राजस्थान पत्रिका में आज एक शीर्षक है – 2020 में शून्य फ़ीसदी रहेगी भारत की जीडीपी। यह शीर्षक जिसने लगाया है, या तो उसका वाणिज्य-विषयक ज्ञान ‘शून्य’ है या फिर वह जीडीपी के बाद ‘विकास/वृद्धि दर’ लिखना भूल गया है।
GDP यानी किसी भी देश के सकल घरेलू उत्पाद की टोटल मार्केट वैल्यू। भारत में पिछले कैलंडर या वित्तीय वर्ष में जितना सामान बना/उपजा और जितनी सेवाएँ दी गईं, उन सबकी टोटल बाज़ार क़ीमत ही उस समय के लिए भारत की GDP है। मसलन 2018 में भारत की GDP 2.72 लाख करोड़ डॉलर थी। UK की भारत से कुछ ज़्यादा और कनाडा की थोड़ी कम थी (देखें चित्र)।
लेकिन GDP में बराबर या आसपास होने से हम आर्थिक दृष्टि से ब्रिटेन या कनाडा जितने संपन्न नहीं हो गए क्योंकि हमारी आबादी में अंतर है। इसे यूँ समझिए कि दो लोगों को ऑफ़िस में बराबर सैलरी मिलती है लेकिन एक के घर में केवल पति-पत्नी हैं, दूसरे के घर में दस लोगों का परिवार है। निश्चित रूप से समान वेतन के बावजूद जिस परिवार में केवल पति-पत्नी होंगे, वह ज़्यादा अच्छा जीवन जी रहा होगा।
ख़ैर मैं दूसरी बात कर रहा था – GDP के शून्य होने की। क्या किसी देश की GDP कभी शून्य हो सकती है? अगर हो तो इसका मतलब उस देश में उस पीरियड में एक भी सामान नहीं बना, एक भी फ़सल नहीं उगी, कोई भी सेवा नहीं दी गई। क्या भारत में इस आपदा काल में भी ऐसा हो रहा है? नहीं हो रहा।
दरअसल GDP नहीं, GDP की विकास दस शून्य हो सकती है और बार्कलेज़ बैंक ने उसी की संभावना जताई है। उसके अनुसार 2020 के कैलंडर वर्ष में भारत में जीडीपी में शून्य वृद्धि होगी। 2020-21 के वित्तीय वर्ष के लिए उसने 0.8% की वृद्धि की भविष्यवाणी की है।
मैं भी साइंस का विद्यार्थी रहा हूँ, वाणिज्यिक मामलों का सीमित ज्ञान रहा है। इसलिए जानना चाहूँगा कि जब करोड़ों लोगों की नौकरियाँ जा रही हैं, कारख़ाने बंद हो रहे हैं तो विकास दर शून्य कैसे हो सकती है? क्या उसे नेगेटिव नहीं होना चाहिए? आपमें से जो वाणिज्य विषयों के जानकार हैं, उनसे आग्रह है कि इस बारे में मेरा ज्ञान बढ़ाएँ।
वरिष्ठ पत्रकार नीरेंद्र नागर की एफबी वॉल से.