सहाराश्री का सब से बड़ा सुख क्या है? यह बहुत कम लोग जानते हैं। पर यह दूसरा सवाल है। पहला सवाल तो यह है कि सहाराश्री इतने स्वार्थी क्यों हैं? उन का स्वार्थ इतना भारी और इतना प्रबल कैसे हो जाता है भला? आने वाले दिनों में देखिएगा इस एक बिंदु पर भी कभी शोध ज़रूर होगा। क्यों कि यह बात बहुत ज़्यादा लोग जानते हैं कि सहाराश्री बहुत स्वार्थी आदमी हैं। अपने स्वार्थ के आगे वह किसी और का कुछ नहीं देखते। संयोग देखिए कि सहाराश्री का स्वार्थ और सुख का संगम जैसे एक हो जाता है। सहाराश्री का सब से बड़ा सुख और सब से बड़ा स्वार्थ है अपने परिवार को खुश रखना। खुश और मस्त! जो कि किसी भी परिवार के मुखिया का होता है। बस फर्क सिर्फ इतना है कि सहाराश्री का परिवार दुनिया के और परिवारों की तुलना में थोड़ा नहीं कुछ ज़्यादा ही बड़ा है। विश्व का विशालतम परिवार लोग कहते ही हैं। और कि वह अपने परिवार की खुशी के लिए, अपने इस स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। आप ने राजनीति में, फिल्म में, व्यवसाय में और कि कई और भी हलकों में परिवारवाद और उस की पराकाष्ठा देखी होगी। पर सहाराश्री के परिवारवाद की तो कोई दूसरी मिसाल ही नहीं है। न भूतो, न भविष्यति! आप इसी एक बात से उन के स्वार्थ और सुख का अंदाज़ा लगा लीजिए कि सेबी की सनक के चलते वह तिहाड़ जेल में रहे। लेकिन हर महीने उन के परिवार के सदस्यों को वेतन मिल रहा है। अबाध! हर दिन उन के सम्मानित जमाकर्ताओं को मेच्योरिटी पर उन का भुगतान मिल रहा है। एजेंट को उन का कमीशन मिल रहा है।
एक सेबी से विवादित जमा योजना को छोड़ कर बाकी सारे भुगतान नियमित हो रहे हैं देश भर में और करोड़ॉ रुपए के भुगतान हो रहे हैं। सहाराश्री की जगह कोई और मुखिया होता तो सारे भुगतान रोक कर कर पहले सेबी की सनक में जो बकाया बताया जा रहा है उस का भुगतान करता, अपने को जेल से बाहर करता फिर किसी और की सुधि लेता, और जो यह सुधि नहीं भी लेता तो कोई क्या कर लेता? लेकिन कहा न कि सहाराश्री अपने स्वार्थ के, अपने सुख के आगे किसी की सुनते ही नहीं। यह उन की पुरानी अदा है, आदत है कि ताकत है, कहना कठिन है। लेकिन यह उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली है, किसी खैरात में नहीं। बताइए कि किसी परिवार का इंजन ही मुश्किल में हो पर उस परिवार की ट्रेन फिर भी स्मूथली चलती रहे यह भला कहीं मुमकिन है?
