Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

मत भूलिएगा कि हम पीपली लाइव के दौर में जी रहे हैं

दक्षिण वियतनाम की एक सड़क पर नंगी भागती किम फुक (Kim Phuc) की उस तस्वीर को कौन भूल सकता है। नौ साल की किम के साथ कुछ और बच्चे भाग रहे हैं। सड़क के अंतिम छोर पर बम धमाके के बाद उठा हुआ काले धुएं का गुबार है। युद्ध की तबाही का यह काला सच दुनिया के सामने नहीं आता, अगर फोटोग्राफर निक ने हिम्मत करके वह तस्वीर न ली होती। निक ने न सिर्फ तस्वीर ली, बल्कि किम को उठाकर अस्पताल भी ले गए। जहां किम का इलाज हुआ और वह बच गई। आज किम के दो बच्चे हैं और वो टोरंटो में रहती हैं। किम ने अपने चालीसवें जन्मदिन पर कहा था कि इस तस्वीर के जरिये मैं दुनिया के लिए उम्मीद हूं। इस फोटो को पुलित्ज़र पुरस्कार मिला था।

<p>दक्षिण वियतनाम की एक सड़क पर नंगी भागती किम फुक (Kim Phuc) की उस तस्वीर को कौन भूल सकता है। नौ साल की किम के साथ कुछ और बच्चे भाग रहे हैं। सड़क के अंतिम छोर पर बम धमाके के बाद उठा हुआ काले धुएं का गुबार है। युद्ध की तबाही का यह काला सच दुनिया के सामने नहीं आता, अगर फोटोग्राफर निक ने हिम्मत करके वह तस्वीर न ली होती। निक ने न सिर्फ तस्वीर ली, बल्कि किम को उठाकर अस्पताल भी ले गए। जहां किम का इलाज हुआ और वह बच गई। आज किम के दो बच्चे हैं और वो टोरंटो में रहती हैं। किम ने अपने चालीसवें जन्मदिन पर कहा था कि इस तस्वीर के जरिये मैं दुनिया के लिए उम्मीद हूं। इस फोटो को पुलित्ज़र पुरस्कार मिला था।</p>

दक्षिण वियतनाम की एक सड़क पर नंगी भागती किम फुक (Kim Phuc) की उस तस्वीर को कौन भूल सकता है। नौ साल की किम के साथ कुछ और बच्चे भाग रहे हैं। सड़क के अंतिम छोर पर बम धमाके के बाद उठा हुआ काले धुएं का गुबार है। युद्ध की तबाही का यह काला सच दुनिया के सामने नहीं आता, अगर फोटोग्राफर निक ने हिम्मत करके वह तस्वीर न ली होती। निक ने न सिर्फ तस्वीर ली, बल्कि किम को उठाकर अस्पताल भी ले गए। जहां किम का इलाज हुआ और वह बच गई। आज किम के दो बच्चे हैं और वो टोरंटो में रहती हैं। किम ने अपने चालीसवें जन्मदिन पर कहा था कि इस तस्वीर के जरिये मैं दुनिया के लिए उम्मीद हूं। इस फोटो को पुलित्ज़र पुरस्कार मिला था।

एक और तस्वीर है सूडान की। भूख ने एक छोटी बच्ची को चलने से भी लाचार बना दिया है। वह ज़मीन पर पड़ी हुई है और उससे कुछ दूरी पर एक बड़ा सा गिद्ध (vulture) घूर रहा है। केविन कार्टर की यह तस्वीर जब 1993 में न्यूयार्क टाइम्स में छपी तो दुनिया भर में हंगामा मच गया। लोग पूछने लगे कि उस बच्ची का क्या हुआ। क्या फोटोग्राफर ने उसे बचाने का प्रयास किया। यह पत्रकारिता के इतिहास का सबसे विवादित प्रसंग है, जिसके कई पहलू हैं। इस फोटो ने भूख की भयावह तस्वीर पूरी दुनिया के सामने रख दी थी। कार्टर को भी इस फोटो के लिए पुलित्ज़र पुरस्कार मिला।

Advertisement. Scroll to continue reading.

