Prabhat Ranjan : आज ब्रजेश्वर मदान को कोई याद नहीं करता. वे अपने जमाने के मशहूर फिल्म पत्रकार थे. ‘फ़िल्मी कलियाँ’ के संपादक थे और यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘जंजीर’ की पब्लिसिटी उन्होंने ही की थी. किस्सा यह है वे जासूसी लेखन के बादशाह सुरेन्द्र मोहन पाठक के दोस्त थे. दोनों अक्सर शाम को रसरंजन की महफ़िल जमाते थे.
यह तस्वीर मदान साहब की बीमारी के बाद स्वास्थ्य लाभ के समय की है.
एक बार मदान साहब ने पीकर सुरेन्द्र मोहन पाठक को उनके लेखन के लिए बहुत लताड़ा. कहा कि तुम लोकप्रिय लिखने वाले क्या जानो कि साहित्य क्या होता है! उसके कुछ दिनों बाद पाठक जी का उपन्यास आया था. जिसमें पहले पन्ने पर एक पंक्ति थी- गोली चली और ब्रजेश्वर मदान ढेर हो गया! बहरहाल, पाठक जी इस पूरे किस्से से इनकार करते हैं लेकिन मैं किस्सों पर भरोसा करने वाला आदमी हूँ ब्रजेश्वर मदान का पुराना मुरीद! इस मासूम किस्से को गलत मानने का मन ही नहीं करता है न! है न मजेदार?
प्रभात रंजन के उपरोक्त एफबी स्टेटस पर आए कुछ प्रमुख कमेंट्स इस प्रकार हैं…
Dhananjay Kumar मैं 89-90 में उनसे दिल्ली में मिला था. उनको पटना से ही जानता था. अखबारों और फिल्मी कलियाँ में उनके आलेख पढ़ा करता था. दिल्ली में अनायास मुलाकात हो गई, दरियागंज में, किसी फिल्म मैगजीन के दफ्तर में. बहुत देर बात करते रहे. उन्होंने पूछा था कौन फिल्म पत्रकार पसंद है सबसे ज्यादा? मैंने मनमोहन तल्ख जी का नाम लिया था. वो हँसे थे. सब ऎसा ही कहते हैं. मैंने कहा आप हिन्दी फिल्मों की बात करते हुए भी अंग्रेजी और विदेशी फिल्मों के उद्धरण ज्यादा देते हैं, जबकि मनमोहन जी शुद्ध रूप से हिन्दी समाज और सिनेमा की बात करते हैं. फिल्म पत्रकारिता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी उन्हें मिला था, विनोद भारद्वाज के बाद.
Vinod Bhardwaj मदान मेरे भी प्रिय रहे हैं. दिनमान में उदय और मैं अक्सर उनसे बतियाते थे. उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार नंदनजी की अध्यक्षता में मिला था. नंदनजी ने मुझसे कहा तुमने अप्लाई क्यूँ नहीं किया? मैं इस सिस्टम का विरोधी था कि लेखक ख़ुद अपनी कतरने भेजे, किताब तो प्रकाशक भेज सकता था. जिन्होंने अप्लाई किया होता था उन सबके नाम रिलीज़ होते थे हर साल, इसलिए मदान से पहले या बाद में मुझे पुरस्कार मिलने का सवाल नहीं था. पर एक बार मैं इस पुरस्कार की जूरी में था तो हमने मनमोहन चड्ढा को उनकी पुस्तक के लिए उन्हें दूसरा राष्ट्रीय पुरस्कार दिया था, फ़िल्म पत्रकार का पुरस्कार वे पा चुके थे. ताकि सनद रहे.
Dhananjay Kumar विनोद सर आपका आभार आपने जानकारी दुरूस्त की। मैं प्रक्रिया के करीब नहीं था, इसलिए बारीकियाँ मुझे पता नहीं थी।
Archana Verma क्या किसी को कोई सूचना है ब्रजेश्वर मदान के बारे में? हंस के दफ़्तर में नियमित आया करते थे। बरसों। लेकिन गायब हुए तो अचानक कि कभी कुछ पता ही नहीं चला। जिससे भी पूछा, ‘नहीं मालूम’ ही जवाब मिला। मेरे बहुत प्रिय कथाकार!
