Yashwant Singh : तंत्र साधना को जानने की इच्छा के तहत काफी समय से बहुत कुछ पढ़, देख, सुन, खोज रहा हूं. इसी दरम्यान चंद रोज पहले लखनऊ में एक ओशो पंथी संन्यासी मिल गए, स्वामी आनंद भारती. उनसे तंत्र को लेकर त्रिपक्षीय वार्ता हुई. एक कोने पर Kumar Sauvir जी थे. दूसरे कोने पर खुद स्वामी आनंद भारती और तीसरे कोने पर मैं, श्रोता व वीडियो रिकार्डर के रूप में. ये 25 मिनट का वीडियो आपको बहुत कुछ बताएगा.
सबसे खास बात है कि ये जो स्वामी आनंद भारती हैं, वे दरअसल भानु प्रताप द्विवेदी हैं, जो बेहद सामान्य से आम नागरिक हैं. संपादन, प्रूफ, वकालत आदि के जरिए वह जीवन यापन का खर्च जुटाते हैं. व्यवहार इतना सहज कि पूछो मत.
‘जीवन कैसे जिया जाए’ के सवाल पर वे हमेशा एक बात कहते हैं- ”सहज रहो, मस्त रहो, जो अच्छा लगे करो, लेकिन हर वक्त चैतन्य रूप में, बिना होश खोए. पियो इसलिए नहीं कि होश खोना है, इसलिए पियो कि होश का विस्तार करना है”
मैं तो स्वामी जी का इतना मुरीद हुआ कि आनंद की महाअवस्था में उनको गुरु मान खुद को उनका शिष्य घोषित करा बैठा और उनने उसी रौ में कर दिया दीक्षित, मध्य रात्रि के वक्त मेरा नामकरण किया- स्वामी प्रेम संतति!
पूरी रात सोते वक्त सपने देखता रहा कि मैं यानि स्वामी प्रेम संतति, सतत प्रेम करते हुए दुनिया के कई देशों को दुखों से मुक्त कर मस्ती के धागे में पिरो रहा हूं.
समझ ये आया कि संन्यासी या संत या स्वामी बनने की क्रिया तो बेहद निजी होती है लेकिन जब आप बन जाते हैं तो फिर सार्वजनिक यानि सबके सुख के लिए समर्पित हो जाते हैं. अत्यंत अंतर्मुखी से उदात्त बहिर्मुखी.
क्या ऐसा है?
बस यूं ही एक विचार आया, और एक विचार के एक ही डायमेंशन होगा, इसलिए यह कंप्लीट नहीं हो सकता क्योंकि यह ब्रह्मांड थ्री डी, फोर डी, सेवेन डी तो छोड़िए अनंत डी से निर्मित है, इसलिए विचार, जो कि वन डी होते हैं, कभी कंप्लीट नहीं हो सकते.
हर विचार इसीलिए अभिव्यक्त के योग्य होता है क्योंकि उसमें अथाह अधूरापन सन्निहित होता है. पूर्ण विचार अव्यक्त होते हैं.
ऐसा क्या?
हां जी.
जय हो.
वीडियो नीचे है, क्लिक करें>
https://www.youtube.com/watch?v=-OlZbU_4CM0
भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से.
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