शिवसेना-बीजेपी के शह मात के खेल में पहली बार राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ की साख भी दांव पर लग गयी है। जिस राजधर्म के आसरे आरएसएस ने बालासाहेब ठाकरे को ना सिर्फ मान्यता दी बल्कि बाबरी मस्जिद विध्वस के स्वयंभू नायक बने बालासाहेब ठाकरे को अयोध्या रामरथ यात्रा के राम लालकृष्ण आडवाणी से ज्यादा सराहा। उसी राजधर्म को सत्ताधर्म के सामने टूटने की आहट ने संघ को बैचेन कर दिया है। लेकिन संघ की मुश्किल दोहरी है एक तरफ सवाल राजधर्म का है तो दूसरी तरफ चुनाव को जीत में बदलने का हुनरमंद मान चुके अमित शाह को बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाने के बाद लगातार तीन उपचुनाव में हार के बाद पहले हरियाणा तो अब महाराष्ट्र में गठबंधन तोड़ कर जीतने के हुनर पर संघ का ही भरोसा डगमगा रहा है।
इसीलिये संकेत की भाषा में संघ राजधर्म बचाकर सत्ता का स्वाद लेने का मंत्र लगातार दे रहा है। लेकिन रास्ता जिस तरह जुदा हो रहा है उसमें हर सवाल वहीं जाकर रुक रहा है कि राजधर्म ताक पर रख चुनावी जीत हासिल करनी चाहिये या फिर राजधर्म के आसरे शिवसेना को साथ लेकर चलना चाहिये। यह सवाल संघ परिवार के भीतर इसलिये बड़ा है क्योकि चाहे अयोध्या आंदोलन का दौर हो चाहे 1993 में मुंबई सीरियल ब्लास्ट के बाद के हालात या फिर हिन्दुत्व के रास्ते मुस्लिमों को निशाने पर लेने वाले हालात। हर वक्त हर दौर में शिवसेना और बीजेपी एक साथ ही रही। और हर मुद्दे को राजधर्म से जोड़कर दोनो ने सियासी चालों को एकसाथ चलना सीखा। और इसके लिये मराठी मानुष के आंदोलन को छोड़ शिवसेना पहली बार 1990 के मैदान में अयोध्या आंदोलन का नाम जपते हुये लड़ी।
उस वक्त आरएसएस के लिये यह बड़ी बात थी कि शिवसेना उसके साथ खड़ी है। इसलिये 1990 में शिवसेना 183 सीट पर लड़ी और बीजेपी 104 सीट पर। फिर बाबरी मस्जिद विध्वस के बाद आडवाणी शोक मनाने लगे बालासाहेब ठाकरे ताल ठोंक कर कहने से नहीं चुके कि उन्होने विध्वंस किया। संघ परिवार ने भी कभी शोक या माफी के शब्दों का प्रयोग बाबरी मस्जिद को लेकर नहीं किया यानी सियासत के लिहाज से संघ की सोच से कहीं ज्यादा नजदीक शिवसेना ही रही। ठाकरे तो आडवाणी ही नहीं संघ से निकले राजनीतिक स्वयंसेवकों से कई कदम आगे बढ़कर खुद को हिन्दू हृदय सम्राट कहने से नहीं कतराये और दूसरी तरफ वीएचपी के नारे, ‘गर्व से कहो हम हिन्दु है’, को शिवसेना का नारा बना दिया। इसलिये दिल्ली में तब चाहे वाजपेयी-आडवाणी की हवा हो लेकर महाराष्ट्र में तब भी शिवसेना ने अपना कद बड़ा रखा और 1995 में बीजेपी को सिर्फ 116 सीट दी और शिवसेना 169 सीट पर लड़ी।
और चूंकि 1995 में शिवसेना बीजेपी गठबंधन को सत्ता मिली और उसके बाद 1999, 2004, 2009 में लगातार हार ही मिली तो सीट समीकरण का फार्मूला भी 1995 से आगे ना निकला ना बदला। और ना ही हिन्दुत्व के मुद्दे पर शिवसेना कभी बीजेपी के पीछे खड़ी नजर आयी और ना ही बीजेपी ने कभी किसी मुद्दे पर शिवसेना को पीछे छोड़ा। लेकिन पहली बार हिन्दुत्व राष्ट्रवाद और हिन्दु धर्म के बीच सियासत का ऐसा राजधर्म शिवसेना और बीजेपी के बीच आ खडा हुआ है, जहां बीजेपी मान कर चल रही है कि महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन का मंत्र उसके पास है। और शिवसेना मान कर चल रही है कि सत्ता बदलने की ताकत शिवसैनिकों के पास है । यानी राजधर्म का गठबंधन पहली बार सत्ताधर्म में ऐसा उलझा है कि दोनों को आपसी सहयोग से ज्यादा अपनी सियासी चालो पर ही भरोसा हो रहा है।
