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सियासत

विपक्ष की पटना बैठक में क्या हुआ जो भाजपा का हिल गया आत्मविश्वास!

केपी सिंह-


तमाम किंतु परंतु के बीच पटना में प्रतिपक्षी नेताओं की बैठक आखिर सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गयी। लगभग 16 प्रमुख दल इसमें जुटे जबकि पहले कांग्रेस तक के इनके साथ बैठने में शक शुबहा था। लगता है कि कांग्रेस ने मान लिया है कि भाजपा को सत्ता से बाहर करने की कारगर कोशिश के लिये उसे बड़ा दिल दिखाना ही पड़ेगा। पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव को लेकर तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस वाम गठबंधन के बीच जिस तरह तल्खी उपजी थी उसे भी विपक्ष की बैठक के यज्ञ में बड़ा विघ्न माना जा रहा था। लेकिन ममता बनर्जी न केवल बैठक में आयीं बल्कि अपने स्वभाव के विपरीत लोकसभा चुनाव के लिये एकता की खातिर वामदलों के नेताओं तक से उन्होंने सौम्यतापूर्ण व्यवहार किया। विपक्षी बैठक में उपस्थित सभी दल हर सीट पर एक उम्मीदवार उतारने के लिये आगे बढ़ने को सहमत हुये।

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अलबत्ता आम आदमी पार्टी इस बात पर अड़ गयी कि जब तक दिल्ली के लिये लागू अध्यादेश के संबंध में कांग्रेस अपना रूख स्पष्ट नहीं करेगी तब तक उनकी पार्टी के लिये ऐसे किसी आयोजन में प्रतिभाग संभव नहीं होगा जिसमें कांग्रेस प्रतिभागी हो। बैठक के अंत में अरविंद केजरीवाल पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान को साथ लेकर सामूहिक पत्रकार वार्ता के पहले ही चले गये ताकि अपनी नाराजगी प्रकट कर सकें। साथ ही उनके प्रतिनिधियों ने यह भी जता दिया है कि ऐसी स्थिति में आम आदमी पार्टी कांग्रेस की मेजबानी में शिमला में 12 जुलाई को प्रस्तावित अगली बैठक से दूर रहेगी। उसकी इस तमतमाहट से कांग्रेस बेफिक्री बनाये हुये है और अन्य दलों ने भी उसकी हठधर्मिता को खास भाव नहीं दिया है। इसीलिये किसी दल के नेता ने अरविंद केजरीवाल के साथ बैठक से उठने की जहमत नहीं उठायी और न ही संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में कोई ऐसी बात कही जिसे कांग्रेस को चुनौती देना माना जाये।

बताते है कि बैठक में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच इस मुद्दे पर खींचतान भी हो गयी थी जिसे ममता बनर्जी ने शांत किया। मल्लिकार्जुन खरगे आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता द्वारा कांग्रेस पर भाजपा के साथ मिले होने का आरोप लगाये जाने से बिफरे हुये थे। उन्होंने बैठक में इस बात पर अरविंद केजरीवाल को आड़े हाथों ले लिया जिसे लेकर दोनों के बीच गर्मागर्म वार्तालाप हो गया।

दरअसल सारे भाजपा विरोधी दल इस हकीकत को मान चुके हैं कि कांग्रेस के बिना केन्द्र मंे सत्ता बदलने की जद्दोजहद करने का कोई अर्थ नहीं है इसलिये सभी को इस बात का संतोष था कि कांग्रेस ने विपक्ष की संयुक्त बैठक में उपस्थित होना स्वीकार किया और समझौते की सहमति बनाने के लिये अपनी ओर से हर संभव त्याग करने का संकेत भी दिया है इसलिये आम आदमी पार्टी द्वारा उस पर बनाये जा रहे दबाव के फेर में खेल बिगाड़ने की कोई तुक नहीं है।

