(दाहिने से तीसरे नंबर पर लेखक पंकज कुमार झा)
इस पंद्रह अगस्त की दरम्यानी रात को बंगाल की खाड़ी के ऊपर से उड़ते हुए यही सोच रहा था कि सचमुच आपकी कुंडली में शायद विदेश यात्रा का योग कुछ ग्रहों के संयोग से ही बना होता है. मानव शरीर में आप जबतक हैं, तबतक लगभग आपकी यह विवशता है कि आप पृथ्वी नामक ग्रह से बाहर कदम नहीं रख सकते. हालांकि इस ग्रह की ही दुनियादारी को कहां सम्पूर्णता में देख पाते हैं हम? अगर भाग्यशाली हुए आप तब ज़रा कुछ कतरा इस धरा के आपके नसीब में भी देखना नसीब होता है.
यह भी याद कर रहा था कि पिछले साल उसी समय नियति ने हमें प्रशांत महासागर के ऊपर से उड़ाए ले जा कर ‘पाताललोक’ अमेरिका में पटका था तो इस बार अपने पड़ोस के थाईलैंड नामक ‘हिन्दू देश’ की, मुस्कानों के उस फुलवारी की यात्रा करने को निकल पड़ा था. महज़ 15-17 घंटे पहले यात्रा का कार्यक्रम बना और अगले प्रहर ब्रम्ह मुहूर्त की बेला में अपन बैंकॉक के स्वर्णभूमि एयरपोर्ट पर थे.
इस संक्षिप्त यात्रा में 3 दिन पटाया तो एक दिन बैंकॉक में रुक कर वापस आ जाने का प्लान था. हुआ यह था कि अपने एक वरिष्ठ मित्र ‘ग्लोबल टूर एंड ट्रेवेल्स’ नाम से एक पर्यटन एजेंसी चलाते हैं. कंपनी ने सदा की तरह एक सस्ता सा लेकिन सुन्दर और टिकाऊ पैकेज बनाया हुआ था. यात्रा पर निकलने से एक दिन पहले ही एक यात्री की दुर्घटना हो जाने के कारण उसकी यात्रा रद्द हो गयी तो एजेंसी के आग्रह पर अपन ही निकल पड़े थे उस सीट को कब्जा कर. बैंकॉक हवाई अड्डे से सीधे पहले पटाया जाने का ही प्लान था. इमिग्रेशन से बाहर निकलते ही मधुर मुस्कान के साथ गाइड ‘नट्टू’ ने स्वागत किया. साथ में मार्गदर्शक का काम करते हुए एजेंसी के प्रतिनिधि मनोज राठौर भी थे ही. यानी दो-दो मार्गदर्शकों के गिरफ्त में आपको देश-दर्शन करना था.
इमिग्रेशन पर तमाम देशों के नागरिकों की उमड़ी भीड़ देख कर लगा कि इस देश की दाल-रोटी तो शायद वीजा के शुल्क से ही चल जाती होगी. भीड़ के मामले में दिल्ली के किसी व्यस्त बस अड्डे जैसा हाल रहता है हमेशा उस एयरपोर्ट का. तभी तो कुछ दशक पहले तक अनजाना अनदेखा सा, भारत की संस्कृति को सीने में छुपाये यह देश अपने विकास की गाथा अब एयरपोर्ट से ही दिखाना शुरू कर देता है. तभी तो देखते ही देखते भारतीय मुद्रा के मुकाबले इस छोटे देश की मुद्रा ‘बाथ’ दोगुनी कीमत का हो गया. हां, यहां तक पहुचने में इस देश ने क्या कीमत अदा की है, यह विमर्श ज़रा सा आगे करने की कोशिश करूंगा, हालांकि बिना जजमेंटल हुए या पाठकों पर ही उचित-अनुचित को तय करने का भार डाल देना ही इस यात्रा प्रसंग को रोचक बना सकता है.
