Deshpal Singh Panwar : शरद यादव मीडिया को लेकर संसद में बोले और सच बोले। मीडिया मालिकों के हालात बेहतर से बेहतर और पत्रकारों की हालत बदतर। केवल 10 फीसदी ही बेहतर हालत में। आखिर मीडिया पूंजीपतियों का गुलाम कैसे हो गया.. इसका जवाब वही नेता दे सकते हैं जो इस समय सत्ता में हैं। याद करिए 2003 का दौर। मीडिया को गुलाम बनाने की नींव रखने वाले महाजन, जेटली और सुषमा ने विदेशी पूंजी निवेश के नाम पर मीडिया के दरवाजों पर कालिख पोत डाली थी।
मीडिया मालिकों को समझ में आ गया कि अखबार में ताकत है लिहाजा उसके बलबूते सारे धंधों में उतर गए। जमीनें हथियाईं। पावर प्लांट हो या फिर कोयले या सोने की खान। हर तरह का धंधा। रही सही कसर अंबानी ने पूरी कर दी। देश एमपी के एक बड़े अखबार को लीजिए वो अब केवल उसी राज्य में जाता है जहां उसे अखबार के सहारे धंधा चोखा नजर आता है। देश में फैल चुका है और क्या-क्या धंधे उसके नहीं हैं। पत्रकार से लेकर संपादक तक धंधों की रक्षा में लगे रहते हैं।
छत्तीसगढ़ में तो एक अखबार इस वजह से खोला गया कि काले सोने की एवज में हर साल दी जाने वाली घूस की रकम से ज्यादा सस्ता अखबार खोलना पड़ रहा था। अब कोई ना तो घूस मांगता, ऊपर से अखबार के सहारे अब तो सत्ता के शिखर तक वो पहुंच गए हैं। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण मेरे सामने हैं। पत्रकारों से ज्यादा मीडिया मालिकों ने माहौल खराब कर दिया है। रही-सही कसर राज्यों की सरकारों ने पूरी कर दी है। मालिक को एक फोन और अखबार के सारे पत्रकार व संपादक नतमस्तक, तो खबर कहां बचेगी…
शरद जी गलत नहीं कहते कि कानून बनाया जाए। पत्रकारिता को मरने से बचाने के वास्ते मीडिया मालिकों के धंधों पर रोक लगाई जाए ताकि पत्रकार जिंदा रहे।खबर फिर जिंदा हो। लोकतंत्र मजबूत हो। काश मरने से पहले ये दिन देखने को मिले। शरद जी को बधाई। कोई तो ऐसा नेता है जो इस मसले पर बोल रहा है वरना ज्यादातर तो सरकारों व बड़े घरानों के दरबारी ही नजर आते हैं।
कई अखबारों के संपादक रह चुके वरिष्ठ पत्रकार देशपाल सिंह पंवार की एफबी वॉल से.
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