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अरविंद केजरीवाल ने अन्य दलों की तरह राज्यसभा में दिल्ली अध्यादेश के विरोध में कांग्रेस का समर्थन जुटाने के लिये राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे से समय मांगा था लेकिन उन्होंने समय नहीं दिया। कई कारण हैं जिनके कारण कांग्रेस का आम आदमी पार्टी से मलाल दूर नहीं हो पा रहा है। कांग्रेस आम आदमी पार्टी को विश्वसनीय नहीं मानती और इसके लिये खुद केजरीवाल का आचरण जिम्मेदार है। कांग्रेस मानती है कि मनमोहन सरकार के समय उसकी साख देशभर में धूमिल करने के संघ के षड़यंत्र में केजरीवाल ने मुख्य किरदार की भूमिका अदा की थी और इसी वजह से नरेन्द्र मोदी का राजनीति के राष्ट्रीय क्षितिज पर इतने धमाकेदार ढंग से उदय हुआ जिन्हें हिलाना अब मुश्किल हो रहा है।

कांग्रेस केजरीवाल की अराजक महत्वाकांक्षा से भी बखूबी परिचित है जिसके तहत रातों रात राष्ट्रीय विकल्प बनने के लिये उन्होंने तरह तरह से हाथ पैर मारे। पहले काशी जाकर सीधे मोदी से भिड़ गये जिसमें उन्हें तात्कालिक सफलता भी मिली क्योंकि इस चुनाव में मोदी के सामने होते हुये भी उन्हें अच्छे खासे मत मिले थे। इस राजनीतिक पूंजी के सहारे उनकी कोशिश कांग्रेस से प्रतिपक्ष का स्पेस हथियाकर भाजपा के सीधे मुकाबले में आने की थी और इस सोच के कारण कांग्रेस महसूस कर रही थी कि वे मुख्य शत्रुता उसके साथ निभा रहे है। आगे चलकर यह साबित भी हुआ। उन्होंने दिल्ली भी कांग्रेस से छीनीं थी और उन्हें दूसरी सफलता पंजाब में मिली। वहां भी कांग्रेस का ही शासन था। गुजरात विधानसभा के पिछले चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ करने के लिये केजरीवाल ने वहां हर सीट पर जोर लगाया और नतीजा यह हुआ कि गुजरात में जिसने कि इसके पिछले चुनाव में भाजपा को पसीना ला दिया था इस बार करारी हार झेलनी पड़ी। इसके बाद केजरीवाल राजस्थान में कांग्रेस की जड़े खोदने में जुट गये।

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इस बीच जब भाजपा उन्हें सबक सिखाने के लिये उतारू हो गयी तो उसके दांवपेच से केजरीवाल घबरा कर अपने तेवर भुला बैठे और भाजपा के सामने समर्पण की मुद्रा में आ गये। उन्होंने अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने के मुद्दे पर विपक्ष के आम रूख के विपरीत जाकर सरकार का समर्थन कर दिया। सत्य तो यह है कि वे भाजपा की बी टीम के रूप में काम करने लगे थे ताकि उसके कोप से अपने को बचा सकें और औबेशी की तरह भाजपा की रहमदिली जुटा सके। कई राजनीतिक प्रेक्षक भी उनकी आशा के अनुरूप सोचने लगे थे क्योंकि उनका तरीका ऐसा हो गया था जिससे भाजपा का कोई नुकसान न हो और हर जगह वे कांग्रेस के वोट को बांटते हुये अपने को दिखा सकें। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अपने लिये आशीर्वाद की कामना शुरू कर दी थी ताकि मोदी पसीज सकें। साथ ही उन्होंने हिंदुत्व की राजनीति के आगे भी समर्पण शुरू कर दिया था जिसे सैद्धांतिक रूप से पचाना कांग्रेस को मुश्किल लग रहा हो तो इसमें अन्यथा क्या है।

इसके अलावा कांग्रेस की दिल्ली और पंजाब इकाईयां केजरीवाल को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं करना चाहती। कांग्रेस हाईकमान को इस बारे में भी सोचना पड़ रहा है। इसलिये कांग्रेस उन्हें प्रोत्साहित करने के बिल्कुल मूड में नहीं है। उन्हें खुले आम बस इसलिये नहीं निकाल रही ताकि दूसरी विपक्षी पार्टी इससे खिन्न न हों। कांग्रेस का विचार यह है कि अगर केजरीवाल को विपक्ष से छिटकने के लिये मजबूर कर दिया जाये तो वे अलग थलग होकर निस्तेज हो जायेंगे और दूसरे राज्यों में विकल्प की बाट जोह रहे मतदाताओं को भ्रमित करने की कोशिशों में कामयाब नहीं हो पायेंगे।