हम सब जानते ही हैं कि कई अन्य देशों की तरह ही थाईलैंड ने भी चयनित देशों के पर्यटकों के लिए ‘ऑन एरायवल वीजा’ की सुविधा दी हुई है. यानी अगर आपके पास केवल पासपोर्ट हो तो आप सीधे बैंकॉक की उड़ान पकडिये, कुछ घंटे क़तर में खड़े होकर दो से ढाई हज़ार रूपये का शुल्क अदा कीजिये और फिर इमिग्रेशन काउंटर के उस पार कोई नट्टू या नैन्सी नामक गाइड फूल लेकर आपके स्वागत में तत्पर मिलेगा, हाथ जोड़कर नमन करने की ‘थाई परंपरा’ को निभाते हुए. यात्रा की थकान के बावजूद कुछ घंटे कतार में खड़े रहते हुए जब आप वीजा काउंटर पर पहुचेंगे तो एक ‘सूचना’ पढ़ कर ही मानो थकान आपकी हवा हो जायेगी. पढ़ कर आप आनंदित हो जायेंगे यह सोच कर कि हमारे देश के एक राजकुमार को किस तरह सहेज कर इस देश ने रखा हुआ है. पहली ही चेतावनी आपको यह मिलेगी कि इस देश में कृपया भगवान बुद्ध के मुखौटे वाली प्रतिमा नहीं खरीदें. ऐसी क्षत-विक्षत प्रतिमा खरीदना या बेचना थाई क़ानून के अनुसार दंडनीय अपराध है.
मन में अनेक तरह के सवाल और सुखद जबावों के साथ पटाया की यात्रा शुरू हो गयी थी. आगे काफी जिज्ञासाओं का समाधान होना था, आनंद तो खैर इस देश का पर्याय ही हो गया है, जिसे उठाने भाई लोग आये थे. बस रफ़्तार पकड़ चुकी थी. सबने एक झपकी मात्र ली कि माइक पर दोनों गाइड बंधुओं का थाई मिश्रित अंग्रेज़ी और छत्तीसगढ़ी मिश्रित हिन्दी में तक़रीर शुरू हो गया. मनोज की चेतावनी ये कि बस दो काम यहां नहीं करें, ‘यहां के राजा के बारे में कुछ भी कहना नहीं और दूसरा सड़क पर कहीं भी थूकना नहीं’ इस बात का सब कड़ाई से पालन करेंगे. शेष हर काम करने को आप आज़ाद हैं. आखिर ‘थाई’ शब्द का मतलब भी ‘आज़ाद’ ही होता है हालांकि अभी तक हमारे सहचर बंधु इस शब्द का अर्थ ‘जंघा’ समझ कर ही यहां आने को प्रेरित हुए थे. मैंने देखा कि थूकने की आज़ादी छीन जाने का भान होते ही कई मित्र बेचैन से हो गए थे. उनके गुटखे के शौक का क्या होगा, इस चिंता ने मानो कुछ के मन में यहां आने के उत्साह को ज़रा पस्त सा कर दिया हो.
वैसे भी पस्त तो हम सब ज़रा हो ही गए थे. शाम में रायपुर से चल कर सुबह थाईलैंड पहुंचते हुए, तीन-तीन हवाई अड्डों पर बोरियत भरी औपचारिकताओं ने थका तो दिया ही था. वैसे भी घंटे-दो-घंटे की हवाई यात्रा भी पता नहीं क्यू ट्रेन के चौबीस घंटों की सफ़र से ज्यादा भारी पड़ जता है देह को, ऐसा आप सबने महसूस किया ही होगा. तो बैंकॉक से पटाया तक की 127 किलोमीटर की यात्रा में फिलहाल कुछ ज्यादा समझ देख नहीं पाए थे. जल्द से जल्द होटल पहुच कर पहले कुछ देर आराम कर लेना चाहते थे हम. हालांकि गाइड बताते जा रहा था कि किस तरह आपको हाथ जोड़ कर प्रणाम करने की थाई परंपरा का पालन करना है. सच ही है, अब ये भी हमें किसी पूरब के देश से ही सीखना होगा, ख़ास कर उस देश से जहां आप हाथ मिलाकर अभिनन्दन करने की पाश्चात्य परंपरा को अपनाते हुए किसी को नहीं देखेंगे.