हां, सहारा इंडिया परिवार में यह मुमकिन है। मुमकिन क्या सब के सामने है यह तथ्य। बिलकुल किसी खुली किताब की तरह। परिवार के सभी सदस्यों की आंख में आंसू हैं कि उन का मुखिया पांच महीने से कैद में है। लेकिन मुखिया के ध्यान में है कि सब सदस्यों के परिवारीजन का भरण-पोषण होता रहे, बच्चों की फीस, कापी किताब या उन की दवा आदि में कोई मुश्किल नहीं हो। सम्मानित जमाकर्ता के भुगतान में व्यवधान नहीं हो। बात यहीं तक होती तो गनीमत थी। लोग तो रोज सहारा की अपनी योजनाओं में पैसा भी जमा करते जा रहे हैं। आप ने ऐसा अभी तक पूरी दुनिया में न कहीं देखा होगा, न कहीं सुना होगा कि किसी व्यावसायिक संस्था का मुखिया जेल में हो, आरोप-प्रत्यारोप हो और लोग फिर भी उस की संस्था में निवेश करते जा रहे हों निरंतर। लेकिन सहारा इंडिया परिवार में तो यह संभव हो गया है। तो सिर्फ और सिर्फ इस लिए कि सहारा इंडिया परिवार व्यावसायिक संस्था होने के बावजूद एक पारिवारिक संस्था है। तो यह पारिवारिक विश्वास और पारिवारिक भावना का कमाल है, कुछ और नहीं। विश्व का विशालतम परिवार सहारा इंडिया परिवार का सिर्फ विज्ञापनी स्लोगन भर नहीं है, जीवन भी है। और इस परिवार के सदस्यों का अपना निजी अनुभव भी।
बात थोड़ी पुरानी ज़रूर है लेकिन यहां प्रसंगवश मैं अपना एक अनुभव शेयर करने का लोभ संवरण नहीं पा रहा हूं। 18 फरवरी, 1998 की बात है। लोकसभा चुनाव हो रहे थे। मुलायम सिंह यादव संभल से चुनाव लड़ रहे थे तब। चुनाव कवरेज में हम जा रहे थे। सीतापुर के पहले खैराबाद में हमारी अंबेस्डर ट्रक से लड़ गई। आमने-सामने की टक्कर थी। सो कार के परखचे उड़ गए। कार में हमारे बगल में बैठे हमारे साथी और हिंदुस्तान के संवाददाता जय प्रकाश शाही और ड्राइवर की ऐट स्पॉट मृत्यु हो गई। हमारी देह भी भूसा हो गई थी। जबड़ा, हाथ और सारी पसलियां टूट गई थीं। मैं ही अपने घर का इंजन और मैं ही घायल था, मरणासन्न था। घर के लोग यह खबर सुनते ही सकते में आ गए। लेकिन किस डॉक्टर को कहां किस तरह दिखाना है यह हमारे घर के लोगों को सोचना ही नहीं पड़ा। सहाराश्री खुद अस्पताल में उपस्थित थे। घर के लोग मेहमान की तरह खड़े देखते रहे और सारा इंतज़ाम, सारी देखरेख सहारा के कार्यकर्ताओं ने संभाल लिया था। सहाराश्री खुद डॉक्टर्स से बात कर रहे थे और मुझे एयर एम्बुलेंस से दिल्ली तक ले जाने की बात डॉक्टर्स से करने लगे। यह बात बहुत बाद में बलरामपुर अस्पताल के डॉक्टर एके जैन जो हड्डी के सर्जन हैं उन्हों ने बताते हुए कहा कि, ‘ऐसा एम्प्लॉयर मैं ने अपने पूरे चिकित्स्कीय जीवन में नहीं देखा। कि आदमी एक पैर पर खड़ा अपने किसी कर्मचारी की इतनी देखरेख करे। इतना खर्च करने को तैयार दिखे। ‘तो मैं ने यह सब सुनते हुए डॉक्टर साहब से बताया कि,’ असल में ऐसा इस लिए आप ने देखा कि सहारा इंडिया में हम कर्मचारी नहीं हैं।’
‘तो?’ डॉक्टर साहब चौंके और बोले, ‘फिर?’
‘हम लोग एक परिवार के सदस्य हैं। और सहाराश्री इस परिवार के मुखिया। इस लिए आप ने ऐसा देखा। ‘डॉक्टर साहब यह सुन कर मुदित हो गए। बोले, ‘हम तो समझते थे कि यह सिर्फ ऐड है!’ लेकिन उन दिनों की याद करते हुए वह बोले, ‘आप ठीक कह रहे हैं। उस दिन तो सहाराश्री का भाव आप के प्रति घर के मुखिया वाला ही था। कि जैसे भी हो, जिस भी कीमत पर हो इसे बचाना है!’