ये दो अलग-अलग स्थितियां हैं। एक स्थिति में फोटोग्राफर अपने किरदार की मदद करता है और दूसरी स्थिति में मदद नहीं करता, मगर दोनों को पुलित्ज़र पुरस्कार मिलता है। दोनों ही स्थितियों में पूरी दुनिया हिल जाती है। जैसे जंतर-मंतर पर गजेंद्र की आत्महत्या ने किसानों की आत्महत्या के प्रति पूरे देश की उदासीनता को झकझोर दिया है। सब के सब एक्सपोज़ हो गए हैं। ढाई लाख से ज्यादा किसानों की आत्महत्या के सरकारी रिकार्ड को हम बस एक कागज़ का आंकड़ा मानने लगे थे। गजेंद्र की तस्वीरों ने आत्महत्या करने वाले लाखों किसानों को पूरे देश के सामने ज़िंदा कर दिया है।

मैंने जिन दो तस्वीरों का ज़िक्र किया है, उन्हें भारतीय जनसंचार संस्थान (Indian Institute of Mass Communication) के प्रोफेसर आनंद प्रधान प्राइम टाइम के एक शो में लेकर आए थे। हम चर्चा कर रहे थे कि इस तरह के मौके पर किसी पत्रकार को क्या करना चाहिए। यह हमारे पेशे की नैतिकता (ethics) की सबसे बड़ी दुविधा है। इसका कोई एक निश्चित उत्तर नहीं हो सकता है। पत्रकार रिपोर्टर या फोटोग्राफर से पहले इंसान भी है, लेकिन यह उसका काम भी है कि वह मौके की तस्वीर को ठीक उस तरह से दर्ज करता चले, जो इंसानियत के लिए काम आ सकती है। कई प्रकार की स्थिति हो सकती है। स्थिति तय करेगी कि पत्रकार क्या करेगा, न कि कोई किताब।

Advertisement. Scroll to continue reading.

जंतर-मंतर पर आम आदमी पार्टी की किसान रैली में गजेंद्र सिंह ने सबके सामने आत्महत्या कर ली। वह किसी संमदर के बीच नहीं था या किसी बाढ़ में या किसी पुल के नीचे भी नहीं था या वह किसी बहुमंज़िला इमारत की छत पर नहीं या वह चलती ट्रेन के बिल्कुल नीचे नहीं आ गया था। वह पहले से पेड़ पर बैठा था, जिसे उतारने की अपील भी हुई। जिसे कैमरे से लेकर वहां मौजूद सैंकड़ों लोगों ने देखा। पुलिस ने भी देखा, जिसके पास ज़रूरी साधन होने चाहिए, खासकर तब, जब मुख्यमंत्री की सभा हो रही हो। एहतियात के तौर पर फायर ब्रिगेड से लेकर एम्बुलेंस की गाड़ी तो होनी ही चाहिए। अब यह दिल्ली सरकार को बताना चाहिए कि एम्बुलेंस पुलिस भेजेगी या सरकारी अस्पताल का काम है। क्या मुख्यमंत्री कार्यालय ने रैली के इंतज़ाम को लेकर ये सब सवाल पूछे थे। मीडिया में यह तो खबर आई थी कि पुलिस से कहा गया है कि मुख्यमंत्री को पत्रकारों से दूर रखा जाए। मैं इसकी पुष्टि नहीं कर सकता, लेकिन किसी भी रैली से पार्टी और पुलिस के बीच कई स्तर पर संवाद होता है। आमने-सामने की बैठक भी होती है।

