संजय कुमार सिंह
आज के अखबारों में सांसद महुआ मोइत्रा को संसद से बर्खास्त करने की खबर सबसे महत्वपूर्ण है। एक और खबर महत्वपूर्ण है जो सभी अखबारों में पहले पन्ने पर है। नवोदय टाइम्स में इस खबर का शीर्षक है, “तीन दिन, 156 बैग अब तक कुल 225 करोड़”। इंडियन एक्सप्रेस में नोटों की तस्वीर के साथ खबर का शीर्षक है, दो सौ करोड़ और गिनती जारी : कांग्रेस सांसद से जुड़े परिसर में आईटी (आयकर वालों) ने नकदी पकड़ी, प्रधानमंत्री ने इसका उल्लेख किया। टाइम्स ऑफ इंडिया में इस खबर का शीर्षक है, आईटी छापों में 300 करोड़ मिले तो प्रधानमंत्री ने कांग्रेस की आलोचना की कहा, पूरा पैसा वापस कीजिये। हिन्दुस्तान टाइम्स में इस खबर का शीर्षक है, तीन राज्यों में छापे में 300 करोड़ रुपये मिले। फ्लैग शीर्षक है, फर्म कांग्रेस सांसद से संबंधित, विवाद शुरू।
यह खबर भुवनेश्वर और रांची डेटलाइन से है जाहिर है छापे उड़ीशा और झारखंड में पड़े हैं। दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार नहीं है और पैसा कांग्रेस सांसद (राज्यसभा सदस्य) से संबंधित बताया जा रहा है। इस समूह की कंपनी जिस तीसरे राज्य में है वह है पश्चिम बंगाल और वहां भी भाजपा का शासन नहीं है। प्रधानमंत्री इस ‘भष्टाचार’ पर तो बोल रहे हैं पर अदानी और अपने मंत्री के कारनामों पर नहीं बोल रहे हैं। रही बात सांसद के पास नकद बरामद होने की तो हर नकद काला धन नहीं होता है। सांसद को कोई इतना पैसा क्यों देगा और देगा तो महुआ मोइत्रा को क्यों बर्खास्त किया गया? इनकी सदस्यता क्यों बनी हुई है। पता क्यों नहीं चला? एजेंसियां-खुफिया तंत्र किसलिए हैं?
हालांकि, नोटबंदी के बाद तो यह बच्चा-बच्चा जान गया है। पहले बहुत सारे लोग नहीं जानते थे। फिर भी, इसमें कुछ गड़बड़ है तो तय है कि सरकार और उसकी एजेंसियों ने ऐसा कुछ नहीं किया है कि तथाकथित भ्रष्टाचार और नकद का लेन-देन रुक जाये। या रोकने में पूरी तरह सफल नहीं है। इस बरमदगी से यह आश्वान तो नहीं ही मिलता है कि भाजपा से संबंधित लोग ऐसा नहीं करते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि भाजपा शासित राज्यों में छापे नहीं पड़ते हैं और विरोधियों के यहां ही ईडी-सीबीआई जाती है। यह भी इस मामले से पुष्ट होता है। खबर की बात करूं तो शीर्षक में बताई गई राशि में 100 करोड़ का अंतर है। 100 करोड़ की कथित रिश्वत या कमाई के लिए भाजपा की एक और विरोधी पार्टी के मनीष सिसोदिया और संजय सिंह जेल में है जबकि पैसा बरामद नहीं हुआ है।
मुझे लगता है कि मुद्दा यह नहीं है कि कांग्रेस सांसद से जुड़े परिसरों में दो सौ करोड़ या तीन सौ करोड़ मिले। मुद्दा यह है कि 100 करोड़ के लिए दो निर्वाचित जनप्रतिनिधि जेल में हैं, शीर्षक में 100 करोड़ का कोई महत्व ही नहीं है और किसी के पास 300 करोड़ की नकदी इकट्ठा हो गई (अनुचित, गैर कानूनी है तो) सरकार को पता ही नहीं चला या कार्रवाई उसके खिलाफ हो रही थी जिसके पास पैसे नहीं मिले, जिसके खिलाफ मामला ही नहीं बनता या कमजोर है। जाहिर है, यह भी विरोधी सांसद (या फाइनेंसर को) परेशान करने का मामला हो सकता है। सरकार जब विरोधियों को चुन-चुन कर परेशान कर रही है, समकक्ष नेता या राजनीतिक दल के लिए कोई छूट नहीं है, इतनी सख्ती चल रही है तो आज के डिजिटल जमाने में इतने पैसे कैसे जमा हो जा रहे हैं।
संबंधित राज्यों में विपक्ष की सरकार है तो क्या यह नहीं माना जाये कि अपराध करने की छूट दी जाती है (किसी भी कारण से) और फिर बदनाम करने के लिए कार्रवाई की जाती है या किसी स्तर पर किसी तरह का सौदा नहीं होने पर ही मामला उजागर होता है। इसमें यह भी संभावना है कि राज्य की पुलिस नियंत्रण में नहीं हो तो आज की हालत में केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई छिपी रहे यह जरूरी नहीं है और मामला खुल जाता है तथा दूसरे राज्यों में वसूली चल रही है। छापे ही नहीं पड़ रहे हैं तो वह और गड़बड़ है। मेरी चिन्ता सिर्फ यह है कि इतनी सख्ती के बाद सत्तारूढ़ पार्टी से जुड़े लोगों के पास कोई गड़बड़ी क्यों नहीं पकड़ी जा रही है (वीडियो सार्वजनिक होने का एक मामला तो है ही) और जो पकड़ी जा रही है उसे सामान्य कैसे मान लिया जाये।