हमारे घर के लोगों और पत्नी ने भी यह बात बाद में न सिर्फ बताई बल्कि आज भी उन दिनों की चर्चा बात-बेबात घर में हमारे होती ही रहती है। और सहाराश्री ही नहीं ओपी साहब भी प्राण-प्रण से खड़े रहे। घर के लोगों को सांत्वना देते, डाक्टरों से बात करते। मेरी पत्नी उस आत्मीयता और उस जतन को भूल नहीं पाती हैं आज भी। कि किसी आफिस के लोग किसी आदमी के लिए इतना भी कर सकते हैं। कि न पैसा देखना था, न डाक्टर! न दौड़-धूप। नहीं डॉक्टर्स ने तो लगभग जवाब दे दिया था। खैर, इलाज के बाद मैं दूसरा जन्म ले कर घर लौटा। छ महीने तक बेड पर रहा। लेकिन मेरा वेतन मेरे घर पर आता रहा। बिना कोई छुट्टी काटे। इलाज चलता रहा। सब कष्ट से अंतत: मुक्ति मिली। 6 साल बीत गए इस दुर्घटना को घटे। लेकिन सहाराश्री के पारिवारिक भावना की वह आत्मीय गूंज, मंदिर में किसी घंटी की तरह मन में आज भी बजती रहती है। ऐसे ही एक बार जब मेरे उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से प्रेमचंद सम्मान की घोषणा हुई तो उसी शाम एक पार्टी में यह बात ओपी साहब ने सहाराश्री को बताई तो सहाराश्री ने हाथ मिला कर मुझे बधाई दी और गले लगा लिया। भावुक होते हुए वह बोले, ‘ऐसी खबर सुन कर हमारा खून बढ़ जाता है।’
ऐसे और भी कई किस्से हैं हमारे पास सहाराश्री के। उन के पारिवारिक और भावनात्मक लगाव के। और मेरे ही पास क्यों आप सहारा इंडिया परिवार के किसी भी सदस्य से मिल लीजिए हर किसी के पास ऐसे कई-कई किस्से मिल जाएंगे। लोग जब-तब सुनाते मिलते ही रहते हैं। सहाराश्री अब जीते जी एक किंवदंती हैं, एक मिथ हैं। तो सिर्फ और सिर्फ अपनी इसी पारिवारिक भावना के बूते। और फिर सहारा इंडिया परिवार के सहयोगी, सम्मानित जमाकर्ता और एजेंट ही सिर्फ इस परिवार का हिस्सा हों ऐसा भी नहीं है। वो कहते हैं न की दिन दूना, रात चौगुना! तो यह परिवार भी ऐसे ही बढ़ता जाता है। इस परिवार में तमाम खिलाड़ी, अभिनेता, राजनीतिज्ञ भी शामिल हैं। जो कहते नहीं अघाते कि वह सहारा इंडिया परिवार के सदस्य हैं।
आप कभी मिल लीजिए कारगिल के शहीदों के परिवारीजनों से, कभी मिल लीजिए मुंबई में 26 /11 की आतंकवादी घटना के शहीदों के परिवारीजनों से, वह भी कहते मिलेंगे कि हम सहारा इंडिया परिवार के सदस्य हैं। गुजरात के भुज, महाराष्ट्र के लातूर में भूकंप के बाद तबाह हुए और फिर सहारा इंडिया परिवार की मदद से पुनर्वास पाए लोगों से मिल लीजिए वह भी अपने को सहारा इंडिया परिवार का सदस्य बताते मिलेंगे। आप किसी आपदा में, किसी मुश्किल में पड़े लोगों से मिलिए वह चाहे गोरखपुर में बाढ़ के संकट में फंस कर या किसी ट्रेन एक्सीडेंट में पड़ कर मुश्किल में आए होंगे या फिर केदार घाटी की विपदा में फंसे होंगे और उस विपदा से पार पाए होंगे तो वह भी अपने आप को सहारा इंडिया परिवार का सदस्य अपने को बता देंगे। बीते कुछ सालों में निर्बल वर्ग के बहुत से जोड़े जब अपने दांपत्य की देहरी छुए सहारा इंडिया परिवार के सामूहिक विवाह में और उन की गृहस्ती बसाने में अब तक जिन एक हज़ार एक सौ ग्यारह जोड़ों को सहारा इंडिया परिवार ने अपना सहारा दिया है वह लोग भी अपने को सहारा इंडिया परिवार से अपने को अलग नहीं मानते। यह और ऐसे पारिवारिक सदस्यों की फेहरिस्त अनंत है। कहां तक गिनाऊं