अब बहस हो रही है कि वहां खड़ी मीडिया को गजेंद्र की जान बचाने का प्रयास करना चाहिए था। मैं जंतर-मंतर पर नहीं था और न ही वहां मौजूद किसी पत्रकार से बात हुई है। फिर भी यह बहस बता रही है कि लोग मौके पर हम पत्रकारों के व्यवहार को लेकर कितने संजीदा हैं। वहां मंच पर बैठे राजनेताओं ने बचाने के लिए आवाज़ तो लगाई, मगर दौड़ नहीं लगाई। उनके पास तो माइक भी था, पुलिस को आवाज़ लगाई, मगर पुलिस ने गजेंद्र को नहीं उतारा। वहां खड़े सैकड़ों पत्रकारों को क्या करना चाहिए था। अगर सबको या किसी भी एक को अपने कैमरे में दिख रहा है कि कोई आदमी फंदा डाल रहा है तो क्या करना चाहिए। क्या पता, किसी पत्रकार ने आवाज़ लगाई भी हो, या क्या पता, किसी ने परवाह ही नहीं की हो।

Advertisement. Scroll to continue reading.

इसका जवाब इतना सरल नहीं है। हम यह सवाल पूछने से पहले ज़रूर देखें कि स्थिति क्या है। अगर किसी पुल से कोई फोटोग्राफर तस्वीर ले रहा है तो वह क्या करे। तैरना नहीं आता है, फिर भी डूब जाए या तैरना आता भी है तो तेज़ धारा में कूद जाए। वहां खड़े कितने पत्रकारों को पेड़ पर चढ़ना आता होगा, इसे लेकर मैं आश्वस्त नहीं हूं, मगर यह एक ज़रूरी सवाल है। अगर किसी झोंपड़ी में आग लगी है तो फोटोग्राफर को क्या करना चाहिए। क्या उसे राजेंद्र कुमार की तरह झोंपड़ी में कूद जाना चाहिए और बच्चे को उठाकर लाना चाहिए। बहुत मुश्किल है यह सब कहना, क्योंकि पत्रकार सक्षम है या नहीं, यह एक सवाल तो है। पत्रकार का एक काम तो यह होना ही चाहिए कि रिपोर्ट करते हुए वह तमाम एजेंसियों को अलर्ट करता रहे।

पर ऐसा नहीं होना चाहिए कि हम नेताओं, पुलिस और लोगों से पूछते-पूछते थक जाएं तो उल्टा प्रेस से ही पूछने लगें। इस स्थिति में मैं इतना ही कह सकता हूं कि जंतर-मंतर पर कोई असाधारण स्थिति नहीं थी। पेड़ पर चढ़ने का जोखिम न लेते हुए भी लोगों को अलर्ट किया जा सकता था। अगर किसी ने अपने कैमरे से ऐसा होते हुए देखा है, तो उसे हंगामा करना चाहिए था। प्रेस के बाकी साथियों का ध्यान आकर्षित करना चाहिए था और रिकॉर्डिंग रोककर वहां व्यवधान पैदा करना चाहिए था, ताकि सब गजेंद्र की जान बचाने के लिए तत्पर हो सके। सबकी नाकामी में प्रेस की भी नाकामी है, लेकिन इसके लिए यह तथ्यात्मक रूप से जानना होगा कि क्या वाकई वहां किसी ने किसी को अलर्ट नहीं किया। मैं वहां था नहीं, इसलिए दावे से नहीं कह सकता।

Advertisement. Scroll to continue reading.

अगर आप यह कहें कि प्रेस ने जिस तरह से रिपोर्टिंग की, क्या वह उचित था, तो इसके निश्चित जवाब दिए जा सकते हैं और जवाबदेही तय की जा सकती है। गजेंद्र तो उस पेड़ पर अब नहीं है, मगर कैमरों के लिए अब भी वह पेड़ ज़िंदा है, जिसके नीचे खड़े होकर रिपोर्टर अब भी न्यूज़ रूम के आदेश पर नाटक कर रहे हैं कि यही वह पेड़ है, जिसकी एक टहनी से गजेंद्र लटक गया था। यही वह पेड़ है, जिसे मंच पर बैठे नेता देखते रहे। एक दिन हमारे चैनल पेड़ को ही कसूरवार ठहरा देंगे। यही वह पेड़ है, जिसने गज़ेंद्र को लटकने दिया। यही वह पेड़ है, जिसने गजेंद्र की जान ले ली। मत भूलिएगा कि हम पीपली लाइव के दौर में जी रहे हैं।

कस्बा से साभार

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement