हिन्दुस्तान को दिल्ली से नोएडा लाकर भी इस अखबार के मुख्य संपादक के दिल को चैन नहीं पड़ा। यहां लाकर उसने कर्मचारियों की जुबान पूरी तरह बंद कर दी। लगता नहीं कि ये लोग दिल्ली के अखबार हिन्दुस्तान से आए हैं या पूरे बंधुआ मजदूर हैं। यहां आकर मुख्य संपादक शशिशेखर का व्यवहार एकदम बदल गया है। वह पूरी तरह से हिटलर हो गए हैं। इनमें और रावण में कई समानताएं हैं। ये बहुत घमंडी हैं। अखबार की क्वालिटी सुधारने के बजाय फालतू चीजों में लोगों को परेशान करना, अचानक काम करते हुए कर्मचारी को पीछे से आकर डराना-धमकाना और बेइज्जत करना इनका रोज का काम हो गया है।
ये न सिर्फ डेस्क के कर्मचारियों को घोर दुख दे रहे हैं बल्कि ये बड़े एचओडीज़ और अन्य संपादकों को भी बिना बात के जमकर बेइज्जत करने में कोई देरी नहीं करते। शायद ये भूल गए कि ये एक भारत के बड़े अखबार में काम कर और करवा रहे हैं। बल्कि लगता हैं कि ये किसी कारखाने में किसी मजदूर से मजदूरी करा रहे हैं। इन्हें ध्यान रखना चाहिए कि ये पढ़े लिखे लोगों को और उन लोगों को डील कर रहे हैं जिन्होंने इस अखबार में इतने सालों से अपना पूरा तन-मन दिया है। यह 80 साल पुराना अखबार कोई यूं ही नहीं जो चल रहा है।
इनको अपने झूठे घमंड को त्यागकर, अच्छा माहौल जो मीडिया के लिए बहुत जरूरी है उसे बनाए रखना चाहिए। जैसा दिल्ली में था, न कि बदला लेना चाहिए। इतने बड़े व्यक्ति को ये सब शोभा नहीं देता। अब उमर के इस पड़ाव पर ये ऐसा कुछ करें जिससे लोग इनकी इज्जत दिल से करें न कि मजबूरी से।
एक पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित।
GAURAV SHARMA
October 4, 2014 at 12:12 pm
शोषण करने वाला इतना गुनेहगार नहीं होता जितना कि शोषण सहने वाला, मिलकर आवाज क्यों नहीं उठाते सभी कर्मचारी
एच. आनंद शर्मा, शिम
October 4, 2014 at 1:40 pm
देश में पत्रकारिता की दुर्दशा के लिए शशि शेखर जैसे लोग ही जिम्मेदार हैं, जिन्होंने पत्रकारीय काबलियत से इतर अधीनस्थों के शोषण को अपना हथियार बनाकर अखबारों के मालिकों की नजरों में जगह बनाई है। कोन अधीनस्थों का कितना अधिक शोषण कर सकता है, इसी के आधार पर उसने आगे भी संपादक, स्थानीय संपादक आदि बना दिए। पहले अमर उजाला में यह प्रयोग हुआ और अब हिंदी हिंदुस्तान की बारी है। परिणाम स्वरूप ऊंचे पदों पर पत्रकारों की जगह चापलूसों और लठैत टाइप लोगों का कब्जा हो गया। दशकों से संस्थान की सेवा कर रहे लोगों को मामूली लाभ के लिए बाहर धकिया दिया गया। जाहिर है मालिकों को इसका काफी फायदा हुआ, लेकिन अखबारों की लोकप्रियता का भट्ठा बैठ गया। अखबारों में यह परंपरा अब चल निकली है। पता नहीं कहां थमेगी?
Amit kumar
October 6, 2014 at 1:04 pm
ये शशिशेखर हर हफ्ते हिंदुस्तान एडिटोरियल पर लंबा चौड़ा ज्ञान बांटते हैं। कभी कोई दो हाथ धर दे तो क्या इज्जत रह जाएगी इनकी। इनसान का व्यवहार अच्छा होना चाहिए तभी लोग याद रखते हैं.
chandra kant gupta
October 7, 2014 at 12:25 pm
yeh tou naukari se nikal sakta hai rakhna tou aata nahin…. jo apne beto ko thik se padha nahin sakta ho woh kisi ko kya shikhayga naukarshahon ke naam per apni naukari kar raha hai yahan se jane ke bad kya karega isey bhi nahi …..
Haridutt
October 9, 2014 at 3:55 am
भाई ब्रांड का नाम तो सभी को पता है, सप्लाई दे दो तभी खुश होते हैं बड़े चौबे जी। ज्यादा जानकारी चाहिए तो आगरा में संपादक पुष्पी ठाकुर से पूछ लीजिए। रात आठ बजे से सुबह सात बजे तक कब क्या चाहिए, तुरंत बता देंगे। यही संपादक बनने की ट्रेनिंग होती है। आप सभी रिपोर्टर ही बने रहना चाहते हैं इसलिए ऐसी बाते कर रहे हैं। आगे बढ़ना है तो इनसे अच्छा आदमी और इतना सा शार्टकट काफी है। 8)
sk
October 30, 2014 at 3:06 pm
yeh aadami kaan ka bahut kachcha hai
kabil logo ko bardast nahi kar sakata hai
chaplooso ki fauj H NEWSPAPER me bhi
khada kar diya hai shobhana maidam jab asliyat janengi tabtak der ho jayegi