रेलवे रिजर्वेशन में पत्रकारों को कोटा देती है, लेकिन ये कोटा कुछ ही पत्रकारों को मिल पाता है. जिस तरह अखबार मालिक और उनके चट्टे-बट्टे मैनेजर खुद को ‘संपादक’ या ‘रिपोर्टर’ बताकर ‘एक्रेडिटेशन कार्ड’ हथियाकर ‘सरकारी मान्यताप्राप्त पत्रकार’ बन जाते हैं और फिर सरकार की ओर से पत्रकारों को मिलने वाली मामूली से मामूली सुविधाएं भी हड़प लेते हैं, उसी तरह ये ‘तथाकथित पत्रकार’ रेलवे का रिजर्वेशन कोटा भी कब्जा लेते हैं. इसके अलावा कुछ ऐसे पत्रकार भी हैं, जो अपने लगे-सगे लोगों के लिए कोटा सुविधा का दुरुपयोग करते हैं. ऐसे में जो असली पत्रकार हैं और रेलवे कोटे जैसी सुविधाओं के असली हकदार हैं, वे बेचारे मुंह ताकते रह जाते हैं.
मुंबई में भी पिछले कई सालों से यही देखने को मिल रहा है. पता चला है कि अखबारों के दफ्तरों से रोज 2-4 सिफारिशी पत्र सेंट्रल और वेस्टर्न रेलवे के पीआरओ के पास पहुंचे रहते हैं. फोन और एसएमएस-व्हाट्सऐप की सिफारिशें अलग. अब ये पीआरओ उन्हीं लोगों की सिफारिश मंजूर करते हैं, जिन्हें वे ‘पहचानते’ हैं यानी वे मैनेजर या पत्रकार, जो उन्हें काम के लगते हैं, जो रोज उनके यहां उठते-बैठते हैं, दो-चार काम उनके भी करते हैं यानी रेलवे के खिलाफ न्यूज नहीं छापते और जैसी वे कहें, वैसी ‘पॉजिटिव’ न्यूज छापते हैं. पता चला है कि कई अखबारों के मैनेजर तो पीआरओ को यहां तक कह रखे हैं कि फलां-फलां के हस्ताक्षर से पत्र आए तो ही सिफारिश मंजूर करना, अन्यथा नहीं. अब ये जांच का विषय है कि क्या हर अखबार से 2-4-6 लोग रोजाना गांव आते-जाते हैं? हर अखबार भी नहीं कहना चाहिए, कुछ चुनिंदा अखबारों से? क्योंकि इन्हीं अखबारों से ज्यादातर सिफारिशें रोजाना पहुंची रहती हैं.
रेलवे विभाग को इस बात की जांच करनी चाहिए कि अखबारों की ओर से आने वाली सिफारिशें उसी अखबार में काम करने वाल जेनुइन पत्रकारों के लिए होती हैं या मैनेजरों के दोस्तों-रिश्तेदारों या फिर दोस्तों के दोस्तों के लिए? क्योंकि यह एक लूट है, जिसमें अखबार-मालिकों, मैनेजरों और रेलवे पीआरओ की मिलीभगत है? खबरें यहां तक हैं कि रेलवे के कुछ लोग और कुछ पत्रकार टिकट के दलालों से मिलकर कन्फर्म टिकट दिलाने के नाम पर इस सुविधा का इस्तेमाल पैसा कमाने के लिए करते हैं. इस तरह की खबरें सच हैं या नहीं, रेलवे को इसकी जांच करनी चाहिए. अगर इस सुविधा का इस्तेमाल जेनुइन पत्रकारों को ही न मिले और कुछ भ्रष्ट लोग इसकी आड़ में धंधा करें, तो इसका बंद हो जाना ही अच्छा है. अगर आरटीआई के माध्यम से जानकारी निकाली जाए कि किस अखबार की तरफ से पिछले 5 साल-10 साल में कितनी सिफारिशें आईं और कितनी मंजूर की गईं, उनके पीएनआर नंबर से पता किया जाए कि उस टिकट पर सफर करने वाला अखबार का कर्मचारी या उसके परिजन थे, या कोई और, तो मामले की पूरी सच्चाई सामने आ जाएगी.