Abhishek Srivastava : {”जो बुद्धिजीवी रायपुर में लेखकों के जाने भर को मुद्दा बना रहे हैं, क्या वे बुद्धिजगत में एक किस्म का खापवाद प्रतिपादित नहीं कर रहे?” – Om Thanvi} …आइए, ज़रा जांचते हैं कि साहित्य में खाप कैसे बनता है। आज ओम थानवी ने रायपुर साहित्य महोत्सव में कुछ लेखकों के जाने को डिफेंड करते हुए एक स्टेटस लिखा। इसे Maitreyi Pushpa और Purushottam Agrawal समेत कुछ लोगों ने साझा किया। यह मोर्चे की पहली पोजीशन है। मोर्चे की दूसरी सीमा पर डटे Vineet Kumar और Prabhat Ranjan ने महोत्सव की तस्वीर और भाषण पोस्ट किए। यह प्रचार मूल्य है। मोर्चे की तीसरी पोजीशन जनसत्ता में खोली गई जहां Ashok Vajpeyi ने महोत्सव में लेखकों को मिली आज़ादी पर एक निरपेक्ष सी दिखने वाली टिप्पणी ‘कभी-कभार’ में की। यह नेतृत्व की पोजीशन है, बिलकुल निरपेक्ष और धवलकेशी।
मोर्चे की आखिरी और सबसे निर्णायक पोज़ीशन जनसत्ता में ही छपा (जो अब अस्वाभाविक भी नहीं लगता) Virendra Yadav का लेख है जो वैचारिक रूप से दूसरे छोर पर खड़ा है। यही वह कथित ‘लोकतंत्र’ है जिसके सहारे पहली तीन पोज़ीशनों से खेला जा रहा है। वीरेंद्रजी के इस लेख का प्रकाशन इस मोर्चे के खिलाडि़यों के लिए ‘टूल’ है कि देखो, हम तो लोकतांत्रिक हैं ही। एक और पोजीशन है इस मोर्चे में जहां अविनाश दास खड़े हैं- यह victimisation का ‘कबीराना’ पक्ष है क्योंकि उन्हें कथित तौर पर आयोजकों ने रायपुर आने से रोक दिया था। कौन जाने क्या हुआ था, लेकिन वे ‘चुप’ हैं क्योंकि उनके मुताबिक ऐसे लोगों की कोई ‘से’ नहीं है। (फिर मेसर्स अजय ब्रह्मात्मज की ‘से’ कैसे हुई वहां?)
ख़ैर, अब साफ़ है कि साहित्य में खाप कौन बना रहा है। खाप के सारे के सारे सदस्य बिलकुल सामने हैं आपके, उनका तर्क ‘लोकतंत्र’ है, इसे साबित करने के लिए उनके पास वीरेंद्र यादव का लेख है और विनीत-प्रभात की लगाई प्रचारात्मक सामग्री है कि उन्होंने वहां क्या ‘खुलकर’ कहा। अशोक वाजपेयी का बाबावादी बैकअप है, ओम थानवी का एक अखबार है और जगदीश्वर चतुर्वेदी का लंपटवाद भी, जो रायपुर के तमाम विरोधियों को कलकत्ता में बैठे ”असभ्य”, ”अभद्र” और ”कुवाम” ठहरा रहे हैं। यानी किसी भी सत्ता संरचना के जितने आयाम हो सकते हैं, सब इनके पास हैं।
बाइ द वे, हमारे-आपके पास क्या है? ”ईमान का डंडा है, बुद्धि का बल्लम है. अभय की गेती है, हृदय की तगारी है, तसला है…।” बस… लेकिन इससे अब हमारा काम नहीं चल रहा। क्यों? क्योंकि सवाल तो इधर भी हैं। कोई अयोध्या गया है, कोई गोरखपुर, कोई पटना। Ranendra और नरेश सक्सेना को लेकर सवाल उठे हैं, लेखक संगठन चुप हैं। जो रायपुर के विरोध में थे, उनमें से कुछ ने पुरुषोत्तमजी से जंतर-मंतर पर मोमबत्ती जलवा ली है। अब हम क्या करें, जो न जलेस में हैं, न प्रलेस, न जसम में और न ही किसी की कसम में? हम न तो किसी के लठैत हैं, न ही लोकतंत्र के नाम पर धंधे करते हैं। हम तो मरी हुई औरतों-बच्चों की गवाहियां दे रहे थे और यहां तो खाप-वाप बनने लगा। ”ठीक है कि हम भी तो दब गए, हम जो विरोधी थे / कुओं-तहख़ानों में क़ैद-बन्द / लेकिन, हम इसलिए मरे कि ज़रुरत से ज़्यादा नहीं / बहुत-बहुत कम हम बाग़ी थे!!”
कई अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके जन पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से.