नट्टू, जिसे भारतीय पर्यटकों ने अपनी सुविधा से ‘नाथू दादा’ का नाम दे दिया था, जिसे उन्होंने खुद ही खुशी से बताया, थाईलैंड के बारे में अपनी जानकारी का व्यावसायिक प्रदर्शन करने लगे. पहले पॉकेटमारों आदि से सावधान करने के बाद उसने बताना शुरू किया कि थाईलैंड की कुल आबादी 6.5 करोड़ है, और केवल राजधानी बैंकॉक में ही देश की 1 करोड़ 30 लाख आबादी निवास करती है. मैं हिसाब लगाने लगा कि इस अनुपात में तो दिल्ली में 20 करोड़ से अधिक लोगों को होना चाहिए था. लेकिन अपनी दिल्ली जहां देश की दो प्रतिशत जनसंख्या के साथ ही हांफ रही है वहां बैंकॉक अपने 20 प्रतिशत नागरिकों को एक ही शहर में समेटे रख कर किस तरह व्यवस्थित और सुसंगत तरीके से अपना काम कर रहा है, यह सीखने हमारे कर्णधारों को वहां जाना चाहिए. ‘अध्ययन यात्रा’ पर यूं तो सारे सरकारी बाबू भी जाते ही रहते हैं, लेकिन कैसा अध्ययन करते हैं वहां जाकर यह पाठकों की कल्पना पर छोड़ना ही मुनासिब है. खैर.
नाथू दादा ने बड़े ही गर्व से बताया कि बताया कि इस देश के 95 प्रतिशत नागरिक हिन्दू हैं, 3 प्रतिशत मुस्लिम और शेष अन्य मतावलंबी. आश्चर्यजनक जानकारी को हमने फिर से एक बार क्रॉस चेक किया. वढेरा के अंदाज़ में पूछ बैठा था नाथू से, नाथू आर यू सीरियस? यस, आयम सीरियस कहते हुए उसने समूचे आत्मविश्वास के साथ अपने आंकड़ों को दोहराया और फिर बताया कि हमारे देवता बुद्ध हैं, और हम सब हिन्दू. उसकी बातें सुनकर अनायास अम्बेडकर हमें लिलिपुट सा दिखने लगे. पहली बार हमें अपने कथित संविधान निर्माता के प्रति नफरत सी हुई जिन्होंने बुद्ध की तमाम ठेकेदारी को हड़पने की कोशिश करते हुए भारत में ही बुद्ध को बेगाना और उनके मत को हिन्दू आस्था के बरक्स खड़ा कर देने का ऐतिहासिक अपराध किया था. हालांकि दोषी केवल आंबेडकर नहीं थे, सचमुच हम ब्राम्हण हिन्दुओं का भी कसूर ज़रा भी कम नहीं है, जिसने जातिगत शोषण और छूआछूत आदि को प्रश्रय देकर ऐसी हरकतों के लिए खाद-बीज मुहय्या कराया था.
नाथू बताते जा रहा था और हमारे मानस पटल पर चलचित्र की तरह कथित दलित चिंतकों, भारतीय नव बौद्ध कठमुल्लों का चेहरा एक एक कर सामने आता जा रहा था. ऐसे सभी हिन्दू विरोधी भारतीय नव बौद्ध चिन्तक एक-एक कर मेरे मन के कठघरे में अपराधी की तरह आते जा रहे थे जिन्होंने हमारी संस्कृति को उतना ही नुकसान पहुचाया जितना सहेज कर पूरब के इस देश के हमारे बंधुओं ने रखा है. स्वाभाविक ही है कि आंबेडकर नामक किसी प्राणी का नाम बुद्ध के उपासक इन करोड़ों थाई हिन्दुओं ने कभी सुना ही नहीं था. उन्हें बौद्ध का टेंडर केवल भारत के लिए ही मिला था. थाईलैंड तो अपने माथे पर किस तरह तरह हिन्दू मुकुट को सजाया है इसकी गवाही तो एयरपोर्ट पर ही वह अद्भुत विशालकाय पाषाण कृत देता नज़र आता है जिसमें भारतीय शास्त्रों में वर्णित ‘समुद्र मंथन’ के पौराणिक दृश्य को शानदार एस्थेटिक सेन्स के साथ सहेजा हुआ है, उसके लिखित विवरण के साथ.
