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उत्तर प्रदेश

लखनऊ विकास प्राधिकरण के महाभ्रष्ट अफ़सरों की राज्य उपभोक्ता आयोग में खुली पोल, लगा जुर्माना!

श्री प्रदीप कुमार टण्‍डन ने लखनऊ विकास प्राधिकरण से एक भूखण्‍ड दिनांक 16.5.1985 को अपने नाम से आव‍ंटित कराया, जिनकी मृत्‍यु के बाद यह भूखण्‍ड श्रीमती ऊषा प्रदीप को आवंटित हुआ और उनकी भी मृत्‍यु हो जाने के बाद यह कुमारी रिद्धि टण्‍डन और सिद्धि टण्‍डन के नाम हुआ।

​श्रीमती ऊषा प्रदीप ने इस भूखण्‍ड से संबंधित धनराशि 1996 और 1997 में जमा कर दी थी। इसके पश्‍चात लखनऊ विकास प्राधिकरण के तत्‍कालीनउपाध्‍यक्ष ने एक लाख रूपये से अधिक ब्‍याज में 50 प्रतिशत की छूट देते हुए शेष 50,345/-रू0 जमा करने के लिए आदेश दिया, जिसे आवंटी ने दिनांक 30.7.1997 को जमा कर दिए। यह सारी धनराशि लखनऊ विकास प्राधिकरण के परिसर में स्थित यूको बैंक में जमा की गई थी और वहीं से यह धनराशि प्राधिकरण के खाते में ही जमा होती है।

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प्राधिकरण ने अब यहां से नया खेल शुरू किया और उसने पुन: एक पत्र दिनांक 4.12.2003 को इस आशय से भेजा कि आप अपना सारा बकाया धन जमा कर दें। आवंटी ने प्राधिकरण को बताया कि वह सारी धनराशि जमा कर चुकी है और अब कोई भी अवशेष नहीं है। भूखण्‍ड न मिलने पर रिद्धि टण्‍डन ने एक परिवाद जिला आयोग, लखनऊ में प्रस्‍तुत किया, जिसे विद्वान जिला आयोग ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यदि परिवादी चाहे तो अपनी धनराशि वापस लेने के लिए कार्यवाही कर सकती है।

इस निर्णय से व्‍यथित होकर वर्तमान अपील प्रस्‍तुत की गई। इस राज्‍य उपभोक्ता आयोग की बेंच संख्‍या-1 माननीय न्‍यायमूर्ति श्री अशोक कुमार एवं माननीय सदस्‍य श्री राजेन्‍द्र सिंह द्वारा इसकी सुनवाई की गई तथा श्री राजेन्‍द्र सिंह ने इस मामले में आज निर्णय घोषित किया और यह पाया कि इस मामलें में विकास प्राधिकरण ने पूर्ण रूप से लापरवाही और सेवा में कमी की है।

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निर्णय में यह लिखा गया है कि 1997 में सम्‍पूर्ण धनराशि जमा होने के बावजूद भी प्राधिकरण ने रजिस्‍ट्री नहीं की और परिवादी को पत्र जारी करते रहे की आप बकाया राशि जमा करें, जबकि कोई धनराशि बकाया नहीं थी।

मामले में सबसे महत्‍वूपर्ण तथ्‍य यह है कि विकास प्राधिकरण की ओर से एक पत्र परिवादी को दिनांक 4.12.2003 को भेजा गया कि आपके ऊपर 1,35,885/-रू0 बकाया हैं और आप इसका भुगतान दिनांक 15.12.2003 तक करके प्राधिकरण को दिनांक 18.12.2003 तक सूचित करें नहीं तो माना जाएगा कि आप भूखण्‍ड लेने के लिए इच्‍छुक नहीं हैं और भूखण्‍ड प्रतीक्षारत व्‍यक्तिको आवंटित कर दिया जाएगा।

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इस पत्र के उत्‍तर में परिवादी ने प्राधिकरण को सूचित किया कि उसके द्वारा बकाया राशि दिनांक 30.7.1997 को जमा की जा चुकी है और अब उस पर कोई बकाया नहीं है। इस संबंध में चालान फार्म और चेक पत्रावली में संलग्‍न हैं। परिवादी ने यह सूचना दिनांक 15.12.2003 को प्राधिकरण को भेजी, जबकि दिनांक 19.12.2003 को प्राधिकरण ने किसी को मार्क करते हुए गणना करने के लिए आदेश भी दिया और अत्‍यंत आश्‍चर्य का विषय है कि दिनांक 19.12.2003 को ही प्राधिकरण ने परिवादी के पक्ष में आवंटित भूखण्‍ड का आंवटन यह कहते हुए निरस्‍त कर दिया कि आपने अवशेष राशि जमा नहीं की है, जबकि परिवादी द्वारा यूको बैंक में इसकी सारी धनराशि दिनांक 30.7.1997 को जमा की जा चुकी थी।

