स्थानीय संपादक प्रदीप कुमार की मीटिंग से पहले और बाद में ये साहब ठंढ में भी पसीना साफ करते नजर आते थे

छायाकार साथी मंसूर आलम के इंतकाल की खबर अंदर तक हिला गई। हिंदुस्तान की लांचिंग के वक्त हमने साथ काम किया था। बेहद सरल और भावुक मंसूर को कभी किसी भी कवरेज के लिए कह दीजिए, ना मना करते थे और ना ही चेहरे पर कोई शिकन लाते। ऐसे शख्स को कोई संपादक टेंशन कैसे दे सकता है। वैसे संपादक को ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता। कारण पुराना है। फौज में जिस तरह ट्रेनिंग होती है और फिर वो रंगरूट ट्रेनर बनता है तो वही करता है। कुछ ऐसा ही उसके साथ है।

पत्रकार से लेकर संपादक तक अपने मालिकों के धंधों की रक्षा में लगे रहते हैं (संदर्भ : शरद यादव का रास में मीडिया पर भाषण)

Deshpal Singh Panwar : शरद यादव मीडिया को लेकर संसद में बोले और सच बोले। मीडिया मालिकों के हालात बेहतर से बेहतर और पत्रकारों की हालत बदतर। केवल 10 फीसदी ही बेहतर हालत में। आखिर मीडिया पूंजीपतियों का गुलाम कैसे हो गया.. इसका जवाब वही नेता दे सकते हैं जो इस समय सत्ता में हैं। याद करिए 2003 का दौर। मीडिया को गुलाम बनाने की नींव रखने वाले महाजन, जेटली और सुषमा ने विदेशी पूंजी निवेश के नाम पर मीडिया के दरवाजों पर कालिख पोत डाली थी।

हां मोदी जी, आपके माथे पर एक नहीं, कई कई कलंक हैं, लीजिए सुनिए…

Deshpal Singh Panwar :  बड़े सरकार आज मेरठ की धरती पर दहाड़ रहे थे -है कोई कलंक मेरे माथे पर-बिना किसी की सुने खुद ही फैसला सुना रहे थे-नहीं है ना। तो सुनिए मैं बताता हूं आपके माथे पर कलंक क्या-क्या हैं, ना तो अाप मानेंगे और ना ही आपके चेले फिर भी–