Priyanka Dubey-
वेद प्रकाश शर्मा और गुलशन नंदा के ’उपन्यासों’ को ‘लोकप्रिय’ होने के आधार पर हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने की खबर का विरोध हो रहा है. और एकदम दुरुस्त विरोध हो रहा है. यह बिल्कुल ठीक तर्क है कि सिर्फ़ लोकप्रिय होने से कोई टेक्स्ट साहित्य नहीं हो जाता. लेकिन इस विरोध में शामिल होते हुए हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि लोकप्रियतावाद के पक्ष में यह पूरा माहौल हमारा आपका ही बनाया हुआ है.
जब भी आप किसी लेखक की किताब के दस पन्ने तक भी पढ़े बिना उसकी और उसकी किताब की तस्वीर पोस्ट करते हैं, तब हर बार आप लोकप्रियतावाद को बढ़ावा दे रहे होते हैं. हर बार जब आप फ़ेस्टिवल के किसी सत्र में टेक्स्ट पर चर्चा करने की बजाय rhetoric में जाते हैं, तब हर बार आप लोकप्रियतावाद को बढ़ावा देते हैं. जब भी आप किसी लेखक की किताब की बजाय उसके जीवन या उसकी तस्वीरों की तारीफ़ करते हैं …तो आप टेक्स्ट को ग़ैरज़रूरी बताते हुए लोकप्रियतावाद को बढ़ावा देते हैं. लेखकों के संदर्भ में यह कि – जब भी कोई युवा लेखक किसी बहुत बुजुर्ग और बड़े लेखक की गोद में अचानक अपनी किताब पकड़ा देता है (इस किताब की एक भी पंक्ति बुजुर्ग लेखक ने नहीं पढ़ी है) और उस किताब के साथ उनकी तस्वीरें खींच कर सोशल मीडिया पर पोस्ट करता है – तब वह खुद लोकप्रियतावाद को बढ़ावा दे रहा होता है.
सिर्फ़ बुजुर्ग लेखक नहीं, लोग किसी के भी हाथ में अपनी किताब पकड़ा कर फ़ोटो डालने लगे हैं. फ़िल्मों में काम करने वाला कोई इंसान हो, दुकान चलाने वाला हो या कोई भी हो – किसी के भी हाथ में किताब पकड़ा कर बस यूं ही खींची गयी तस्वीरों से सोशल मीडिया भरा पड़ा है. मसअला यह है कि किताब कोई वस्त्र या गहना या मिठाई थोड़ी ना है कि भेंट करते हुए फ़ोटो पोस्ट की जाए. किताब का सारा सम्बंध पढ़े जाने से है. कोई दस पन्ने भी पढ़े और फिर तस्वीर पोस्ट करे तो बहुत अच्छा. लेकिन लोकप्रियतावाद के चक्कर में आप किताब और उसकी पूरी गरिमा को उधेड़ रहे हैं. We have literally been striping down books of their dignity. हमने किताब और टेक्स्ट का पढ़ने से जो सम्बंध है, उसे पूरी तरह लगभग ख़त्म सा ही कर दिया है.
किताबों को लेकर आज सारी बातें हो रहीं हैं- सिवाए एक अदद बात के, वह है उनका पढ़ा जाना. जब हम यह सब कर रहे थे, तब हमें एक ऐसे दिन के लिए भी खुद को तैयार करना चाहिए था जब सुरेंद्र मोहन और गुलशन नंदा के “उपन्यास” पाठ्यक्रम में शामिल किए जाएँ. पढ़ना लिखना गंभीर काम है. यह कर्म एक न्यूनतम गम्भीरता और serious engagement की माँग करता है. साहित्य की पूरी ज़मीन को हम रोज़ संदर्भहीन हल्के लोकप्रियतावाद की दीमक के हवाले करते रहे हैं. फिर जिस समस्या को हमने खुद पाल पोस कर बड़ा किया हो…उसके इस तरह पाठ्यक्रम में शामिल होने पर आश्चर्य कैसा ? दुखी होने का तो शायद नैतिक आधार भी हमारे पास नहीं है.
Sanjay Agnihotri
April 5, 2023 at 5:45 pm
हमारी अपनी भाषा यानि हिन्दी उतनी आगे नहीं बढ़ पायी जितनी विश्व पटल पर विदेशी भाषायें मुखरित हैं। जानते हैं क्यों?
ऑस्ट्रेलिया मे जब बच्चे छठी कक्षा पास कर सेकेंडरी स्कूल पहुंचते है तो उसे स्कूल का एक टूर कराया जाता है उस टूर मे जब वो बच्चे लाइब्रेरी पहुंचते हैं तो लाइब्रेरियन उन्हें एक छोटा सा लेक्चर देता है कि यदि आप इस लाइब्रेरी के सारे उपन्यास(जिसमे सब तरह के उपन्यास होते हैं ) पढ़ डालें तो आप भाषा (यानि अँग्रेजी) मे गणित के समान नम्बर ला सकते हैं। लाइब्रेरियन के उस कथन को भाषा अध्यापक निभाते भी हैं। मेरे बेटी और बेटे दोनों ने लाइब्रेरियन के कहे अनुसार किया और भाषा के नंबरों के दम पर यहाँ के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय मे मनचाही व्यावसायिक शिक्षा मे प्रवेश पाया। यही नहीं यहाँ नॉवेल स्टडी एक विषय भी है उसने भी स्कोर करने मे बहुत मदद की थी।
इसके विपरीत भारत मे उपन्यास पढ़ने वाले की डांट पड़ती है। कक्षा मे अध्यापक के सवाल पूछने पर यदि बच्चा किसी सवाल का जवाब न दे पाए तो वो अध्यापक टॉन्ट करता है कि क्या किताब के बीच मे नॉवेल छिपा के पढ़ते हो? हिंदी के अध्यापक किसी को सौ मे से पचास के ऊपर, नम्बर ही नहीं देना चाहते चाहे कोई कितना भी अच्छा लिखे। जैसे नम्बर उनकी तनखाह से कटने जा रहे हों।