विद्वान जिला आयोग के निर्णय में यह पाया गया कि यह आवंटन निरस्‍त करने के बाद 2005 में यही भूखण्‍ड उच्‍च न्‍यायालय के न्‍यायाधीश श्री कुदुशी की पुत्री के नाम आवंटित किया गया, जिससे स्‍पष्‍ट हुआ कि विकास प्राधिकरण के अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने मिली-भगत करके परिवादी के पक्ष में आवंटित भूखण्‍ड, जिसकी सम्‍पूर्ण धनराशि वर्ष 1997 में जमा की जा चुकी थी, गलत आधारों पर निरस्‍त किया और हाईकोर्ट के एक जज को अनुग्रहित किया। यह सेवा में कमी, कूटरचना और षड़यंत्र का खुला खेल है।

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इस मामलें में प्राधिकरण की अधिवक्‍ता सुश्री निन्‍नी श्रीवास्‍तव से संबंधित पत्रावली को मंगवाया था, किंतु उन पत्रावलियों में भी यह अंकित नहीं है कि यह धनराशि प्राधिकरण के खाते में कब दी और प्राधिकरण ने कब इस भूखण्‍ड को जज की पुत्री को आवंटित किया।

आयोग ने पाया कि प्राधिकरण द्वारा कूट रचना, षड़यंत्र, सेवा में कमी हर प्रकार के कर्म यहां पर किए गए हैं और इसी आधार पर आयोग ने विद्वान जिला आयोग के निर्णय को रद्द करते हुए निम्‍न आदेश पारित किया:-

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1. विपक्षी प्राधिकरण को आदेश दिया गया कि वह अनाधिकृत व्‍यक्ति को आवंटित भूखण्‍ड का कब्‍जा खाली करवाते हुए वापस प्राप्‍त करें और उसे परिवादी के पक्ष में आवंटित करे और यदि ऐसा संभव न हो तब प्राधिकरण परिवादी को एक करोड़ रूपये और इस पर दिनांक 1.8.1998 से वास्‍तविक भुगतान की तिथि तक 7 दिन के अंदर 12 प्रतिशत वार्षिक ब्‍याज अदा करें, अन्‍यथा ब्‍याज की दर 15 प्रतिशत होगी, जो दिनांक 1.8.1998 से वास्‍तविक भुगतान की तिथि तक देनी होगी।

2. इसके अतिरिक्‍त प्राधिकरण को आदेश दिया गया कि वह 50,000/-रू0 बतौर क्षतिपूर्ति मानसिक यंत्रणा के रूप में परिवादी को दिनांक 1.8.1998 से वास्‍तविक भुगतान की तिथि तक इस निर्णय की तिथि से 7 दिन के अंदर 12 प्रतिशत वार्षिक ब्‍याज के साथ अदा करें, अन्‍यथा ब्‍याज की दर 15 प्रतिशत होगी, जो दिनांक 1.8.1998 से वास्‍तविक भुगतान की तिथि तक देनी होगी।

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3. अनुतोष ग के रूप में राज्‍य आयोग ने विपक्षी को आदेश दिया कि वह दिनांक 1.8.1998 से प्रतिमाह 15,000/-रू0 परिवादी को मय ब्‍याज 12 प्रतिशत इस निर्णय के 7 दिन के अंदर अदा करे, अन्‍यथा ब्‍याज की दर 15 प्रतिशत होगी, जो दिनांक 1.8.1998 से वास्‍तविक भुगतान की तिथि तक देनी होगी।

4. राज्‍य आयोग ने उत्‍तरदायी प्राधिकरण द्वारा किए गए फर्जी क्रियाकलापों, धोखाधड़ी और षड़यंत्र को देखते हुए आदेश दिया कि वह परिवादी को 30 लाख रूपये मय ब्‍याज 12 प्रतिशत इस निर्णय के 7 दिन के अंदर अदा करे, अन्‍यथा ब्‍याज की दर 15 प्रतिशत होगी, जो दिनांक 1.8.1998 से वास्‍तविक भुगतान की तिथि तक देनी होगी।

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5. आयोग ने यह भी आदेश दिया कि इस निर्णय की एक प्रति मुख्‍य सचिव उत्‍तर प्रदेश शासन को भेजी जाए, जो इसे मुख्‍यमंत्री के सामने रखें और कृत्‍य कार्यवाही से न्‍यायालय को अवगत कराए तथा इस धनराशि की वसूली उत्‍तरदायी प्राधिकरण के अधिकारियों और कर्मचारियों से भी करने के लिए राज्‍य स्‍वतंत्र है।

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