Braj Mohan Singh : OUTLOOK has shown real guts to publish this letter after 600-700 journalists were sacked in a very unethical manner @telegraph. In fact, how many did show this courage to highlight the plight of journalists? How many press clubs decided to take out protest rallies? And in which cities?
Entire media & media fraternity are facing similar situation in english and language papers. Future looks gloomy as cash flow has stopped pouring, bad management and unethical practices have ruined many lives. Be ready for bloodbath and unholy handshakes in media houses in 2017. Its gonna be hell.
पत्रकार ब्रज मोहन सिंह की उपरोक्त एफबी पोस्ट पर आया एक पठनीय कमेंट यूं है जो आउटलुक समूह की पोल खोलता है…
Sekar Narayanan : Will Outlook have the same guts to publish/interview sacked staff (including journalists) of Marie Claire, People and other magazines shut down by them. Veey wasy to shoot from someone else’s shoulder.
दरअसल आउटलुक ने एबीपी ग्रुप से निकाले गए पत्रकार बिश्वजीत की उस लंबी खुली चिट्ठी का प्रकाशन किया है जो उनने फेसबुक पर पोस्ट किया था… चिट्ठी मूलत: अंग्रेजी में है जिसका हिंदी रूपांतरण नीचे दिया जा रहा है…. पढ़िए क्या लिखा बिश्वजीत ने अपने लेटर में-
मैंने ABP ग्रुप के 700 अन्य कर्मचारियों की तरह दबाव में आकर टेलीग्राफ से रिज़ाइन कर दिया है. मेरे अलावा 17 जिलों में कार्यरत 22 अन्य पत्रकारों ने टेलीग्राफ से इस्तीफ़ा दिया है. ABP ने मुझे इस्तीफ़ा लिखने का भी मौका नहीं दिया, पर मेरा साइन ज़रूर लिया. कंपनी ने इतने कर्मचारियों के निकाले जाने के बारे में कुछ भी मेंशन नहीं किया. जब मैं साइन कर रहा था तो मुझे कोई लिखित आश्वासन नहीं दिया गया कि मेरे Package का क्या होगा और मेरा बकाया मुझे मिलेगा कि नहीं. मेरे सीनियर ने इस पर Countersigned किया, पर जैसा कि मेरे कॉन्ट्रैक्ट में लिखा था कि मुझे निकाले जाने की वजह बताई जाएगी, वो नहीं बताई गई. जॉब से रिज़ाइन करने का दबाव मुझ पर इस महीने की शुरुआत से ही दिया जाने लगा था. हालांकि मेरा कार्यभार 1 मार्च को खत्म होगा, पर ऑफिस के कंप्यूटर से मेरा एक्सेस हटा दिया गया, ताकि मुझे पता चल जाये कि मैं वहां के लिए अब बिलकुल बेकार हूं.
इतना ही नहीं, मुझे अपना स्वाइप कार्ड जमा करने को कहा गया. साथ ही मुझे ये कहा गया कि अगर मैं उनकी बात नहीं मानूंगा, तो मेरा बकाया नहीं दिया जाएगा. अब मुझे अपने ही ऑफिस में बाहरी बन कर रहना पड़ता है, मुझे HR टीम से मिलने के लिए फ़ोन करके अपॉइंटमेंट लेना होता है. मुझे सालों तक यहां अपनी कर्तव्यनिष्ठा का ये फ़ल नसीब हुआ है. मुझसे ऐसी कंपनी पर विश्वास करने को कहा जाता है, जिसे अपनी फाइनेंशियल क्राइसिस से लड़ने के बजाय अपने Staffs को निकाल फेंकने में समझदारी लगी. हमें कोई सम्मानजनक विदाई भी नहीं मिली, बल्कि किसी आम ऑडियंस की तरह एक लिस्ट पकड़ा दी गई, जिसमें बाहर जाने वालों का नाम लिखा था. शायद इसके पीछे भी कोई कारण रहा होगा कि हमारी कोई मदद न कर सके.
हम कभी उनकी उस पवित्र जगह तक नहीं पहुंच पाए, जहां हमारे ये उपदेवता हमें पहुंचाना चाहते थे. इस जगह पर जो सबसे बड़ा पुजारी है, वो किसी हत्यारे जैसा बर्ताव करता है. पर असल बात ये है कि उन्हें पता ही नहीं कि तलवार उन पर भी लटक रही है. जो पहले निडरता से किसी मुद्दे की बात करते थे, अब बड़ी मुश्किल से अपने बॉस से बात कर पाते हैं. अगर प्रोफेशनलिज्म का मतलब उनके लिए इस बात से है कि चुपचाप उनकी बात मान ली जाए, तो उन्हें मेमने और भेड़ के बच्चों की चरवाही शुरू कर देनी चाहिए. उन्हें मेरी कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए. उनके लिए सबसे आसान है मोदी, ट्रंप और ममता पर आरोप लगाना कि वो मीडिया को कण्ट्रोल करने की कोशिश में लगे हैं. ये डर और चुप्पी बड़ी ख़तरनाक है. मैं अपना सिस्टम लॉक होने की वजह से अपने Colleagues को विदाई की ख़बर भी न दे पाया. मैं सबसे मिलकर जाना चाहता था, पर वहां की चुप्पी ने मुझे खाली लौटा दिया. रिसेप्शन वाली लड़की ने Good Bye ज़रूर कहा.
हमारे समुदाय के Leaders की कायरता भी मीडिया Owners की तानाशाही बढ़ाने की ज़िम्मेवार है. रिटायरमेंट से कुछ दिन पहले ही निकाले गये ऐसे ही एक पत्रकार ने जब कहा कि हम क्या कर सकते हैं, तो मुझे उनकी कायरता का एहसास हो गया. क्या एक ऐसा आदमी, जो अपने करियर की समाप्ति पर खड़ा हो, ऐसा जवाब दे सकता है?
कोलकाता प्रेस क्लब ने भी पत्रकारों पर होने वाले हमले के खिलाफ़ मोर्चा निकाला और कई प्रेस मीटिंग्स कैंसिल कर दीं, पर इतने व्यापक पैमाने पर हुए टर्मिनेशन के विरोध में मैंने प्रेस क्लब को कभी विरोध करते नहीं देखा. मुझे अपने 30 साल के करियर में ऐसा कभी देखने को नहीं मिला कि प्रेस क्लब ने किसी मीडिया मुग़ल के खिलाफ़ आवाज़ उठाई हो.
लोकतंत्र के कई रक्षक अपने मालिक की थपथपी पाने के लिए उनके विरोधियों पर भौंकते रहे हैं. पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि वो अपने क्रूर और निर्दयी मालिकों पर भौंके हों. हां, इतना ज़रूर होता है कि मालिक बदलने के बजाय, वो शाम होते ही अपना शोक को दारु से दूर करने की कोशिश ज़रूर करते हैं. अगर हम इनको ऐसे ही फॉलो करते रहे, तो ऐसी दोगली प्रजाति वालों की और चाटुकारों की संख्या बढ़ती जाएगी और मालिकों का विरोध होना बंद हो जायेगा. मेरी तो कॉलर में जंग लग चुकी है और हड्डियां कमज़ोर हो चुकी है. पर विश्वास है कि मेरे युवा दोस्त एक दिन ज़रूर अपने मालिकों के खिलाफ़ भौंकेंगे और काटेंगे भी.
-बिश्वजीत रॉय
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