ध्यान दें तो पहली बार राजधर्म वाले प्रिय शब्द का जिक्र ना तो शिवसेना कर रही है ना ही बीजेपी। दोनों सत्ताधर्म की दुहाई दे रहे है। और सत्ता का मतलब है क्या यह किसी से छुपा नहीं है। क्योंकि मुंबई की चकाचौंध हो या फिर मुफलिसी। रफ्तार से दौड़ती जिन्दगी हो या चींटी की तरह रेंग कर चलता ट्रैफिक। बरसात में डूबने वाली मुंबई हो या घर की छत पर हेलीकाप्टर उतरने वाली आलीशान बिल्डिंग। मुंबई को संवारने का जिम्मा पाले बीएमसी पर कब्जा शिवसेना का है। जिसका सालाना बजट 31175 करोड़ का है। वहीं समूचे महाराष्ट् की सत्ता का मतलब है 175325 करोड़ का बजट। और याद किजिये तो काग्रेस एनसीपी सरकार के दौर में भूमि घोटाला हो या सिंचाई घोटाला। खेल लाखों करोड़ का हुआ।
बीते पांच बरस में ही दो लाख करोड़ के कई घोटालो के दायरे में सत्ता आयी। और बीते 15 बरस से सत्ता संभाले कांग्रेस एनसीपी के बीच हमेशा झगड़ा उन नीतियों को लेकर हुआ जिसका बजट ज्यादा था और उनके नेताओं के पसंदीदा कार्यकर्ता या नेता को लाभ ना मिल रहा हो। यह कितना मायने रखता है यह चुनाव के नोटिफिकेशन से महीने भर पहले कांग्रेसी सीएम की निपटायी फाइलों से समझा जा सकता है जो उन योजनाओं से ही ज्यादा जुड़ी थी, जहां सबसे ज्यादा पैसा था। असल सवाल यहीं से शुरु होता कि आखिर शिवसेना को महाराष्ट्र की सत्ता क्यों चाहिये। वह भी ठाकरे परिवार ने चुनाव से पहले ही सीधे क्यों कह दिया कि इस बार वह सीएम बनना चाहते है। और बीजेपी यह क्यों नहीं पचा पा रही है कि ठाकरे परिवार की रुचि अगर सत्ता संभालने में है तो फिर वह विरोध क्यों कर रही है। तो सत्ता का मतलब है महाराष्ट्र के समूचे खर्च पर कब्जा। और शिवसेना हो या बीजेपी दोनो ही महाराष्ट्र की सत्ता से बीते 15 बरस से बाहर ही है।
बीजेपी तो फिर भी राष्ट्रीय पार्टी है और उसके नेता या कार्यकर्तओ को पार्टी फंड से पैसा मिल जाता है जिससे पार्टी कैडर बरकरार रहे और काम करता रहे। लेकिन शिवसेना की उलझन यह है कि उसकी पहुंच पकड़ सिर्फ महाराष्ट्र में है। और महाराष्ट्र में ही जब सत्ता परिवर्तन की हवा चल रही है तो फिर सीएम पद अगर शिवसेना को नहीं मिलेगा तो शिवसैनिकों का हुजुम कितने दिन शिवसेना के साथ रहेगा। यानी महाराष्ट्र की सत्ता शिवसेना के लिये जीवन-मरण के सामान है। लेकिन बीजेपी का लोभ दिल्ली की सत्ता की हवा में हर राज्य को समेटने की चाहत है। इसीलिये हरियाणा में सहयोगी विश्नोई को बीजेपी ने ठेंगा दिखाने में देरी नहीं की।
और -महाराष्ट्र में उद्दव ठाकरे की जिद भी बीजेपी को खारिज करने में देरी नहीं लगी। असर इसी का है कि शिवसेना गठबंधन में रहते हुये मिशन 150 पर निकल पड़ी है। और बीजेपी एक बूथ 10 यूथ का नारा लगाने लगी है । और अगर शिवसेना को यह लगने लगा है कि बालासाहेब ठाकरे की विरासत को मोदी मंत्र हड़प लेगा तो फिर महाराष्ट्र की सियासत में खामोश राज ठाकरे का उदय एक तरीके से हो सकता है और यह सक्रियता कहीं ना कहीं बीजेपी के सियासी पाठ से टकराने के लिये दिल्ली से लेकर मुबंई तक नये तरीके से मथेगी। क्योंकि जो राज ठाकरे हजार दुश्मनी के बाद भी उद्दव ठाकरे के दिल के आपरेशन के वक्त अस्पताल चले गये वह ठाकरे की विरासत को जीवित रखने के लिये कब कैसे किसके साथ चले जायेंगे इसके लिये 24 सितंबर के सबह 11 बजे तक का इंतजार करना ही होगा। जब पित्तृ पक्ष खत्म होगा और शुभ मुहर्त शुरु होगा।
जाने माने पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग से साभार।