छायाकार साथी मंसूर आलम के इंतकाल की खबर अंदर तक हिला गई। हिंदुस्तान की लांचिंग के वक्त हमने साथ काम किया था। बेहद सरल और भावुक मंसूर को कभी किसी भी कवरेज के लिए कह दीजिए, ना मना करते थे और ना ही चेहरे पर कोई शिकन लाते। ऐसे शख्स को कोई संपादक टेंशन कैसे दे सकता है। वैसे संपादक को ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता। कारण पुराना है। फौज में जिस तरह ट्रेनिंग होती है और फिर वो रंगरूट ट्रेनर बनता है तो वही करता है। कुछ ऐसा ही उसके साथ है।