भला! अपना यह परिवार निरंतर बढ़ाते रहने की जैसे बीमारी है सहाराश्री को। उन की इस बीमारी का इलाज दुनिया का कोई डाक्टर, वैद्य या हकीम कर पाएगा, मुझे तो नहीं लगता। क्यों कि यह बीमारी उन की लाइलाज है। इस लिए भी कि उन की इस पारिवारिक भावना का मुख्य बिंदु एक ही है। वह है राष्ट्रीयता। उन की राष्ट्रीयता और खेल भावना, उन के समाज कल्याण के कार्यों की केंद्रीयता में यह पारिवारिक और भावनात्मक भावना ही है। वह इसे सपने में भी छोड़ने वाले हैं नहीं। और फिर वह स्वार्थी भी बहुत हैं। अपने परिवारीजनों को सुखी और मस्त देखने का उन का स्वार्थ सब पर भारी है। क्यों कि यही उन का सब से बड़ा सुख है। वह तिहाड़ में रहें या ऐम्बी वैली के पहाड़ में। यह स्वार्थ और यह सुख वह छोड़ने वाले हैं नहीं। हमने तो यह देख लिया है। उन के इस स्वार्थ और सुख का संगम अद्भुत है।
रही बात कानूनी पचड़ों और न्यायिक मसलों की, सेबी और हेन-तेन की तो उस की चर्चा तो बहुत हो चुकी है, होती रहेगी। हम तो बस यहां रहीम को याद करना चाहते हैं। रहीम लिख गए हैं:
जो रहीम उत्तम प्रकृति का करि सके कुसंग
चंदन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।
अब यह तो लोग जानते ही हैं कि सहाराश्री का घर का नाम चंदन है।
लेखक दयानंद पांडेय वरिष्ठ पत्रकार और उपन्यासकार हैं. उनसे संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है।
सिकंदर हयात
August 1, 2014 at 12:50 pm
इन बातो से दोष निर्दोष भरष्ट अभ्र्ष्ट कुछ सिद्ध नहीं होता हे ये बाते ये किस्से भारत में 99 % अमीर लोगो बड़े नेताओ या माफिया डोनो के भी साथ भी जुड़े मिलेंगे आम लोगो में भी मिलेंगे हमारे यहाँ जो सबसे अमीर और महाभरष्ट आदमी हे उन्होंने भी पिछले दिनों एक तो बिना एक पैसा दहेज़ लिए बेटे की शादी की और अपनी नौकरानी के गुर्दे फेल होने के खतरे से बचाने को लाखो खर्च किये ये सब हर जगह होता हे
God_Shareef
August 1, 2014 at 8:02 pm
DayaNand Pandey
Chutia mat banaao
PariWaar ke naam pe daag mat lagaao
vivek vikram singh
August 2, 2014 at 4:13 am
pandey ji apna future dekh rhe hai kya..such to ye hai ki bhagwan vishnu jinda hote to sahara shree k sukh ko dekh ker sharminda hote..filhal achhi charangiri hai
manoj kr. tiwary
August 2, 2014 at 10:41 am
चुतियापा कम करो पांडेय जी। सहारा में तुम ही अकेले काम नहीं करते हो। अ•ाी मैं तुम्हारा ज्ञान वर्द्धन करता हूं। मैं राष्ट्रीय सहारा में सात साल से स्थायी रूप से काम करता था। गुड़गांव में चार साल से अकेला रिपोर्टिंग करता था। महिनों हो जाते थे साप्ताहिक अवकाश •ाी लिए हुए। नवम्बर 2013 में छठ पूजा पर घर गया था। इसी बीच में एचआर ने मैसेज •ोजा कि आप नोएडा आकर मिले। बिना किसी कारण नोएडा आने पर सीधे कह दिया गया कि इस्तीफा दे दीजिए। इस्तीफा मांगने के पीछे कारण पूछने पर कोई सीधा जवाब नहीं दिया गया। कहा गया कि संस्थान में छंटनी चल रही है और कंपनी की आर्थिक हालत को लेकर कई तरह की बातें की जाने लगी। लखनऊ में कार्यरत सुधीर श्रीवास्तवजी का लड़का गुड़गांव में काम करता था। मेरे जैसा साधारण इंप्लाई से जो •ाी बन पड़ा मदद किया। उन्होंने •ाी मेरे लिए कुछ करने से मना कर दिया और कहा कि