Pramod Kumar आजकल कहाँ हैं श्री मदान जी? ‘आलमारी में रख दिया है घर’ नाम से एक कविता संग्रह अयन प्रकाशन से करीब दस साल पहले आया था. शायद वो मदान जी का ही था. मैंने बहुत खोजा मुझे मिल नहीं पाया.
Dileep Kumar Sharma मदन साहिब पे ऐसे तो तनु जी ने भी लिखा है लेकिन आपका आलेख ..जानकी पुल ..बर्बाद जीनियस थे (हैं) ब्रजेश्वर मदान … अतुलनीय है ..अधिकांश कहानियां तो ‘फिल्मी कलियां’ में छपीं जिसके वे अघोषित संपादक थे और जिसका मालिक उन्हें रोज वेतन की जगह शराब की एक बोतल पकड़ा देता था… समाज की विसंगति को उजागर करती है.
Swapnil Srivastava मैं फिल्मी कलिया का नियमित पाठक था. वह इसलिये कि मदान जी किसी न किसी रूप में मौजूद रहते थे. आप को उनकी कहानियां भी याद होगी और कवितायें भी. साहित्य संसार इतना कृतघ्न है याद करने की जरूरत नहीं समझता. आप अपने ब्लाग पर उनके बारे में बतायें..
Shashi Bhooshan Dwivedi मेरा संस्मरण शायद जानकीपुल पर आया है मदान साहब को लेकर। पैरालाइसिस के बाद वे अपने भतीजे के यहाँ थे। संपर्क में भी। लेकिन पिछले कुछ सालों से उनका कुछ पता नहीं। शायद अब दुनिया में भी नहीं हैं। उनकी किताबें भी आउट ऑफ़ प्रिंट हैं। हाँ दिल्ली विश्वविद्यालय की लायब्रेरी में शायद मिल जाएँ। किसी ने बताया था।
Kavi Ta सच्चा लेखाक ऐसे ही गुम होता है चुपचाप किसी कोने में जिन्दगी को घिसटते-घिसटते मर जाता है…..वो कहाँ गया उसकी किताबें कहाँ हैं, हैकी नहीं..किसीको कहाँ फर्क पड़ता है…
Dinesh Shrinet ब्रजेश्वर मदान कहानियां भी लिखते थे। उनकी कहानियों का शिल्प काफी अलग किस्म का हुआ करता था। हिन्दी कहानियों में जिन गिने-चुने लोगों ने प्रयोग करने का हौसला दिखाया उनमें ब्रजेश्वर मदान भी थे। हिन्दी में लोग जानबूझकर भुला दिए जाते हैं।
Subhash Rupela जब पाठक जी ने लिख दिया कि गोली चली, तो उसके बाद के प्रभाव की झलक प्रभात जी ने दिखा दी। ऐसे में भला कोई मशहूर हस्ती ब्रजेश्वर जैसी लापता हो गई, तो कोई इतना बड़ा अजूबा कहां हुआ? हाँ, उनके काम के कद्रदानों के दिल में वो ज़िंदा-ताबिंदा हैं।
Dileep Kumar Sharma : कभी मेरे शब्दों में बोलते हैं मार्क्स,
कभी माओत्से तुंग
कभी फ्रायड, एडलर और युंग
कभी मेरे माता-पिता और शिक्षक
मैं जब भी बोलता हूं
मैं नहीं
कोई और बोल रहा होता है
लेकिन जब तुम्हारे
प्रेम में बोलता हूं
तो मेरी मैं में
कोई और नहीं
बस मैं होता हूं
(अलमारी में रख दिया है घर, ब्रजेश्वर मदान)
वर्ष 2009 जुलाई में मदान साहब की सेहत और उनकी मन:स्थिति के उपर भड़ास में दो आर्टकिल छपे थे, जिसके लिंक यूं हैं…