थाई एयरपोर्ट का नाम स्वर्णभूमि, हाथ जोड़ कर प्रणाम की मुद्रा में अभिनन्दन करने की थाई परंपरा, राजा का नाम ‘राम’ (अभी नवमें राम का राज्य है), पहले इस देश का नाम ‘सियाम’ होना, इसकी पुरानी राजधानी का नाम ‘अयोध्या’ होना, बैंकॉक का पुराना नाम देवभूमि… आदि तथ्य सुनते हुए हम अपनी जानकारी को दोहराते हुए उसे पुख्ता कर रहे थे, लग्जरी बस समूची रफ़्तार से भागी जा रही थी, रास्ते के खेत-पथार, बिल्डिंगों आदि को तेज़ी से पीछे छोड़ते हुए. हम खुद भी अपने गौरव बिन्दुओं की तलाश में काफी पीछे चले गए थे कि साथ चल रहे युवाओं की चिल्लाहट से तंद्रा भंग हुई.
पटाया-पटाया चिल्लाते हुए साथ चल रहे युवाओं ने ऐसा शोर मचाना शुरू किया मानों ये सब कोलंबस या वास्को डी गामा जैसा किसी भूमि की तलाश करने निकले हों और अब अकस्मात् इन्हें अपनी इच्छित भूमि मिल गयी हो. भोर की पहली किरण के साथ नियोंन लाईटों से लिखे गए ‘पटाया सिटी’ का जगमगाता बोर्ड तेज़ी से बड़ा होता जा रहा था. सारे युवा और वृद्ध युवा मित्र भी जल्द से जल्द इस ‘तीर्थ’ पर पांव रखने को बेताब से हो रहे थे, मानसिकता समझ में आ रही थी. भरोसा हो गया था कि आगे की यात्रा कम से कम मेरी ज़रा कठिन होने वाली है, क्यूंकि सारे प्यासे-तरासे लोग उस ज़मीन पर उतरते ही कहीं खो जाने वाले हैं.
जीवन की हर यात्रा में आपको अपने मन का सहयात्री मिले ही, ऐसा कहां संभव होता है भाई? यात्रा चाहे नगर-डगर की हो या जीवन की, ‘समझौता’ इसकी पहली ही शर्त है शायद. किसी ने कहा भी तो है कि जीवन सफ़र में ‘अगर आपको अपने लायक एक मित्र मिल जाय तो समझिये आप भाग्यशाली हैं, अगर दो ऐसे मित्र मिलना संभव हो तब तो आपके भाग्य का पारावार ही समझिये, और दो से अधिक मित्र? ऐसा होना तो असंभव ही है.’ तो जब समूचे जीवन में ही ऐसा होना संभव नहीं है, तब आप कैसे सोच सकते हैं कि अनजाने लोगों की भीड़ के साथ आप किसी बेगाने देश की यात्रा पर हों और वहां आपको सारे अपनी तरह के लोग मिलेंगे? तो अपने टीम के लोगों के साथ तादात्म्य बिहते हुए, उन्हें अपने ढंग से घूमने-घामने को छोड़ देने, और खुद अपनी मर्जी का करने का मानस लेकर ही आप ऐसे किसी यात्रा को सरल बना सकते हैं.
मैंने खुद के बारे में भी सोचा कि अपन भी कोई तीर्थ यात्रा करने का मानस लेकर तो निकले नहीं हैं. ज़ाहिर है कम या ज्यादा, कुछ न कुछ भौतिक लालसा के साथ ही आये होंगे यहां तक. हां, इतना तय करके ज़रूर निकले थे अपन कि भले रूप और यौवन का बाज़ार बने इस देश को हमें भी जीना है जी भर, लेकिन कम से कम मांस-मज्जा की खरीद से खुद को बचाने की भरसक कोशिश करूंगा. बकौल अकबर इलाहाबादी साहब- ”दुनिया में हूं, दुनिया का तलबगार नहीं हूं, बाजार से गुजरा हूं, खरीददार नहीं हूं.’’ हालांकि यहां आकर इलाहाबादी का ही एक दूसरा मिसरा ज्यादा काबिलेगौर हो जाता है- ”इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई है, कि हर सूरत कलेजे से लगा लेने के काबिल है.”