कर्मचारियों को हटाने का निर्णय, जिसे तुम सहाराश्री और सहारा परिवार कह रहे हो का, अपना •ााई जयव्रत राय ने लिया है इस लिए इसमें कोई मदद नहीं कर सकता। बाद में सुधीर श्रीवास्तव ने अपने इस लड़कों को •ाी लखनऊ सहारा में लाखों रुपए में अंदर करा लिया। आपकों पता होगा कि जयव्रत राय को कंपनी से करोड़ों रुपए मिलता है। जयव्रत राय ही क्यों, सहाराश्री की धर्मपत्नी जिन्हें स•ाी बड़ी •ाा•ाी के नाम से बुलाते हैं, सहाराश्री की बहन, बहनोई, लड़के, उनकी पत्नियां और हजारों उनके रिश्तेदार, मित्र और जानकार सहारा में काम करते हैं और उन्हें करोड़ों-अरबों रुपए मिलते हैं। मैं मामूली कुछ हजार रुपए में काम करता था। मेरी औकात ही क्या और असंवैधानिक रूप से मुझे हटा दिया गया और अपनी दलील देने का •ाी मौका नहीं मिला। मेरे •ाी दो बच्चे पढ़ते हैं और घर में मैं •ाी अकेला ही काम करने वाला था। सं•ावत: मैं राष्ट्रीय सहारा में सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा आदमी था। अब मुझे बताओ, तथाकथित सहारा परिवार की हकीकत! अब मुझे बताओ, इस कहानी को किस तरह से देखोगे। और हां, आपने यह नहीं बताया कि 1998 में मुलायम सिंह यादव के चुनाव प्रचार में क्या करने जा रहे थे? मेरा मानना है कि उस दौर में सहाराश्री और मुलायम सिंह के साथ संबंधों की चर्चा आम थी। जाहिर है आप पत्रकारिता करने नहीं जा रहे थे। इसीलिए सहारा श्री आपको देखने गए और आपका बढ़िया इलाज किया गया। वरना… इस दिल्ली में जाने कितने सहारा के कर्मचारी मुफलिसी में दिन काट रहे हैं। हालांकि मैं सहारा का चैप्टर दोबारा खोलना नहीं चाहता था लेकिन मेरे अंतर्मन के अनुरूप सहारा से अधिक आपको आइना दिखाना जरूरी था…
मनोज तिवारी
सिकंदर हयात
August 2, 2014 at 11:40 am
पाण्डेय जी का ये लेख हमारे पुरे हिंदी जगत का अलमिया हे हम सब यही करते हे जो हम पर कृपा करे हम सब हिंदी वाले उसकी जयजयकार करते हे जो हम पर कृपा न करे हम उसमे 100 कीड़े निकालते हे आपने देखा ही होगा की हर बड़े हिंदी वाले को आधे लोग महान आत्मा और आधे लोग शैतान बताते हे ऐसा खासकर राजेंदर यादव जी के मामले में मेने देखा – एक दिन दूसरी पंक्ति के एक हिंदी लेखक ” हाय रे में तो राजेंदर दीवाना ” भजन सा गा रहे थे में समझ गया अगले महीने लाइब्रेरी गया हंस उठाई खोली तो भजन गायक की कहानी दिखाई दी पुरे हिंदी जगत का यही हाल हे
anil choubey
August 4, 2014 at 8:57 am
सहारा श्री कि किस्मत तो देखो की उसे प्रापर्टी बेचने कि लिए तिहाड़ जेल की बिल्डिंग मिली उसकी कीमत भी सहारा के घर से कम नहीं कहावत हे की हाथी मरे तो भी सवा लाख का होता हे
kamlesh kumar
October 10, 2014 at 9:10 am
reporter danik aaj auraiya u.p
Gold Man at
April 7, 2015 at 7:52 am
Dear Pandyji
5 Month Ho gye he …….Salary Nehi Aye he
Ab kha gya Parewar ……………..?
Free Rent ……….sab bake he
ab hum kya kare….bolo sir ji
RAHUL SRIVASTAVA
September 18, 2015 at 12:48 pm
sach pucho to employes ki bhi halat kharab hai yaha par salary nahi mil rahi. aur to aur hamara india mega bhi lanch kar diya gaya hai, ek hi employ se kai company ka kam liya jata hai. kun chus rahae hai yaha par employes ka.