नए मीडिया हाउसेज धड़ाधड़ बंद हो रहे हैं। सर्किल न्यूज एप्प में जबरदस्त छंटनी के बाद अब सूचा है कि Opera News भी बंद हो गया। 13 दिसंबर आखिरी दिन तय किया गया है। ओपेरा हिंदी, इंग्लिश, मराठी, तेलगू, गुजराती, बंगाली, उर्दू, कन्नड़, उड़िया में था।
नोएडा सेक्टर 16 स्थित आफिस में कल आफिशियली ऐलान किया गया कि चाइनीज कंपनी जिस टारगेट के साथ UC की तरह मैदान में कूदी थी, उस हिसाब से वो टारगेट पूरा नहीं कर पाई। पिछले साल नवंबर/दिसंबर में Opera का सिलसिला शुरू हुआ था।
साल पूरा होने से पहली शटर डाउन कर दिया गया। सारे कर्मचारी दहशत में हैं। अनुमानित 150 लोग बेरोजगार होंगे।
ओपेरा की बंदी से स्तब्ध कर्मियों ने एक अपील जारी की है, जो इस प्रकार है-
On November 13, 2019, our company ‘Opera News’ which is a subsidiary of Opera browser fired approximately 150 workers on the pretext of closing their operations in India. The decision was a surprise for all of us working here. We’ve been asked to serve the notice period till December 13 and in the meantime also look for job. Many people working here are married with kids and they are now suddenly jobless. Kindly look into the matter and publish a story.
युवा पत्रकार सिद्धार्थ चौरसिया ने मीडिया के वर्तमान हाल में जी रहे पत्रकारों के लिए चंद लाइनें अपने अंदाज़ में पेश की हैं, जो इस प्रकार हैं-
हर बेरोजगार पत्रकार के लिए…
खेत बेचकर पढ़े पढ़ाई, उल्लू बने बिचारे
कितनी अर्ज़ी दिए न जाने, कितना फूंके तापे
कितनी धूल न जाने फांके, कितना रस्ता नापे
लाई चना कहीं खा लेते, कहीं बेंच पर सोते
बच्चू बाबू हूए छुहारा, झोला ढोते-ढोते
उमर अधिक हो गई, नौकरी कहीं नहीं मिल पाई
चौपट हुई गिरस्ती, बीबी देने लगी दुहाई
बाप कहे आवारा, भाई कहने लगे बिलल्ला
नाक फुला भौजाई कहती, मरता नहीं निठल्ला
ख़ून ग़रम हो गया एक दिन, कब तक करते फाका
लोक लाज सब छोड़-छाड़कर, लगे डालने डाका
बड़ा रंग है, बड़ा मान है बरस रहा है पैसा
सारा गांव यही कहता है बेटा हो तो ऐसा।
मीडिया की जवानी कहां काम आएगी?
मोदी सरकार ने आर्थिक नीति के मोर्चे पर अनगिनत निर्णय लिए हैं, जिनमें से नौ निर्णय काफी मायने रखते हैं। वित्तीय समावेश से लेकर काले धन की पहचान करने एवं उस पर तगड़ा प्रहार करने और कॉरपोरेट दिवालियापन तक इन आर्थिक नीतियों में शामिल हैं, जो पिछले कुछ महीनों के दौरान विभिन्न परिचर्चाओं में काफी हद तक हावी रही हैं। इनमें से कुछ नीतियां तो अतीत के ही अनूठे आइडिया का विस्तृत रूप हैं। मतलब यह कि इन आइडिया पर पहले से ही काम चल रहा था जिन्हें और आगे ले जाया गया है। उदाहरण के लिए, इस तरह की नीतियों में ‘आधार’ या वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) शामिल हैं। वहीं, दूसरी ओर अन्य आर्थिक नीतियां जैसे कि विमुद्रीकरण (नोटबंदी) और दिवाला एवं दिवालियापन संहिता बिल्कुल अभिनव आइडिया हैं। कुछ आर्थिक नीतियों जैसे कि जीएसटी के मामले में सरकार को संसद, राज्यों और मीडिया से भरपूर सहयोग मिला। उधर, अन्य आर्थिक नीतियों, मुख्यत: विमुद्रीकरण (नोटबंदी) के मामले में सरकार को इस तरह का सहयोग नसीब नहीं हुआ। चाहे अच्छी हों या बुरी।