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विपक्ष की इस बैठक से भाजपा में बौखलाहट है जिसे उसके नेता खुद ही उजागर कर रहें हैं। दरअसल कर्नाटक विधानसभा चुनाव के समय से भाजपा नेताओं के आत्मविश्वास पर बुरा असर पड़ा है। संघ ने भाजपा को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करिश्मे पर एकमात्र भरोसा न करने की जो सलाह दी उससे यह संदेश चला गया कि मोदी को लेकर उसे तेजी से एंटीइनकाम्बेंसी फैक्टर सक्रिय होता दिख रहा है जिससे भाजपा को लेकर लोगो का परसेप्शन खराब हुआ है। यह नहीं कहा जा सकता कि विधानसभा के चुनाव में लोग राज्य की परिस्थितियां देखकर फैसला करते हैं लेकिन लोकसभा में जब मोदी का चेहरा सामने आता है तो फिर वे कहीं नहीं भटकते।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के अभियान में मोदी ने जिस तरह स्वयं को आगे रखकर चुनाव अभियान चलाया था उसके मद्देनजर अगर पहले जैसी स्थिति होती तो राज्य के नेताओं की कमियां भूलकर लोग भाजपा को ही वोट करते। लोग मोदी के करिश्मे को इतना महत्व देते रहे हैं कि कांग्रेस के तमाम लुभावने वायदे काम नहीं आते थे वरना किसानों के लिये न्याय योजना के तहत 72000 रूपये सालाना देने का पिछले लोकसभा चुनाव का वायदा तो बहुत भारी साबित होता। जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहें है वहां भी सर्वे रिपोर्ट कांग्रेस के पक्ष में आ रही है जबकि लोकसभा चुनाव की हवा बनाने में इन राज्यों के चुनाव के महत्व को देखते हुये मोदी निजी तौर पर इनमें अपना जोर लगाने से नहीं चूकेंगे।

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बेहतर होता कि भाजपा विपक्ष की इस बैठक पर कोई टिप्पणी ही नही करती। बैठक को नजरअंदाज कर देती तो शायद उसका उतना महत्व नहीं बन पाता। लेकिन लगता है कि बैठक से भाजपा के नेता हड़बड़ा गये और वे जिन मुद्दों पर आलोचना कर रहे हैं वे बहुत बेतुकी हैं। पार्टी के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि राहुल गांधी की दादी इन्दिरा गांधी ने इमरजेंसी में जिन लालू और दूसरे नेताओं को बंद कराया था वे आज उनकी पार्टी से एकता कर रहे हैं।

स्मृति इरानी ने भी इसी का हवाला दिया। इस आधार पर विपक्ष में एक हो रहे दलों को अवसरवादी साबित करने में लगी भाजपा के नेता यह भूल जाते हैं कि एक समय उनके शीर्ष नेता अटल बिहारी बाजपेयी कांग्रेस के साथ राष्ट्रीय सरकार बनाने की पेशकश कर रहे थे जिसे कांग्रेस ने ही मंजूर नही किया था। अगर इमरजेंसी का दर्द शाश्वत है तो अटल जी को भी कांग्रेस के साथ बैठने की बात कहने के पहले इसका ध्यान रखना चाहिये था। नरेन्द्र मोदी तो इमरजेंसी में जेल में भी नहीं रहे जबकि अटल जी को तो खुद को इन्दिरा गांधी जी ने बंद कराया था।

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स्मृति इरानी हर बात में कांग्रेस के खिलाफ कुंठा निकालने जैसी बोलती है जबकि वे कोई बहुत पुरानी राजनीतिज्ञ भी नहीं हैं और न ही शुरू से भाजपा में होने का उनका कोई इतिहास है। उनकी शैली अरूचि पैदा करने लगी है। उन्होंने कहा है कि कांग्रेस को वे धन्यवाद देंगी कि उसने मान लिया है कि वह अकेले मोदी जी का मुकाबला नहीं कर सकतीं लेकिन यह बात तो भाजपा पर भी लागू हो सकती है। वह जो दूसरी उन पार्टियों से फिर से बेमेल गांठ जोड़ने की कोशिश कर रही है जिन्हे पहले अपने से अलग होने की उसने परवाह नहीं की थी। इसकी भी तो यही व्याख्या हो सकती है कि भाजपा में अकेले चुनावी वैतरणी पार करने का दम नहीं बचा है इसलिये वह उन पार्टियों के कंधों का सहारा लेने की अकुलाहट दिखा रही है।

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