमतौर पर नंगेपन का सहारा लेता है।
हर चीज को बेचने-खरीदने का सिलसिला यहीं से शुरू होता है। हमारे नदी-पहाड़-जंगल तक बिक जाते हैं। यहाँ पर एक मजे की बात आपसे साझा करना चाहता हूँ, जो यह बताती है कि सरकार पर पैसा कमाने की सनक किस तरह सवार है। डाक-टिकिटों के महत्व के बारे में हम सभी को बता है। कई लोग महापुरूषों पर बने डाक-टिकिटों का संग्रह भी करते हैं। ये इतिहास की कई कहानियाँ अपने साथ लेकर चलती हैं। लेकिन हाल ही में भारतीय डाक विभाग ने पैसों की उगाही के लिये ‘माई फ्रेंड, माई टिकिट’ नाम की एक योजना प्रारंभ की है, जिसके तहत महज 300 रूपये खर्च करके अपनी पहचान का सबूत देकर आप किसी के भी नाम डाक-टिकिट बनवा सकते हैं। यानी आपके कोई बाल-सखा चोर, डकैत, तस्कर, रिश्वतखोर अफसर, भ्रष्ट नेता या सट्टेबाज क्रिकेट खिलाड़ी जैसी कोई योग्यता रखते हों तो आप उन पर डाक-टिकट जारी करवा कर उन्हें इतिहास के पन्नों में जगह दिलवा सकते हैं। हो सकता है कि कल कोई इसी तरह की योजना पद्म पुरस्कारों के लिये भी आ जाये। यों मीडिया और कारपोरेट के दबाव में ‘रत्न’ बनाने का सिलसिला तो शुरू हो ही गया है। ऐसे में कवि अगर कुतुबमीनार (या इसके साथ ताजमहल) खरीदना चाहता है तो इसमें अचंभा कैसा?
बकौल शायर, ”नेताओं ने गांधी की कसम तक बेची/कवियों ने निराला की कलम तक बेची/ पूछो मत इस दौर में क्या-क्या न बिका/इंसान ने आँखों की शरम तक बेची।” यह जो बिकने-बेचने का सिलसिला है, अक्षय जैन की कवितायें इसी के विरोध में बहुत मजबूती के साथ खड़ी होती हैं। वे ये कवितायें महज स्वांतः सुखाय नहीं लिखते, बल्कि एक आंदोलन की विचारधारा के तहत लिखते हैं और भरसक प्रयास करते हैं कि विभिन्न माध्यमों से ये रचनायें आम-जन तक पहुँचे, जिन्हें संबोधित करते हुए ये रचनायें लिखी गयी हैं। यह पुस्तिका भी इसी प्रयास का हिस्सा है, जो हिंदी-जगत में भले ही पहला न हो पर दुर्लभ तो है ही।
यह बताया जाना भी जरूरी है कि अक्षय जैन को किसी खास किस्म की विचारधारा के खाँचे में नहीं बिठाया जा सकता। दक्षिणपंथी उन्हें कम्युनिस्ट समझ सकते हैं और कम्युनिस्ट उन्हें गांधीवादी। गांधीवादी उन्हें कुछ और समझ सकते हैं पर मुक्तिबोध के लहजे में उनसे पूछा जाये कि ‘पार्टनर, आपकी पालिटिक्स क्या है?’ तो वे कहे कहेंगे कि वे एक ऐसा भारत चाहते हैं जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विदेशी पूंजी की गुलामी से मुक्त होकर आत्म निर्भर हो और बकौल गांधी नकली इंग्लिस्तान न होकर असली हिंदुस्तान हो। उनकी राजनीति, उनका वाद, उनकी विचारधारा यही है।
पुस्तक: मैं कुतुबमीनार खरीदना चाहता हूँ (कविता पोस्टर संग्रह)
प्रकाशक: ‘दाल-रोटी’ 13, रशमन अपार्टमेंट, उपासनी हॉस्पिटल के ऊपर, एस. एल. रोड, मुलुंड (पश्चिम), मुंबई-400080
मूल्य: रु. 40
समीक्षक दिनेश चौधरी से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.