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सुख-दुख

जानिए प्रभाष जोशी की नज़र में ‘चौकीदार का चोर होना’ के मायने क्या थे

पैकेज के तहत विज्ञापनों को खबर बनाने का काला धंधा… इसे चौकीदार का चोर होना घोषित कर गए प्रभाष जोशी… प्रधानमंत्री मोदी ने साल-14 में चुनाव जीतने के लिए नाहक ही भ्रष्टाचार के खिलाफ चौकीदार की भूमिका का ऐलान कर डाला जो अब उनके गले की हड्डी बन चुका है.काले धन की नीव पर टिके हमारे लोकतंत्र में ज्यादातर चौकीदार चोर ही हैं,वर्ना देश की यह हालत होती.?अब मीडिया को ही लें जिसने खुद को लोकतंत्र का प्रहरी,चौकीदर और स्वयंभू चौथा स्तम्भ घोषित कर रखा है.?उसकी असलियत को विख्यात पत्रकार स्वर्गीय प्रभाष जोशी आधा दर्जन लेख लिख उजागर कर गए हैं.ये लेख उन्होंने दस बरस पहले हुए लोकसभा चुनाव में मीडिया की भूमिका पर जनसत्ता में लिखे थे.

एक लेख का शीर्षक ही है-चौकीदार का चोर होना..!चौंकाने वाले कुछ और शीर्षक हैं-खबरों के पैकेज का काला धंधा,काले धंधे का रक्षक और चुनाव में बिकी प्रेस खतरे में है.!लेखों में टाइम्स समूह,इकनामिक टाइम्स और हिंदुस्तान जिक्र है.मध्यप्रदेश के अख़बार मालिक का जिक्र है जिन्होंने पैसे लेकर चुनाव की खबरें छापने वाले संवाददाता को निकाल तय किया की हमारा अख़बार है तो हम खुद पैसा लेकर छापेंगे.? जोशीजी ने प्रभात खबर के संपादक हरिवंश का जिक्र किया है जिन्होंने पैसे लेकर खबर छापने के धंधे के खिलाफ अभियान चलाया और पहले पेज पर खबरों का धंधा शीर्षक लेख छापा. दूसरे पत्रकारों के लेख और पाठकों के पत्र छापे.वे अब राज्यसभा के डिप्टी स्पीकर हैं.

जोशीजी लिखते हैं की चुनाव की खबरों को बेचने का काला धंधा अख़बार छुपा कर नहीं करते. खुद की गिनती दुनिया के सबसे बड़े और सबसे ज्यादा पाठकों वाले अख़बारों में करने वाले हिंदी और अंग्रेजी के राष्ट्रीय दैनिक भी खब्ररों की पवित्र जगह बेशर्मी से बेचते थे.यह लोकतंत्र में प्रेस की भूमिका को नष्ट करने का निर्लज्ज धतकरम ही तो है.जो ऐसा कर रहे वो ही मतदाता जागरण अभियान चला रहे हैं..? जोशीजी के मुताबिक एकाध अपवाद होंगे,नहीं तो चुनाव का सारा कवरेज सभी अख़बारों में पैसा लेकर किया गया.यह सरासर पैकेज का धंधा है और जिसने नहीं लिया या छोटा लिया और लगातार रिचार्ज नहीं करवाया उसका नाम और फोटू अख़बारों से गायब ही रहा.

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वे कहते हैं की यह भ्रष्ट राजनेताओं और पत्रकारिता को काली कमाई का धंधा बनाने वाले मीडिया मालिकों की मिली भगत है. काले धन के धंधे में उद्योग-व्यापार और नेता ही नहीं हमारा मीडिया भी बराबर का सहयोगी और भागीदार है. सालों पहले संपादक विनोद मेहता ने आउटलुक में कवर स्टोरी की थी जिसका शीर्षक ही था लीडरों, नौकरशाहों और मीडिया का गठजोड़. मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए हैं और लोकसभा के होने वाले हैं.

अब गोयनकाजी नहीं है जो संपादक को प्रभाष जोशी जैसी स्वतंत्रता देने का साहस दिखाए. इसलिए आज के चुनाव में अपनी बिरादरी की भूमिका का काला सच कौन उजागर करेगा? इसे आनंद बाजार पत्रिका जैसे पुराने और समर्थ समूह की बेबसी से समझा जा सकता है. उनके खबरिया चैनल में पुण्यप्रसून वाजपेयी की आमद को हफ्ता दस दिन हुए होंगे की मोदीजी की नाराजगी के चलते उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया.

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लेखक श्रीप्रकाश दीक्षित भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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