अमूमन खबर के साथ संबंधित का पक्ष भी होना चाहिये। पर छापा मारने वाल लोग अक्सर जिसके यहां छापा मारते हैं उसे दूसरों से बात नहीं करने देते हैं और लगता है कि इन मामलो में भी ऐसा ही होता है (जो जबरदस्ती है और अनुचित भी)। तभी अखबारों में संबंधित लोगों का पक्ष नहीं छपता है। अगर भाजपा को करोड़ों में चंदा मिल सकता है, वह ले सकती है तो जहां कांग्रेस या दूसरी पार्टी की सरकारें हैं वह चंदा क्यों न ले और ले तो कैसे गलत है। जहां तक कानून और कार्रवाई की बात है सबको पता है कि सरकार कानून का पालन और कार्रवाई कैसे कर रही है। इसलिए इस खबर में जितनी सूचना है उससे ज्यादा सवाल हैं और जाहिर है इसका जवाब नहीं मिलेगा। जबकि कांग्रेस और अन्य संबंधित लोगों को बदनाम करने के लिए यह पूरा आधार है।
इन्हीं अखबारों ने केंद्रीय मंत्री के बेटे के सैकड़ों करोड़ के मामले में कितनी खबर छापी और कितनी प्रमुखता दी आप जानते हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि प्रधानमंत्री राजनीति कर रहे हैं, अखबार राजनीति को अपनी सेवा बेच रहे हैं आप खबर को खबर की तरह लीजिये। दूसरी ओर, सरकार के काम करने के तरीके की जानकारी देने वाली एक खबर आज इंडियन एक्सप्रेस में है। यह दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर तो नहीं ही है। खबर उत्तराखंड में सिल्कयारा बरकोट सुरंग परियोजना से संबंधित है जिसके निर्माणाधीन हिस्से के धंस जाने से 41 मजदूर 17 दिनों तक फंसे रहे। खबर सुरंग धंसने से ही संबंधित है और बताती है कि भिन्न रपटों में 2017 में तथा तीन महीने पहले भी जोखिम और चुनौतियों को रेखांकित किया गया था।
कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी हालत में सुरक्षा और बचाव के उपाय किये जाने चाहिये थे जो नहीं किये गये थे। इस मामले में क्या कार्रवाई हुई, इसकी कोई खबर नहीं है। चर्चा है कि सुरंग बनाने वाली कंपनी का संबंध राजकीय सेठ से है। इस संबंध में और निर्माणाधीन सुरंग से संबंधित खतरों तथा पर्यावरण और पारिस्थितिकी से संबंधित मामलों में अनुमति नहीं लिये जाने और उसकी अवहेलना के लिए किये गये उपायों से संबंधित खबरें पहले भी छपी हैं। सरकार को जवाब तो इस मामले में भी देना चाहिये पर जब प्रधानमंत्री जवाब नहीं देते हैं और 15 लाख के बाद भी गारंटी दे रहे हैं, लोग पसंद कर रहे हैं तो ऐसी खबरों से क्या होने वाला है।
अदाणी के खिलाफ सवाल पूछने की सजा
महुआ मोइत्रा को संसद से निष्काषित किये जाने की खबर का शीर्षक द टेलीग्राफ ने, ‘सवाल पूछने के लिए सजा’ लगाया है। मुझे लगता है कि कार्यकाल खत्म होने से कुछ महीने पहले निष्कासित बर्खास्त करने से भाजपा को चाहे जो फायदा हुआ हो, महुआ मोइत्रा को कोई नुकसान नहीं होने वाला है। उल्टे फायदा होने की संभावना ज्यादा है। पर यह नरेन्द्र मोदी का एंटायर पॉलिटिकल साइंस है और उसे देखना, समझना सीखना महत्वपूर्ण है। यह अलग बात है कि पैसा लेना साबित नहीं होने पर भी संसद की सदस्यता से निकाल कर बहुमत वाली पार्टी ने साबित कर दिया है कि सवाल अदाणी के खिलाफ नहीं होना चाहिए। वरना ऐसे मामले तो पहले भी हुए हैं, स्टिंग भी था। दूसरी तरफ, संसद में साथी सांसद को गाली देने, अपमानित करने के मामले में कार्रवाई नहीं हुई है। इसलिए खबर तो यही है, “अदाणी के खिलाफ सवाल पूछने की सजा”।
इससे भी भाजपा की प्राथमिकता का पता चलता है। पर बहुमत है कि समझता ही नहीं। सांसद को इतनी आसानी से निकालने (वैसे तो ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है और स्पष्ट रूप से अधिकारों के दुरुपयोग का मामला है पर वह अलग मुद्दा है ) से पैसे की ताकत स्थापित हो गई है और वह लोकतंत्र, व्यक्ति के सम्मान आदि से ऊपर दिख रहा। खासकर उस शिकायत के कारण जो कायदे से कार्रवाई के लिए स्वीकार करने योग्य भी नहीं था। अभी तक मीडिया यह प्रचार कर रहा था महुआ को उनकी पार्टी का समर्थन नहीं मिल रहा है। इस कार्रवाई के बाद महुआ की पार्टी और विपक्षी इंडिया गठबंधन का समर्थन दिख गया।