अभिषेक श्रीवास्तव-
तीस्ता प्रसंग : वरिष्ठ पत्रकार अजीत साही लिखते हैं कि तीस्ता सीतलवाड़ अब एकाध साल जेल में रहेंगी। मुझे ऐसा नहीं लगता। तीस्ता का केस संजीव भट्ट और श्रीकुमार के जैसा नहीं है, देखने में भले ऐसा लगता हो। निजी पृष्ठभूमि इस समाज में बहुत बड़ी चीज़ है। इस देश में खानदानी आदमी का कुछ नहीं बिगड़ता, ये आम अनुभव रहा है। चाहे वह राजनीति से हो या किसी और क्षेत्र से।
तीस्ता का खानदान मूल पंजाबी तलवाड़ समुदाय का श्रेष्ठि रहा है। पंजाब के सेठ तलवाड़ गुजरात प्रवास के बाद कालांतर में सीतलवाड़ हुए। तीस्ता के दादा मोतीलाल चिमनलाल सीतलवाड़ बहुत बड़े आदमी थे। भारत के पहले अटॉर्नी जनरल, बार काउंसिल और प्रथम विधि आयोग के पहले चेयरमैन रहे। उनके पिता यानी तीस्ता के परदादा चिमनलाल हरिलाल सीतलवाड़ ‘सर’ थे। अंग्रेजी साम्राज्य ने उन्हें ऑर्डर ऑफ दी इंडियन अंपायर के नाइट कमांडर की उपाधि से नवाजा था। वे जलियांवाला बाग नरसंहार की जांच के लिए गठित हंटर कमीशन के सदस्य रहे। आजादी के चार महीने बाद इनकी मौत हुई।
‘सर’ सीतलवाड़ के पिता यानी तीस्ता के दादा के दादा हरिलाल अंबाशंकर सीतलवाड़ अंग्रेजों द्वारा ‘राव साहब’ की उपाधि से नवाजे गए थे। वे अहमदाबाद के सदर अमीन थे। बाद में वे लिंबडी स्टेट के दीवान बने। इनके पिता यानी तीस्ता के परदादा के दादा अंबाशंकर बृजराय सीतलवाड़ सीधे ईस्ट इंडिया कंपनी के मुलाजिम थे और वे अहमदाबाद के प्रधान सदर दीवान के पद से रिटायर हुए। उस समय यह पद किसी गैर-यूरोपीय के लिए भारत में सबसे बड़ा हुआ करता था।
इस तरह तीस्ता का ज्ञात और सार्वजनिक खानदानी इतिहास 1782 तक जाता है मने आज से करीब ढाई सौ साल पहले तक। इतनी लंबी अवधि में कभी किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। यह ऐतिहासिक विडंबना ही है कि जिस शहर अहमदाबाद को उनके लकड़दादा अपने हुक्म से हांका करते रहे होंगे, आज वहीं तीस्ता की पेशी है। यह विडंबना इसलिए पैदा हुई है क्योंकि सीतलवाड़ों के खानदान में तीस्ता पहली हैं जो स्टेट के खिलाफ हैं। उनसे पहले बाकी सभी स्टेट के उच्च पदस्थ मुलाजिम थे, चाहे वे गोरे रहे हों या फिर काले अंग्रेज।
कुछ साल पहले हम देख चुके हैं कि तीस्ता के यहां जब छापा पड़ा था तो कपिल सिब्बल ने चीफ जस्टिस के कोर्ट की कार्रवाई को बीच में रुकवा कर पांच मिनट में स्टे ले लिया था। इस बार स्टेट ने मौका नहीं दिया, सीधे पुलिस उन्हें उठा ले गई। मात्र चौबीस घंटे हुए हैं और संयुक्त राष्ट्र से बयान आ चुका है। पिटीशन पर दस्तखत शुरू हो चुके हैं। तीस्ता का केस क्या मोड़ लेता है, वह इस देश और समाज का इस अर्थ में एक इम्तिहान होगा कि 2014 के बाद आए नए निजाम में खानदानी प्रिविलेज बचे हैं या नहीं। तीस्ता का केस न्याय के लिए निरंतर किए गए संघर्ष के साथ साथ खानदानी प्रिविलेज के चलते स्टेट के दमन से अब तक बचे रहने की कहानी भी है। इसलिए बाकी असहमतों की कहानियों से अलग और विशिष्ट है।
मेरा मानना है कि सत्ता अभी इतनी अंधी नहीं हुई है कि किसी को सजा सुनाते हुए उनके खानदानी क्रिडेंशियल्स की उपेक्षा कर दे। इसीलिए, मुझे लगता है कि राहुल गांधी या तीस्ता आदि का केस सत्ता के आंतरिक विमर्श, गतिकी और परिचालन का हिस्सा है। तंत्र के भीतर चीज़ें अलग ढंग से घटती हैं। तंत्र के बाहर रहने वाले अक्सर धोखा खाने को अभिशप्त होते हैं।