इन दिनों कई भारतीय कंपनियां बुरे दौर से गुजर रही हैं, जो इनमें निवेश को और भी जोखिमपू्र्ण बनाता है। हालांकि, कई निवेशक इसे पासा पलटने का विशेष अवसर भी मान रहे हैं। डूब रही इन कंपनियों में बढ़ता रिटेल निवेश मार्केट विशेषज्ञों के लिए हैरत भरा है। इसमें कुछ ज्ञानियों का कहना है कि बाजार में कंपनियों का कायापलट कई कारणों से हो सकती है। इसमें प्रबंधन में बदलाव, कीमतों में फेरबदल, सरकारी नियमों में परिवर्तन और इंडस्ट्री में आई एकाएक तेजी जैसे कई कारण शामिल हैं।
भारत में हर क्षेत्र की एक के बाद एक कंपनियों के डूबने और आर्थिक संकट से जूझते देख, कई आर्थिक ज्ञानियों-महाज्ञानियों का कहना है कि आज देश की इन कंपनियों की जो स्थिति है, उसके लिए कोई और ज़िम्मेदार नहीं है। बल्कि केवल और केवल सरकार की ग़लत नीतियां ही इसकी ज़िम्मेदार हैं। आर्थिक बाबाओं/पंडितों की मानें तो यह अभी शुरुआत है। आने वाले दिनों में और कई पुरानी एवं बड़ी कंपनियों का यह हाल होने वाला है, क्योंकि मोदी सरकार की ज़्यादातर आर्थिक नीतियां भारत के कुछ ख़ास उद्योगपतियों के इर्द-गिर्द घूमती नज़र आ रही हैं।
इसी में अगर, सरकार उद्योगपतियों के बीच में मीडिया की बात करें तो, मीडिया दोहरी चरित्र अपना रही है। देश में बहुत सारी समस्याएं हैं। लेकिन मीडिया को शायद उनसे कोई सरोकार नहीं है। चाहे हम किसानों की आत्महत्या की बात करें या फिर महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों या अपराधों की। बेरोजगारी-भूखमरी तो छोड़िए ही। ये भारतीय मीडिया के बैक होल कैपिसिटी से ज्यादा मोटा है। जाहिर है, ऐसे मामलों को न जगह देने में या तो कंजूसी के साथ जरूरी संवेदनशीलता नहीं बरतेगी। जो मौजूदा वक्त में भारतीय अंधा समाज बदचलन मीडिया के बाहों में हाथ डालकर चल पड़ी है। वो हर तरह से राष्ट्र निर्माण में बाधक है। जो मीडिया क्षेत्र में सक्रिय हैं, वो भलीभांति परिचित हैं कि मौजूदा मीडिया राष्ट्र निर्माण में कितना लाभकारी है?
मोदी सरकार की महत्वाकांक्षा की डंक ने विपक्ष को पहले ही खत्म कर दिया। धीरे धीरे वो जहर मीडिया के जरिए समाज के हर कोने कोने तक पहुंच रही है। सरकार का टोना टोटका मीडिया और मीडिया दर्शकों पर ऐसा चला कि फटेहाली में भी वाहवाही निकल रही है। बीते सालों में अन्य क्षेत्रों की कंपनियों को छोड़ दें तो कई ठिगुने मीडिया वेंचर नप गए। लेकिन, गुर्दई मीडिया वेंचर पर टोना टोटका का असर ऐसा है, जिसमें आह की जगह वाह ही निकल रही है।
आलम ये है कि न्यूज़ डेस्क पर सरकार की नीतियों का बखान करने वाले घसीटालाल, उसी सरकार के टोना टोटका का शिकार हो रहे हैं। जो इस भेड़ियाधसाम में शामिल हो सकने के लिए गुर्दा नहीं जुटा पाते। स्थिति उनके लिए भी सड़क नापने जैसी ही है। क्योंकि नौकरी पहले से नहीं है, जो खिंचखांच के मीडिया वेंचर चल रहा था। वो भी एक एक कर के नप रहे हैं। अब सवाल ये उठता है, पहाड़ का पानी पहाड़ के या किसी काम आए या न आए। ये भरी जवानी कहां काम आएगी?