आरुषि हमें माफ करना। इंसाफ की जंग में तुम हार गई। हारती ही रही तुम हर बार, मारी ही जाती रही हो तुम हर बार। हमें माफ करना आरुषि। हमारी बनाई इंसाफ की इमारत से, हमारे रचे कानून की किताबों से, वकीलों से, न्यायधीशों से तुम्हें फिर हार मिली, तुम्हें फिर इंसाफ नहीं मिला। तारों वाले, सितारों वाले वर्दियों से, मोमबत्ती वाले, कार्ड बोर्ड वाली इबारतों से, तनी मुट्ठियों से नारों से एक बार फिर तुम्हें इंसाफ नहीं मिला।
माफ करना आरुषि हमें.। हमारी कलम से, कैमरों से, स्क्रिप्ट से बहसों से, लेखों से आर्टिकल से तुम्हें फिर इंसाफ नहीं मिला, नक्कारखानों में गूंजती हमारी चीखों से, घुटती हमारी सिसकियों से, उबलते गुस्से से, बिखरते ज्जबे से भी तुम्हें इंसाफ नहीं मिला। आंखों पर बंधी पट्टियों से..मूर्ति में लटकते तराजू से, हमारे आजु से बाजु से, गिलासों से काजू से एक बार फिर इंसाफ नहीं हो सका।
माफ करना आरुषि हमें। ऊंची दीवारों से, लरजती आवाजों से, टलते सवालों से, पिटते खयालों से एक बार फिर इंसाफ नहीं हुआ। उमड़ती भीड़ों से, सिमटते नीड़ों से गायब हो गया इंसाफ।माफ करना आरूषि हमें। तुम्हें इंसाफ दिलाने से ज्यादा ज़रूरी था एक रसूखदार को बचाना। हमारे लिए तुम्हें इंसाफ दिलाने से ज्यादा ज़रूरी है गोबर पर बहस करना, गौमूत्र पर चर्चा करना। माफ करना आरुषि हमें हम तो पप्पू और फेंकू गढ़ने में लगे रहे, हम तो सड़कों के नाम बदलने की राह पर चलते रहे।
माफ करना आरुषि हमें। जुमलों के जालों ने, पत्थरों के पार्कों ने, दलितवाद ने, समाजवाद ने, भगवा भाग्य ने, गांधी जाप ने एक बार फिर इंसाफ नहीं होने दिया। माफ करना आरुषि हमें। हमारी हारती हिम्मत ने, टूटते भरोसे ने, स्वार्थ के फंदों ने एक बार इंसाफ नहीं होने दिया। तुमने सबकुछ देखा तारों के पार से, सिस्टम की मक्कारी भी, बिकते अधिकारी भी, लिजलिजाती व्यवस्था भी, थरथराती अवस्था भी, पोथी भी बस्ता भी तुमने सब देखा होगा तारों के पार से दूर इस संसार से। तुम एक बार कातिल से मारी गई और फिर कई बार कानून की जुबान बोलती हमारी व्यवस्था से मारी गई।
आरुषि पहली बार नहीं हारा है इंसाफ। ये बार-बार हारता रहा है, ये बार-बार आरुषियों को मारता रहा है। तुम देखना तारों के पार से, एक दिन तनेंगी जनता की मुट्ठियां भी, एक दिन गरजेगी अवाम की आवाज भी। फिर टूटेगा सबसे बड़ी पंचायत का भ्रम, फिर मारा जाएगा बिकने वाला इंसाफ भी, धिक्कारे जाएंगे बिकने वाले हाकिम भी, हुक्काम भी, उतर जाएगी इंसाफ की देवी की आंखों पर पड़ी पट्टी भी। आरुषि फिर तब कहीं जाकर मिलेगा आरुषियों को इंसाफ है। तुम देखना तारों के पार से, एक दिन जरूर तनेंगी अवाम की मुट्ठियां तुम्हारी ललकार से। तब तुम हमें माफ कर देना। जब तक वो मुट्ठी तन नहीं जाती आरुषि हमें माफ मत करना।
असित नाथ तिवारी
आउटपुट हेड/एंकर
के न्यूज
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Shweta
October 13, 2017 at 4:48 pm
Very true