तो वियतनाम और अमेरिका नामक दो सांढों की लड़ाई में नाहक अपनी ‘फसल’ बर्बाद कर, काफी कुछ हारकर सुन्दर, सरस और पावन यह देश किस तरह आज ज़िंदा मांसों का बाज़ार बना फिर रहा है, बुद्ध का अपना यह प्यारा देश किस तरह अपनी बेटियों को आज ‘आम्रपाली’ बना देने पर स्वेच्छया मजबूर है, यह उसकी विवशता मात्र है या सामयिक ज़रूरत? हर तरह के सांसारिक दोगलापन के खिलाफ एक चिर विद्रोही का शंखनाद है यह या इस चोले को माटी का समझ इस्तेमाल कर लेने की आस्था इसमें इन्होने जोड़ दिया है, यह चर्चा आगे की कड़ियों में. हालांकि इस संबंध में जजमेंटल होने से पहले हमको-आपको यह भी खुद ही तय करना होगा कि अपने नंबर का बिल्ला लगाए पटाया के मसाज़ बाज़ारों में बैठी थाई यौवनाओं का चित्र आपको ज्यादा अश्लील लगता है या दिल्ली के जेठ की दुपहरी में लाल बत्ती पर हाथ में कटोरा थामे अपनी ही चार-छः साल की दुधमुंही बेटियों का दृश्य. अंततः तय हमें ही करना है कि समाज के माथे पर ‘भूख’ ज्यादा बड़ा कलंक है या उसके सीने पर उगा हनी मसाज़ सेंटर….!
…जारी…
इस यात्रा संस्मरण के लेखक पंकज कुमार झा छत्तीसगढ़ भाजपा की मैग्जीन ‘दीपकमल’ के संपादक हैं. उनसे संपर्क jay7feb@gmail.com के जरिए किया जा सकता है. पंकज बिहार के मिथिला इलाके के निवासी हैं. नौकरी भले ही भाजपा में करते हैं पर वक्त मिलते ही देश-विदेश की यात्राओं पर निकल पड़ते हैं, यायावर बन कर.
पंकज इसके पूर्व अपनी अमेरिका यात्रा का वृत्तांत लिख चुके हैं:
मेरी अमेरिका यात्रा (1) : वो झूठे हैं जो कहते हैं अमेरिका एक डरा हुआ मुल्क है
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मेरी अमेरिका यात्रा (2): जहां भिखारी भी अंग्रेज़ी ही बोलते हैं!
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Comments on “मेरी थाईलैंड यात्रा (1) : कृपया भगवान बुद्ध के मुखौटे वाली प्रतिमा न खरीदें!”
यायावार पंकज झा के अनुभव लाजबाव. जिस तरीके से हिन्दू की अवधारणा को उन्होंने समेटा है वह शानदार है. थाईलैंड की महान धरती पर लोग किसलिए जाते हैं और वह किस प्रकार से विभिन्न प्रसंगों के लिए महान है ये भी उन्होंने बहुत ही रोचक शैली में बताया है. एक तरफ तीर्थ है थाईलैंड में तो शाम होते ही लोग दूसरे तीर्थ में अपना सर झुकाने की कोशिश में होते हैं. सच है कैसे आवश्यकता के अनुसार तीर्थ ही बदल जाते हैं. धन्यवाद पंकज जी और भड़ास मीडिया बहुत ही बढ़िया अनुभव हम सबसे साझा करने के लिए.
Apka article bahut vadiya hai … apne paper me shapna chahunga krpya mail kare… weekendreport@yahoo.com … Regards
झउआ बाबू बड़का मास्टर पीस निकले थाईलैंड बिना पत्नी के 🙄 , दूसरो का मजाक बना रहे हैं पक्का ई खुद भी वहां मजा लिये होंगे खिलवाओ इनसे बीबी बच्चों की कसम 😆 हम तो भइया दू बार गये मगर परिवार के साथ 🙁